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कब यह पीर मिटेगी मन की....

[ विशेष - ओ.बी.ओ. के साहित्य मर्मज्ञ सुधि पाठकों के समक्ष अपनी यह रचना रख रहा हूँ. इसमें मैंने जीवन और आयु के विशेष सन्दर्भ इस मंतव्य के साथ प्रयोग किये हैं कि जीवन सदैव कम होता जाता है जबकि आयु सदैव बढ़ती ही जाती है...इसी भावना को ध्यान में रखकर रचना का अवलोकन करें...मुझे उम्मीद है कि ये विशिष्ट सन्दर्भ प्रयोग आप सभी को पसंद आएगा...]

 

 

कब यह पीर मिटेगी मन की.

जीवन नहीं अपितु आयु है, यह पीड़ा अंसुअन की..

[१] व्यथित ह्रदय छलछंदों से है,

अपनों के गलफंदों से है.

ज़ंजीरों में बंधक अन्तस्,

जीवन के अनुबंधों से है.

कब सुखवृष्टि पड़ेगी, ठंडी होगी चिता तपन की...

कब यह पीर मिटेगी मन की.

[२] अपनों से धोखे खाता है,

षड्यंत्रों में फँस जाता है.

साक्ष्य नहीं दे पाता, किन्तु-

समझ इसे सब कुछ आता है.

कैसी अग्निपरीक्षा है यह, नातों के बंधन की...

कब यह पीर मिटेगी मन की.

[३] हर दुःख से मेरा अनुबंधन,

जीवन जैसे घुलता चन्दन.

तटबन्धों को तोड़ कर रहा,

अश्रु सलिल तेरा अभिनन्दन.

मैंने लाज रखी है प्रियवर, तुमको दिए वचन की...

कब यह पीर मिटेगी मन की. [24/03/2004]

 



 

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Comment by अरुन 'अनन्त' on July 14, 2012 at 3:25pm

वाह बहुत ही खूबसूरती से वर्णन किया है आपने, बधाई

कृपया ध्यान दे...

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