आज गाँव से पाति आई,
माँ के चरणों की मिट्टी लायी
वैसे तो ये बस धूल है लेकिन,
इसमे अपनों की महक समाई
पाति में सबके हिस्से है,
सबके अपने-अपने किस्से है
कहीं प्रेम है, कहीं वात्सल्य है,
और पिता के दर्द छिपे है
जैसे-जैसे पाति खुलती,
याद सभी की साथ में चलती
सब के मन की बात है उसमे,
शब्द भाव में है घुल जाती
लिफ़ाफ़े पर नाम मेरा है,
अंदर सारा हाल लिखा है
क्युं परदेशी मैं बन बैठा हूँ,
सभी के मन को ये खलता है
थल की दूरी पाट दे कोई,
मन की दूरी पाट ना पाए
देश पड़ोसी हो तो क्या है,
जो वो मन का मीत ना होए
अबके बरस जो फसल उगाई,
बिन मेरे ना होत कटाई
अंधियारी सुनी कुटिया में,
तुझ बिन न दीप जलावे कोई
वैसे तो सब हीं ज़िंदा है,
पर दिखने में लगते मुर्दा है
आँख से आँसू अब ना बहते,
जब डोर लहू जुड़े न रहते
तोरे बापू कुछ ना कहते,
तेरे आहट को तकते रहते
माँ भी तेरी चल ना सकती,
पर तुलसी की फेरे करती
तेरी बहुरिया बन गयी दासी,
तुझ बिन उसकी यौवन उदासी
बस सिंदूर का शृंगार दिखे है,
मन तो लाचार दिखे है
डोली चढ़त बहनिया बोली,
क्यूँ ना तेरे संग वो रो ली
क्यूँ तुझसे मिलने के पहले,
हाथ ये उसकी पीली होली
अब तो वो आम भी सूखा,
जिसमे तूने जान था फूंका
ताल का पानी हो गया खारा,
तेरे जाने से जल गया सारा
अब तो लौट तू घर को आजा,
एक बात को दरस दिखा जा,
ऐसे धन का करना क्या है,
जब अपनों से दूर रहना है
इतना तो हम कर पाएंगे,
तेरा पेट भी भर पाएंगे
पर जो तु हमरे साथ ना होगा,
हम एक दाना ना खा पाएंगे
जैसे तुझ तक पाति पहुंचे,
अपनी बेचैनी भी पहुंचे
पांव तेरे रुके न तबतक,
जब तक तू घर को ना पहुंचे
"मौलिक व अप्रकाशित"
अमन सिन्हा
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