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दोहा पंचक. . . . दरिंदगी

दोहा पंचक. . . . . दरिंदगी

चाहे जिसको नोचते, वहशी कामुक लोग ।
फैल वासना का रहा , अजब घृणित यह रोग ।।

बेबस अबला क्या करे, जब कामुक लूटें लाज ।
रोज -रोज  इस कृत्य से, घायल हुआ समाज ।।

अबला सबला हो गई, कहने की है बात ।
जाने कितने सह रही, घुट-घुट वो आघात ।।

नजरें नीची लाज की, वहशी करता मौज ।
खुलेआम ही हो रहा, घृणित तमाशा रोज ।।

छलनी सब सपने हुए, छलनी हुआ शरीर ।
कौन सुने संसार में, अबला  अंतस  पीर ।।

सुशील सरना / 20-9-24

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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