दोहा सप्तक. . . . . . अभिसार
पलक झपकते हो गया, निष्ठुर मौन प्रभात ।
करनी थी उनसे अभी, पागल दिल की बात ।।
विभावरी ढलने लगी, बढ़े मिलन के ज्वार ।
मौन चाँद तकने लगा, लाज भरे अभिसार ।।
लगा लीलने मौन को, दो साँसों का शोर ।
रही तिमिर में रेंगती, हौले-हौले भोर ।।
अद्भुत होता प्यार का, अनबोला संवाद ।
अभिसारों में करवटें, लेता फिर उन्माद ।।
प्रतिबंधों की तोड़ता, साँकल मौन प्रभात ।
रुखसारों पर लाज की, रह जाती सौगात ।।
कुसुमित मन में जब हुई, मदन क्षुधा की पीर ।
अभिसारों के वेग में, टूटी हर जंजीर ।।
मन मधुकर मन पद्म में, ढूँढे मन का छोर ।
प्रीति पाश में हो गई, शर्मीली सी भोर ।।
सुशील सरना / 17-2-25
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