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दोस्तों देखे ग़ज़ल आप को कैसी लगी ....

आज के इस दौर में इन्सान चिन्तित है बड़ा, 

दरद सहता बेहिसाबा सेज पे भीष्म पड़ा।

तोड़ पिंजरा परिन्दा उड़ भी नही सकता अभी,

क्या करे जाये कहां ये सोच चौराहे खड़ा।

बैर भाई अब यूं करे गौना विभीषन हो गया,

खून के रिश्तें बड़े मतलब बिना है क्या भला।

आग जलती देख कर यूं हाथ सारे सेकते,

हम बुझाये आग क्यों फिर घर जला उसका जला।

इश्क में मतलब जमा शामिल हुआ अन्दाज से,

हीर रांझा भूल जाते है वफा का क्या सिला।

सोच अपनी हम बदल पाये नही रफ्तार से,

छोड़ कर तेरा नगर मायूस अब "रैना"चला।

"रैना"

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Comment by rajinder sharma "raina" on March 8, 2013 at 5:55pm
dosto meharbani aap ne jo kaha achchha lga ji
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 24, 2013 at 7:01pm
सच आज के दौर में सारे रिश्ते-नाते बेमानी-और बेइमानी साबित हो रहे हैं।आपने बहुत ही बढ़िया ढंग से आज के दौर का चित्रण किया है।बधाई इस गजल पर।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 24, 2013 at 7:01pm
सच आज के दौर में सारे रिश्ते-नाते बेमानी-और बेइमानी साबित हो रहे हैं।आपने बहुत ही बढ़िया ढंग से आज के दौर का चित्रण किया है।बधाई इस गजल पर।

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 24, 2013 at 4:29pm

भाई रैना जी, आपने गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहने का प्रयास किया है किन्तु काफ़िया गलत कर दिया है,मतला और उसके बाद का शेर सही है , बाद के शेर में काफ़िया गलत है । एक उपाय है मतला को ऐसे कहें कि काफिया आ की मात्रा पर आये ।

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 24, 2013 at 3:44pm

हार्दिक बधाई रेखा जोशी जी  ओ बी ओ मंच पर स्वागत है आपका श्री राजेंद्र शर्मा 'रैना' जी 

Comment by श्रीराम on February 24, 2013 at 7:49am

दिल से लिखी रचनाये अच्छी होती है ....बधाई 

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