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बहुत कुछ सुना पर सीख न पाया
बहुत कुछ सूझा पर लिख न पाया

बहुत कुछ हुआ मेरे पीठ पीछे
मुडके देखा
तो कुछ और ही पाया

नमक के जैसी थी प्रकृति मेरी
पानी में घुला पर मिट न पाया

बन बोछार जब छलका में
चिकने घड़ों पे टिक न पाया

घूमता हूँ छुपाये कितने मोती में
खारा समुन्दर हूँ छुप न पाया

तंग होकर जब खुद को बेचने चला बाज़ार में
निष्फल था सो बिक न पाया

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Comment by Bhasker Agrawal on May 10, 2011 at 5:41pm
धन्यवाद अरुण कुमार जी
Comment by Abhinav Arun on May 9, 2011 at 11:18am
बन बोछार जब छलका में
चिकने घड़ों पे टिक न पाया
 खूबसूरत बिम्बों की कविता निश्छल भाव बधाई भास्कर जी @|
Comment by Bhasker Agrawal on January 1, 2011 at 5:07pm
शुक्रिया लता जी
Comment by Lata R.Ojha on December 29, 2010 at 3:47pm

नमक के जैसी थी प्रकृति मेरी
पानी में घुला पर मिट न पाया

इन पंक्तियों का सौंदर्य ही अलग है..अदभुत :) 

Comment by Bhasker Agrawal on December 28, 2010 at 7:48pm
धन्यवाद मनीष जी
Comment by Manish Kumar on December 28, 2010 at 5:37pm
bahut sunder rachna bhasker ji , impressive......
Comment by Bhasker Agrawal on December 28, 2010 at 11:03am
बहुत धन्यवाद गणेश जी..

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 28, 2010 at 10:31am
निष्फल था सो बिक न पाया.....
वाह क्या बात कही है, बहुत खूब साथ मे नमक जैसे घुलना और पीठ पीछे भी देखने का प्रयत्न अद्भुत है , बहुत बहुत बधाई भाष्कर बाबू इस अनुपम काव्यकृत के लिये ...
Comment by Bhasker Agrawal on December 27, 2010 at 11:38pm
धन्यवाद नवीन जी

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