प्रयाग में गंगा से गले मिलकर यमुना ने कहा –” दीदी अब आगे तू ही जा I मेरी इच्छा तुझसे भेंट करने की थी, वह पूरी हुयी I रही समुद्र में जाकर सायुज्य हो जाने की बात तो वह मोक्ष तुझे ही मुबारक हो I वह मुझे नहीं चाहिए I मैं अब इससे आगे नही जाऊँगी, न अकेले और न तेरे साथ I”
“मगर क्यों बहन ? तुम मेरे साथ क्यों नही चलोगी ? दुनिया मुक्ति के लिए कितने जतन करती है और तू है की मुख चुरा रही है ?”
“हां दीदी ?”
“पर क्यों ?”
“तू हमेशा ज्ञानियों के संग में रही है I बड़े बड़े ऋषि-मुनि तेरे ही तट पर तपस्या कर ब्रह्म ज्ञानी बने है I तू भी उन्ही की राह पर है I पर मैं “मुक्ति” की जगह “भक्ति” में फँस गयी हूँ I मेरा मन तो उस कन्हैया में बसा है जो मेरे तट पर रास लीला रचाता था , जिसने कालिया का बध कर मेरा उद्धार किया था , जिसकी मुरली की तान से मेरे तट गूंजते रहते थे I मैं उन्हीं यादों के सहारे अपना जीवन काटूँगी जब तक मेरी आक्सीजन खत्म नही हो जाती I”
“आक्सीजन तो मेरी भी खत्म हो रही है I लोग तो हमे मारने पर तुले ही है I पर वे सफल मनोरथ हों इससे पहले हमे मुक्ति का संधान कर लेना चाहिए I इसलिये चल बहन व्यर्थ प्रमाद मत कर I”
“नही दीदी, तू नही समझेगी i देख वह ब्राह्मण जो तेरे तट पर नहा रहा है बह क्या गा रहा है ?
गंगा ने सर उठा कर देखा, “अरे यह तुलसी i यह तो राम भक्त है और कह रहा है कि - सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। “
“तो मैं श्याम भक्त हूँ, मोक्ष मुझे भी नही चाहिए I”
“तब ठीक है बहन, मैं तो चली I”
गंगा ने यमुना को उपेक्षा से देखा और सागर की ओर बढ़ गयी
(मौलिक/अप्रकाशित )
Comment
गहन और भावपूर्ण लघुकथा ! वाह !
आदरणीय गोपाल सर . इस मर्मस्पर्शी लघु कथा के लिए तहे दिल बधाई सादर प्रणाम के साथ
नदी नही हम माँ कहते है उनकी पीड़ा की सुंदर अभिव्यक्ति है कथा में ।बधाई आपको आद०गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी ।
अग्रज आ० निकोर जी को सादर प्रणाम I
आओ शून्य आकांक्षी जी , अनुग्रहीत हूँ I
आ० तेजवीर सिंह जी. सादर सादर सादर I
आ० विनय कुमार जी , हौसला अफजाई का शुक्रिया I
आ० समर कबीर साहब , बहुत बहुत धन्यवाद I
आ० प्रभा जी , बहुत बहुत आभार I
आपकी कलम जो भी लिखती है अच्छा लिखती है। हार्दिक बधाई, आदरणीय गोपाल नारायन जी।
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