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अब बात कुछ और है- लघुकथा

लगभग १५ मिनट बीत गए थे उस रेस्तरां में बैठे हुए, अभी तक खाना सर्व नहीं हुआ था. कलीग के बच्चे के ट्वेल्थ के रिजल्ट की ख़ुशी में आज दोनों फिर उस रेस्तरां में आये थे. अमूमन इतनी देर में बौखला जाने वाली उसकी कलीग ख़ामोशी से मेनू को उलट पलट कर देख रही थी. उसे थोड़ा अजीब लगा, उसने यूँ ही कहा "कितना समय लेते हैं ये बड़े होटल वाले खाना सर्व करने में, मुझे तो समझ ही नहीं आता. वैसे आज तुम कुछ बोल नहीं रही हो, क्या बात है?
कलीग ने सर उठाकर उसकी तरफ देखा और मुस्कुराते हुए बोली "अरे समय लग जाता है, ये लोग कोई खाना बनाकर नहीं रखते, आर्डर देने पर ही बनाते हैं".
"अच्छा, पहले तो मैं यह दलील देता था तो तुम उखड़ जाती थी कि यह तो इनका काम है तो जल्दी करें, हमारे समय की कीमत नहीं है क्या?
बहरहाल अगले दस मिनट में खाना टेबल पर था और दोनों खाने में लग गए. पनीर कुछ ख़ास नहीं था और दाल तड़का भी जैसे तड़क नहीं था. उसे लगा अब पक्का यह चिल्लायेगी लेकिन वह ख़ामोशी से खाना खाती रही.
उसने फिर कुछ कहना चाहा लेकिन कलीग ने जैसे भांप लिया "अब कोशिश तो कोई भी अच्छा बनाने की ही करता है, वैसे खाना स्वादिष्ट था".
उसे सब कुछ अजीब लग रहा था लेकिन अब चुप रहने में ही उसने भलाई समझी. कलीग ने पैसे देने के लिए अपना बैगनुमा पर्स खोला. उसकी नजर बैग पर पड़ी, अंदर होटल मैनेजमेंट के एक कालेज का ब्रोशर दिखाई दे रहा था.

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on September 11, 2019 at 7:44pm

इस टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ मुहतरम समर कबीर साहब

Comment by Samar kabeer on September 10, 2019 at 12:01pm

जनाब विनय कुमार जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।

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