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याद उसको कभी,मेरी आती नहीं ।
और ख्वाबों से मेरे,वो जाती नहीं ।।
सो रही अब भी वो, चैन से रात भर ।
अब इधर नींद आँखों में आती नहीं ।।
वो मिले जब कभी,बात पूंछू यही
प्यार उसको नहीं, या जताती नहीं ।।
लफ़्ज़ तेरे सभी,मेरे होंठों पे हैं ।
गीत क्यूँ तू मिरे गुनगुनाती नहीं ।।
तेरी हर बात का मैं तो काइल हुआ ।
मेरी बातें तुझे क्यों लुभाती नहीं ।।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
जनाब प्रशांत दीक्षित 'सागर' जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई। स्वीकार करें ।
'याद उनको कभी,मेरी आती नहीं ।
और ख्वाबों से मेरे,वो जाती नहीं '
मतले में शुतरगुरबा दोष है,ऊला मिसरे में 'उनको' की जगह "उसको" कर लें,दोष निकल जायेगा ।
'सो रही अब भी वो, चैन से रात भर ।
नींद ही अब कभी,मुझकोआती नहीं'
इस शैर का सानी मिसरा यूँ कर लें:-
'और इधर नींद आँखों में आती नहीं'
'लब्ज़ तेरे सभी,मेरे होंठों पे है ।
गीत क्यूँ तू मिरे गुनगुनाती नहीं '
इस शैर के ऊला मिसरे में 'लब्ज़' को "लफ़्ज़" और 'है' को "हैं" कर लें ।
'तेरी हर बात के,हम तो कायल हुये ।
मेरी बातें तुझे क्यों लुभाती नहीं'
इस शैर में भी शुतरगुरबा दोष है,ऊला मिसरा यूँ कर लें तो दोष निकल जायेगा:-
'तेरी हर बात का मैं तो क़ाइल हुआ'
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