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विदा लेता है कोई मन से इस तरह
कि जैसे
पलक भर झुकी हो
और दृश्य बदल जाए।
रात भर ऑसुओ से भीगा गिलाफ तकिये का
सुबह धुल जाए।सूजी हुई आंखें
पानी के छींटो से ताजा दम हो
काजल और बिखर जाए।बाकी हो बहुत कुछ कहना
और सांस का तार टूट जाए।
सूरज पर रहती हैं निगाह चौकस
चांद का क्या पता, कब निकले कब
ढल जाए।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित
अन्विता ।

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Comment by Samar kabeer on May 18, 2020 at 11:33am

मुहतरमा अन्विता जी आदाब,दो शब्दों में प्रतिक्रया देना या प्रतिक्रया का उत्तर देना ओबीओ की परिपाटी नहीं है,आपने देखा होगा कि यहाँ पहले आदरणीय/जनाब वग़ैरह कहकर पहले सम्बोधित किया जाता है फिर बड़े ही आदर से अपनी बात कही जाती है,उम्मीद है आप भी इस परिपाटी को निभाने में मंच को सहयोग देंगी ।

Comment by Anvita on May 17, 2020 at 9:17pm
बहुत बहुत धन्यवाद ।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 12, 2020 at 10:22am

आ. अन्विता जी, अच्छी रचना हुई है। हार्दिक बधाई । 

Comment by नाथ सोनांचली on May 11, 2020 at 7:32am

आद0 अन्विता जी अच्छी रचना हुई है। बधाई स्वीकार कीजिये।

Comment by Samar kabeer on May 9, 2020 at 2:42pm

मुहतरमा अन्विता जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।

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