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1212 1122 1212 22

निहाँ दिलों में यहां कितने राज़ गहरे हैं,
कि चश्म-ए-तर पे तबस्सुम के देखो पहरे हैं।

मिलो किसी से अगर फासला ज़रा रखना,

यहां मुखौटे लगाए हज़ार चहरे हैं।

ये इंतिजार हमें है सुने वो ख़ामोशी,
मगर ये इल्म नहीं था वो दिल से बहरे हैंl

ग़ज़ब का हौसला है देख मेरी आंखों का,
कि इनमें आज भी सपने कई सुनहरे है।

तुम्हारी याद जो महफ़िल में दफ़अतन आई,

इसी सबब से मेरे बहते अश्क ठहरे हैं।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Saarthi Baidyanath on March 22, 2021 at 3:22pm
Very Nice
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 16, 2021 at 9:42pm

आ. भाई समर जी, सादर आभार..

Comment by Samar kabeer on March 16, 2021 at 7:54pm

//बह्र के हिसाब से '" कि इनमें आज भी सपने कई सुनहरे है।"

मिसरे के रदीफ के बार शंशय सा है । मेरे संशय को दूर करने का कष्ट करे//

कि इनमें आ--1212

ज भी सपने--1122

कई सुनह--1212

रे हैं--22

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 16, 2021 at 7:41pm

आ. प्रतिभा जी, अभिवादन । अच्छी गजल हुइ है । हार्दिक बधाई । 

बह्र के हिसाब से '" कि इनमें आज भी सपने कई सुनहरे है।"

मिसरे के रदीफ के बार शंशय सा है । मेरे संशय को दूर करने का कष्ट करे । सादर..

Comment by Samar kabeer on March 15, 2021 at 9:07pm

मुहतरमा प्रतिभा शर्मा जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

'मुखौटे भी कई दफ़्हा लगे कि चेहरे हैं'

इस मिसरे को यूँ कर लें:-

'यहाँ मुखौटे लगाये हज़ार चहरे हैं'

'ये इंतज़ार हमें है सुने वो ख़ामोशी
हमें ये इल्म नहीं वो तो दिल से बहरे हैं'

इस शैर को यूँ कहें:-

'ये इंतिज़ार हमें है सुनें वो ख़ामोशी
मगर ये इल्म नहीं था वो दिल से बहरे हैं'

'ग़ज़ब का हौसला रखती हमारी भी आंखें,
हैं टूटते तो भी सपने सभी सुनहरे हैं'

इस शैर को यूँ कहें:-

'ग़ज़ब का हौसला है देख मेरी आँखों का

क़ि इनमें आज भी सपने कई सुनहरे हैं'

'तुम्हारी याद यूं महफ़िल में दफ़अतन आई
किसी तरह से ही बहते ये अश्क ठहरे हैं'

इस शैर को यूँ कहें:-

'तुम्हारी याद जो महफ़िल में दफ़अतन आई
इसी 

सबब से मेरे बहते अश्क ठहरे हैं'

Comment by Pratibha Sharma on March 13, 2021 at 9:40pm
जी आदरणीय वही अरकान है।
Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on March 13, 2021 at 3:56pm

मुहतरमा प्रतिभा शर्मा जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें । आपने बह्र के अरकान नहीं लिखे हैं, कृपया लिख दिया करें इससे टिप्पणी करने वालों और सीखने वालों को आसानी होती है। ग़ालिबन आपकी ग़ज़ल के अरकान ये हैं। 

1212 / 1122 / 1212 / 22

'मुखौटे भी कई दफ़्हा लगे कि चेहरे हैं'   इस मिसरे में 'दफ़्हा' शब्द ग़लत है, सहीह लफ़्ज़ 'दफ़अ' है, मिसरा यूँ कर सकते हैं-

'कई दफ़अ तो मुखौटे भी लगते चहरे हैं'

'ये इंतज़ार हमें है सुने वो ख़ामोशी,

हमें ये इल्म नहीं वो तो दिल से बहरे हैं'   शे'र के ऊला में 'सुने' को 'सुनें' कर लें, दोनों मिसरों में 'हमें' ठीक नहीं है सानी से 'हमें' जगह 'मगर' करना बहतर होगा।

'ग़ज़ब का हौसला रखती हमारी भी आंखें,   इस शे'र का शिल्प और वाक्य विन्यास दुरुस्त नहीं है, यूँ कर सकते हैं - 

हैं टूटते तो भी सपने सभी सुनहरे हैं' 

'ग़ज़ब का हौसला रखकर हमारी आँखों को 

लगा कि ख़्वाब सभी अपने अब सुनहरे हैं' 

व्याकरण की शुद्धता के लिए 'आखें', 'यूं' , 'यहां' पर चन्द्र बिन्दु लगा लें। सादर। 

कृपया ध्यान दे...

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