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याद आ रही है

उन गलियों की

जहां खेल कर मैं बड़ा हुआ

उन राहों की जो आज भी

मेरे मन मे बसते है

वो कच्चा मकान

जिसमे मेरा बचपन बिता

वो छोटी दुकान जिसमे ना जाने

कितनी उधारी रह गयी

वो माँ की थपकी

वो बड़े भाई की झप्पी

दीदी का पीटना

छोटे भाई का खीजना

चोरी के लड्डू खाना

पल भर मे रोना गाना

वो आँख मिचौली

वो चूरन की गोली

वो कूल्फी की मटकी

वो डाली पर पतंग लटकी

वो अठन्नी चौवन्नी

वो लट्टू और घिरनी

वो स्कूल के साथी

वो मेले का हाथी

क्रिकेट फूटबाल और हाकी

रह गया बहूत कुछ बाकी

वो शनिवार का शक्तिमान,

कैप्टन व्योम, प्लूटो

और शाका लाका बूम बूम

चंद्रकांता, महाभारत

और वो मौगली,

चित्रहार और मालगुडी डेज

वो गर्मी की छुट्टी

वो बेफिक्र ज़िंदगी

दस पैसे की चटनी

पाँच पैसे की पापड़

वो पेंसिल के छिलके से रबर बनाना

दूसरे के कलम को अपना बताना

वो बचपन सुहाना वो बचपन सुहाना

याद आ रही है, बस याद आ रही है

"मौलिक व अप्रकाशिर" 

अमन सिन्हा 

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Comment

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Comment by AMAN SINHA on March 25, 2022 at 10:25am

@SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR 

आदरणिय सुरेन्द्र जी, 

सराहना के लिये विनम्र आभार स्वीकार करें। 

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on March 24, 2022 at 12:16pm

अल्हड़ बचपन की यादों को पिरोए हुए अच्छी रचना बन्धु, जय श्री राधे।

कृपया ध्यान दे...

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