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ख़्वाब देखे जो भी मैंने सब अधूरे रह गए

मिटटी के बर्तन थे कच्चे, पानी के संग बह गए

रेत की दीवार थी और दलदली सी छतरही

मौज़ों के टकराव से वो अंत तक लड़ती रही

साल सोलह कर लिए जो पूरे अपने उम्र के

कैद में घिरने लगी मैं बिन किये एक जुर्म के

स्कूल का बस्ता भी मेरा कोने में था पड गया

सांस लेती किताबों पर भी धूल सा एक जम गया

 

शौक दिल में आ बसा था “लॉ” की पढ़ाई का

चल पड़ी थी थाम के मैं अस्त्र उस लड़ाई का

दो दिनों भी चल सका ना क्रोध मेरे भाई का

बस मेरा एक ही साथी था जो इस लडाई का

 

चूल्हा और चौकी में मेरा वक़्त यूं कटता गया

घर की लाचारी के आगे दम मेरा घुटता गया

एक अधूरी चाह बनके ग़म मेरा बढ़ता गया

हौंसला जो साथ में था वो कहीं खोता गया

उम्र का बड़ा सा हिस्सा आस में काटता गया

क़्त जो सिर्फ मेरा था वो अपनो में बांटता गया

“लॉ” की पढ़ाई का ज़ज़्बा दिल यूं मिटता गया

ज़िंदगी का फलसफा जैसे ज़हन से मिटता गया

बहुत हुआ अब आज मैंने फैसला ये कर लिया

ज़िम्मेदारी की डली को बस किनारे धर दिया

आजसे खुदके ही खातिर सिर्फ जीना है मुझे

बस किताबों का दामन अब पकड़ना है मुझे

 

बोलते जो बोलने दो और उनको क्या काम है

काम जिसने कर लिया उसी का होता नाम है

मैं ना ठहरूंगी के जब तक लक्ष्य को ना पाऊँगी

“लॉ” की पढ़ाई करके सबको आइना दिखाउंगी

"मौलिक व अप्रकाशित" 

अमन सिन्हा 

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Comment

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Comment by AMAN SINHA on April 16, 2022 at 9:23am

आदरणीय Sushil Sarna साहब, 

हौसला बढाने हेतु आभार ग्रहण करें । 

Comment by Sushil Sarna on April 12, 2022 at 6:13pm
वाह आदरणीय बहुत ही सुंदर और सार्थक तथा भावपूर्ण प्रस्तुति ।हार्दिक बधाई सर

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