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ग़ज़ल (अलग-अलग अब छत्ते हैं)

लोग हुए उन्मत्ते हैं
बिना आग ही तत्ते हैं

गड्डी में सब सत्ते हैं
बड़े अनोखे पत्ते हैं

उतना तो सामान नहीं है
जितने महँगे गत्ते हैं

जितनी तनख़्वाह मिलती है
उस से ज्यादा भत्ते हैं

कानूनों के रचनाकार
उन्हें बताते धत्ते हैं

बेशर्मी पर हैं वो ही
तन पर जिनके लत्ते
हैं

शहद बनेगा कितना ही
अलग-अलग अब छत्ते हैं

#मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by अजय गुप्ता 'अजेय yesterday

उत्साहदायी शब्दों के लिए आभार आदरणीय गिरिराज जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी yesterday

आदरणीय अजयन  भाई , परिवर्तन के बाद ग़ज़ल अच्छी हो गयी है  , हार्दिक बधाईयाँ 

Comment by अजय गुप्ता 'अजेय on Wednesday

साथियों से मिले सुझावों के मद्दे-नज़र ग़ज़ल में परिवर्तन किया है। कृपया देखिएगा। 

बड़े अनोखे पत्ते हैं

गड्डी में सब सत्ते हैं

भड़के रहते हर पल लोग 

बिना आग क्यों तत्ते हैं  (तत्ता आँचलिक शब्द है जिसका अर्थ गर्म होना है)

उतना तो सामान नहीं
जितने महँगे गत्ते हैं (गत्ते यानि साथ का बारदाना)

जितना वेतन मिलता है
उस से ज्यादा भत्ते हैं

क़ानूनों के रक्षक ही

करते उनमें खत्ते हैं (खत्ते-गड्ढे)

बेशर्मी पर हैं वो ही
तन पर जिनके लत्ते
हैं

हर मक्खी है अपने में

शहद से ख़ाली छत्ते हैं

Comment by अजय गुप्ता 'अजेय on Wednesday

हार्दिक आभार आदरणीय रवि शुक्ला जी। आपकी और नीलेश जी की बातों का संज्ञान लेकर ग़ज़ल में सुधार का प्रयास जारी रहेगा।

सादर

Comment by अजय गुप्ता 'अजेय on Wednesday

ग़ज़ल पर आने और अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आभार भाई नीलेश जी

Comment by Ravi Shukla on Tuesday

      आदरणीय अजय जी ग़ज़ल के प्रयास केलिये आपको बधाई देता हूँ । ऐसा प्रतीत हो रहा है कवाफी के लिये ग़ज़ल कही गई है प्रयोग अच्छा है लेकिन शब्दो को उनके अर्थ के अतिरिक्त वाक्य की आवश्यकता अनुसार प्रयोग किया गया लगता है । तनख्वाह वाले मिसरे में भी लय बाधित लगी मुझे । कुछ बातें आदरणीय नीलेश जी ने भी कही  है । सार्थक हैं उनके सुझाव । 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on Monday

आ. अजय जी,

क़ाफ़िया उन्मत्त तो सुना था उन्मत्ते पहली बार देखा...
तत्ते का भी अर्थ मुझे नहीं पता.
.
उतना तो सामान नहीं है (एक मात्रा बढ़ रही है)
उतने का सामान नहीं  (वैसे न की तकरार यहाँ भी है) 
जितने महँगे गत्ते हैं.
.
धत्ते.. धता बताना सुना था.. यह अजीब लग रहा है.

अलग-अलग अब छत्ते हैं?? अलग अलग ही होते हैं छत्ते.. मैं समझ नहीं पाया आपकी इस ग़ज़ल को 
सादर 

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