(परस्पर वार्तालाप के क्रम में कहे गये छंद)
श्री योगराज प्रभाकर
कह-मुकरी
(1)
लाली दे दे वो चेहरे को
आफताब कर दे ज़र्रे को,
दे सब को ही शुभ आशीष
ऐ सखी साजन ? नाहि अम्बरीष !
(2)
जाए नजरिया गहराई तक
देखा न वैसा गुण ग्राहक,
नापे इक दृष्टि में वो नभ,
ऐ सखी साजन ? न सखी सौरभ !
घनाक्षरी
(1)
लेके खड़िया सलेट, देके हर माँ को भेंट,
कापी पेंसिल समेत, स्कूल पहुंचाइए !
टूटे जो मदरसे हैं, छत को जो तरसे हैं,
खूब आँसू बरसे हैं, इनको बचाइए !
अनपढ़ता ने मारा, कैसा है ये अँधियारा
ज्ञान का हो उजियारा, रौशनी फैलाइए !
बात बड़ी सीधी सादी, पढ़े पोती पढ़े दादी,
करो हरसू मुनादी, सभी को पढाइए !
(2)
बरसों से थी अधूरी, बहू कीन्ही आस पूरी,
सीखना जो था ज़रूरी, मुझको सिखा दिया !
नाम लिखती हूँ आप, रही न अंगूठा छाप,
बहू रानी का प्रताप, अँधेरा मिटा दिया !
लिखना ज़रूरी बड़ा, पढना ज़रूरी बड़ा,
बढ़ना ज़रूरी बड़ा, मुझे समझा दिया !
ज्ञान का दिया है दान, मेरा है बढाया मान,
मुझपे लुटाई जान, बेटी को भुला दिया !
चौपाई
हर पहलू से सफल चौपाई !! अश अश करें सब सौरभ भाई !
इस तस्वीर को खूब बखाना !! लोहा तुमरा सब से माना !!
उत्तम शिल्प का दिया नमूना !! रौशन कर दिया आँगन सूना !
चित्र-काव्य को यूँ सिंगारा !! जय जय कहता मंच हमारा !!
दोहा
चौपाई दोहा मिला, खूब सजायो छंद,
भाई सौरभ आपकी, है परवाज़ बुलंद !
अम्बरीष श्रीवास्तव
कह-मुकरी
शब्द साध कर चित्र बनाते
कहमुकरी पल में कह जाते
काव्य साधना पूरी होगी
ऐ सखी साजन ना सखी योगी !
कुण्डलिया
भाई योगी जी यहाँ, इन पर हमको नाज़,
ग़ज़ल-छंद में साधना, ओ बी ओ सरताज,
ओ बी ओ सरताज, बड़े ही मृदुभाषी हैं,
सब पर है स्नेह, सभी के ये साथी हैं,
अम्बरीष जो आज, यहाँ पर रौनक आई,
जन-जन के प्रिय बन्धु हमारे योगी भाई..
घनाक्षरी
वाह-वाह भाई बागी, कविताई नेह पागी,
सभी को लगन लागी, जोश भरपूर है.
अक्षरों से जोड़ें पाई, बहूबेटी मन भाई
एकता ही सिखलाई, चहुँ ओर नूर है
बूढ़ी-बूढ़ी देखो दादी, अधनंगी सूती खादी,
फिर भी न थकी-मादी, पढ़ना जरूर है.
श्याम पट्ट अँधियारा, स्लेट का भी रंग कारा,
अक्षर दें उजियारा, मिटता गुरूर है ..
चौपाई
अपने मन को है अति भाई | सौरभ जी सुमधुर चौपाई ||
दोहा सरल सुहावन लागै | सुनतहिं कुंठा संग दुःख भागै ||
अक्षर ज्ञान भले हो भिक्षा | अति आवश्यक सबसे शिक्षा ||
दोहा
बेटी सम यह स्नेह है, देती अक्षर ज्ञान.
बहू सहेली सम सदा, देना उसको मान..
श्री गणेश जी बागी !
कह-मुकरी
सबको करते दिल से प्यार,
उनका है दिल से आभार
धन्य हुए हम उनको पाकर,
ऐ सखी साजन ? ना सखी प्रभाकर
श्री सौरभ पाण्डेय जी
कह-मुकरी
कहें कथन सुधि हृदय लगायी
भाव गहें, गंभीर-सिधायी
मुक्त लहर के मोहक साज.. .
ऐ सखी साजन ? नहिं योगराज !
घनाक्षरी
(1)
मन से मगन भर, घन से ही घन पर,
रच-रच स्वर-स्वर, कहते घनाक्षरी ।
योगराज रहि-रहि, बात से जज़्बात बहि
सधी सुधि बात कहि, बाँचते घनाक्षरी ।
अम्बरीष-परिपाटी, भाई योगीजी की खाँटी
संस्कारी लेकर माटी, रचते घनाक्षरी !
सच की कहन कढ़ि, भावना सटीक गढ़ि
मुग्ध भये पढ़ि-पढ़ि, गुनते घनाक्षरी !
(2)
भाई बाग़ी रचते हैं, उचित ही कहते हैं,
रस-रस बहते हैं, काव्य की बहार है
योगीभाई खूब कहें, विषय के मर्म गहें
भाव-बंद छंद सहें, कहन स्वीकार है
काव्य की है धार यहाँ, ओबीओ फुहार यहाँ
और ऐसा प्यार कहाँ, ढूँढना बेकार है
भाव-स्वर विशेष हो, और न कोई क्लेष हो,
सरस्वती-गणेश हों, ब्रह्म ही साकार है !!
कुण्डलिया
(1)
वधु-बेटी को जानिये , दो काया इक प्राण
एक हिलोरे प्रेम-रस, दूजे कारण त्राण
दूजे कारण त्राण, समर्पित जीवन सारा
धर्म कर्म आधार, बहू ही असल सहारा
निश्छल सारा प्रेम, कहो ना ’जैसी-बेटी’
दोनों मेरी जान, सुखी हो हर वधु-बेटी
(2)
भाई संजय कह रहे, दोहों से उद्गार
होता रहे प्रयास नित, होंगे छंद साकार
होंगे छंद साकार, मनोहर भाषा उनकी
कहें सुने स्वीकार, करें वे साझा मनकी
शुभ-शुभ बढिया होय, हृदय से उन्हें बधाई
सात्विक यही प्रयास, सुगढ़ हों बहना-भाई
दोहा
(1)
हृदय सराहे आपको, आप सराहें पद्य ।
’सीख-सिखाना’ रीति से, साधें पिंगल-गद्य॥
(2)
व्यवहारी उत्साह से, पूजें अक्षर-काव्य।
काव्य-साधना नित करें, मंदिर हो अति भव्य॥
चौपाई
आप कहा हरि कितना उत्तम । वर्ना मैं क्या, कितना सक्षम ॥
शब्द व पिंगल के तुम ज्ञाता । कहा तुम्हारा मानूँ भ्राता ॥
अम्बरीष मन-हृदय भला है । सौरभ का कवि-रूप फला है ॥
आओ मिलजुल स्वर-सुर साधें। सीख सिखाएँ खुद को नाधें॥
श्री इमरान खान
कह-मुकरी
जबसे मैंने उसको पाया
यह मनवा मेरा मुस्काया
वो ही आत्मा वो ही जान
ऐ सखी साजन? न सखी ज्ञान।
रवि कुमार गिरी
कह-मुकरी
(1)
मनमोहक मनभावन है वो ,
देखन में भी पावन है वो ,
उसके लिए बनी मैं जिद्दी ,
ऐ सखी साजन ? न सखी ए बी सी डी !
(2)
किया बहुत मन को मजबूर,
उसको पाकर हुआ गरूर ,
उसके आने से है शान ,
ऐ सखी साजन ? न सखी ज्ञान!
श्रीमती शन्नो अग्रवाल
आप सबकी लेखनी तो बहुत महान है
अपना तो काव्य में बहुत अल्प ज्ञान है
यहाँ हम सबकी काव्य-धारा में डूब कर
अमृत सा पी रहे हैं ये भी एक वरदान है.
संजय मिश्रा 'हबीब'
कुण्डलिया
“सौरभ भैया का मिला, रचना को आशीष
सौरभ से मन भर गया, और झुका है शीश
और झुका है शीश, उन्हें ज्ञापित आभार
करूँ सदा प्रयास, रहे सार्थक उदगार
हर्षित दास हबीब, बिना पर नापा है नभ
राह दिखाते रहें, भाइ को भैया सौरभ”
श्री सतीश मापतपुरी
कह-मुकरी
हर नई टेक्निक झट से सीखे.
किसी विषय पर सटीक ही लिखे.
जिसकी रचना अलग - विशेष.
ए सखी ब्रम्हा - ना सखी गणेश.
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आदरणीय अम्बरीषभाईजी, आपके इस प्रयास पर मैं मुग्ध हूँ.
यह अवश्य है कि प्रतिक्रिया के तौर पर प्रस्तुत की गयी रचनाएँ उत्साह, अध्ययन और रचनाधर्मिता का मिला-जुला रूप हैं.
शब्द-ज्ञान और काव्य के ऊपर चल रहे अपने प्रयास ऐसी प्रतिक्रियाओं से न केवल गति पाते हैं बल्कि काव्य-दृष्टि के लिहाज से भी रचनाकारों और पाठकों दोनों के लिये उन्न्त वातावरण उपलब्ध कराते हैं. यदि आगे कहूँ.. तो यह सारा प्रयास मात्र चमत्कार की श्रेणी में कत्तई नहीं आता. दूसरे, ये पद्यात्मक-प्रतिक्रियाएँ परस्पर श्रद्धा, प्रतिष्ठा और ज्ञान को स्वर देने का महान् कार्य कर रही हैं जो कि उप्+नि+शत् (नीचे बैठ कर सीखने की परंपरा) की श्रेणी और व्यवस्था को और प्रगाढ़ करती हैं. ऐसी पद्यात्मक-प्रतिक्रियाएँ तो मुझे वस्तुतः गुरु-शिष्य परम्परा की पतिच्छाया से भी साक्षात् कराती हैं जो कि वर्त्तमान नेट की असंयमित दुनिया में फैल चुकी आत्म-मुग्धता के कारण एक तरीके से हाशिये पर चली गयी है. इस लिहाज से यह प्रक्रिया अनुशासनहीन आत्म-मुग्धता से बाहर आने की राह भी दिखाती हैं और एक उचित साधन सरीखी भी हैं.
यदि कोई संवेदनशील पाठक थोड़ा-बहुत भी प्रभावित हो कर सक्षम काव्य-कर्म के लिये प्रवृत होता है तो यही इन पद्यात्मक-प्रतिक्रियाओं की महती क्षमता और उनके अर्थ प्रतिस्थापित करने के लिये काफी हैं.
इस परंपरा को प्रारम्भ करने के लिये आपको तथा आदरणीय योगराजभाई को मेरा सादर नमन.
बहुत-बहुत बधाइयाँ.. .. . सादर !
अम्बरीश सर, प्रणाम
नमस्कार भाई आशीष जी,
आपका स्वागत है ! आपने इस प्रयास को सराह कर हमें मान दिया यही महत्वपूर्ण है ! आपका हार्दिक आभार मित्र !
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आदरणीय सौरभ जी,
आपका स्वागत है ! आपने सत्य कहा कि यदि कोई संवेदनशील पाठक थोड़ा-बहुत भी प्रभावित हो कर सक्षम काव्य-कर्म के लिये प्रवृत होता है तो यही इन पद्यात्मक-प्रतिक्रियाओं की महती क्षमता और उनके अर्थ प्रतिस्थापित करने के लिये काफी हैं.! वस्तुतः इसके प्रस्तुतीकरण का उद्देश्य भी यही है !
आपका हार्दिक आभार मित्र !
सादर,
अम्बरीष श्रीवास्तव