दो घनाक्षरी छंद (प्रतियोगिता से अलग)
--१--
छोटे-छोटे काँधों पर, सफाई की कमान है,
"बाल श्रम बंद" बस, झूठा अभियान है |
बेवड़े पिता की ड्यूटी, बिटिया बजाय रही,
ऊँच-नीच का न जिसे, जरा अनुमान है |
कापी-कलम चाहिए, था होना जिन हाथों में,
झाड़ू लिये मुन्नी रानी, हुई हलकान है |
"बागी" बूझे सब यार, बैठी मूक सरकार,
भोले बचपन का ये, घोर अपमान है ||
--२--
दो वक्त की रोटी-दाल, जुटाने चली गुड़िया,
अपने माई बाप को, खिलाने चली गुड़िया |
पेट की जो आग पापी, सब कुछ कराती है,
काम कोई छोटा नहीं, बताने चली गुड़िया |
छुआ-छुई, लुका-छिपी, क्या जाने वो गोटी-चिपी,
बचपन पर झाड़ू, लगाने चली गुड़िया |
देखकर ऐसा चित्र, हृदय हुआ व्यथित,
योजना का सच अब, दिखाने चली गुड़िया ||
*****************************************
श्री अलबेला खत्री
पाँच दोहे
अब मैं कोई गन्दगी नहीं करूंगी माफ़
झाड़ू ले कर हाथ में कर डालूंगी साफ़
बचपन मेरा छिन गया, लुट गए सब अरमान
धन्य धन्य तू धन्य है, मेरे हिन्दुस्तान
झाड़ू मेरे हाथ में, आँखों में है आग
निर्धन घर पैदा हुई, फूट गए हैं भाग
मुझको संसद भेजदो, करने को तुम साफ़
कर दूंगी इस बार मैं, मार मार इन्साफ़
मुझको भी सपने दिखें, मैं भी हूँ इन्सान
किन्तु गरीबी खा गई, मेरी हर मुस्कान
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श्री अरुण कुमार निगम
छंद – कुण्डलिया
मारी झाड़ू भाग्य पर , किस दुर्जन ने हाय
क्या समझें इस दृश्य को,उन्नति का पर्याय
उन्नति का पर्याय कि समझें है मजबूरी
यक्ष प्रश्न है खड़ा , ये उत्तर बहुत जरुरी
करें उजागर सत्य , लगेगी चुगली - चारी
किस दुर्जन ने बाल-भाग्य पर झाड़ू मारी ||
__________________________________________
दूसरी प्रस्तुति :-
छंद - दुर्मिल सवैया
।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ( सगण यानि सलगा X 8 )
इस ठेसन से उस ठेसन को , नित झाड़ रही मुसकाय रही |
मन मान गई विधि लेख यही,निज के मन को बहलाय रही ||
गलहार दिखै न दिखै कँगना ,नहि पायल पाँव सजाय रही |
नहि नाज पली कचनार कली , हिय सिंधु हिलोर उठाय रही ||
छंद – मत्तगयंद (मालती) सवैया
SII SII SII SII SII SII SII SS ( 7 भगण यानि भानस तथा अंत में 2 गुरु)
लाड़ दुलार न पाय सकी ,लड़की लड़ती किस संग बिचारी |
मात पिता बनिहार रहै , जिनगी उनकी तलवार दुधारी ||
हाथ बुहारन लै निकली , मन मार तजी गुड़िया सुकुमारी |
हाय गरीब करै कछु का, पितु मात हिया लगि रोज कटारी ||
[ ठेसन = स्टेशन , बनिहार = मजदूर , बुहारन = झाड़ू , तजी = त्याग दी , कछु = कुछ ]
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श्री सौरभ पाण्डेय जी
(प्रतियोगिता से अलग)
छंद - दुर्मिल सवैया
।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ( सगण यानि सलगा X 8 )
भगवान दिये तन-साधन साँस बहा विधना जिमि खेल करे |
अनुभाव प्रभाव जुड़ाव समान दिया पर भाग्य न मेल करे ||
कुछ माथ लिखे सुख-साधन भोग गहे कुछ हाथ बुहारन को |
इह-जीवन की नदिया बहती निज कर्म फलाफल तारन को ||
परिवार क पालत हाड़ गले सुधि जारि रहा जठरा दहके |
अब कौन विधान रुचे श्रम-सूचक फेफरि होंठ दिखें लहके ||
लखि मातु-पिता दिन-रात जरैं, तन झोंकि रहे, मन धूकि रहे |
झट कोमल हाथ जुड़ें परिवारक आमद में तन फूँकि रहे ||
चलती दुनिया अपनी गति में.. पर शासन-तंत्र अकारक क्यों ?
सरकार व तंत्र विचारि कहें, जन-लोकहिं अंतर मारक क्यों ??
यदि शासन भ्रष्ट नकार दिखे व दिखावन मात्र विधावलियाँ,
तब जीवन सोझ लगे सिर-बोझ नहीं रुचतीं नियमावलियाँ ||
[ तन-साधन - शरीर रूपी साधन ; विधना - भाग्य लिखने वाला, बह्मा ; जिमि - जिसमें ; अनुभाव - अनुभूतियाँ, सुख-दुख के भाव (’अनु’ बारम्बारता का निरुपण है) ; प्रभाव - असर ; जुड़ाव - परस्पर सम्बन्धों की तीव्रता ; कुछ माथ लिखे - कुछ लोगों के सिर लिखा ; गहे - थाम लेना ; बुहारन - झाड़ू ; इह -लौकिक, इस लोक का ; इह-जीवन - इस लोक में दीखता जीवन, लौकिक-जीवन ; तारन को - तारने के लिये ; परिवार क - परिवार को ; पालत - पालते हुए ; हाड़ गले - कष्टसाध्य ; सुधि जारि रहा - बुद्धि-विचार को (भी) जला रहा ; जठरा - पेट ; विधान - कानून ; श्रम-सूचक - श्रम सम्बन्धी सूचना देने वाला ; फेफरि होंठ - भूख और प्यास से सूखे होंठ जो अक्सर सफ़ेद दीखते हैं ; लहके - लहकना, लपट निकलना ; लखि - देख कर ; जरैं - जलें ; कोमल हाथ जुड़ें - बच्चों का काम करना (बच्चों का श्रम के लिये विवश होने के संदर्भ में) ; परिवारक आमद - परिवार की आमदनी ; तन फूँकि रहे - शरीर को शारीरिक श्रम में लगाना ; अकारक - अकर्त्ता, निठल्ला ; विचारि कहें - विचार कर कहें ; जन-लोकहिं - जन-लोक में ; मारक - त्रासद, कष्ट देने वाला ; दिखावन - दिखाने को ; विधावलियाँ - कार्य-विधियों की सूची ; सोझ - सीधा ]
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श्री रविकर फैजाबादी
प्रथम प्रस्तुति
श्री रविकर जी की इच्छानुसार प्रतियोगिता में मान्य प्रस्तुति
कुण्डलिया
झाड़ू देती बालिका, पुरुष देखते तीन ।
बक्से पर बालक दिखा, महिला चार प्रवीन ।
महिला चार प्रवीन, तीन खम्भे भी दीखे ।
इक पाइप इक गटर, गोद में बच्ची चीखे ।
सुटके चुटके ग्लास, पड़ी पन्नी कुछ फाड़ू ।
नेम प्लेट दो डोर, दंड में बाँधा झाड़ू ।।
श्री रविकर जी द्वारा वापस ली गयी प्रस्तुतियाँ
(नौ - कुण्डलियाँ)
(शक्ति)
पहचाने नौ कन्यका, करे समस्या-पूर्ति ।
दुर्गा चंडी रोहिणी, कल्याणी त्रिमूर्ति ।
कल्याणी त्रिमूर्ति, सुभद्रा सजग कुमारी ।
शाम्भवी संभाव्य, कालिका की अब बारी ।
लम्बी झाड़ू हाथ, लगाए अकल ठिकाने ।
असुर ससुर हत्यार, दुष्ट मानव घबराने ।।
(भैया)
ताकें आहत औरतें, होती व्यथित निराश ।
छुपा रहे मुंह मर्द सब, दर्द गर्द एहसास ।
दर्द गर्द एहसास, कुहांसे से घबराए ।
पिता पड़ा बीमार, खरहरा पूत थमाये ।
मातु-दुलारा पूत, भेज दी बिटिया नाके ।
बहन बहारे *बगर, बहारें भैया ताके ।।
*बड़े घर के सामने का स्थान
(इलाज)
मेंहदी वाले हाथ में, लम्बी झाड़ू थाम ।
हाथ बटा के बाप का, कन्या दे पैगाम ।
कन्या दे पैगाम, पड़े वे ज्वर में माँदे ।
करें सफाई कर्म, *मेट छुट्टियाँ कहाँ दे ।
वे दैनिक मजदूर, गृहस्थी सदा संभाले ।
हाथ डाक्टर-फीस, हाथ लें मेंहदी वाले ।
(दहेज़)
आठ वर्ष की बालिका, मने बालिका वर्ष ।
पैरों में चप्पल चपल, झाड़ू लगे सहर्ष ।
झाड़ू लगे सहर्ष, भ्रूण जिन्दा बच पाया ।
यही नारि उत्कर्ष, मरत बापू समझाया ।
कर ले जमा दहेज़, जमा कर गर्द फर्श की ।
तेज बदलता दौर, जिन्दगी आठ वर्ष की ।।
(छल)
भोली भाली भली भव, भाग्य भरोसा भूल ।
लम्बी झाड़ू हाथ में, बनता कर्म उसूल ।
बनता कर्म उसूल, तूल न देना भाई ।
ढूँढ समस्या मूल, जीतती क्यूँ अधमाई ।
खाना पीना मौज, मार दुनिया को गोली ।
मद में नर मशगूल, छले हर सूरत भोली ।।
( मजबूरी )
कैसा रेल पड़ाव है, कैसा कटु ठहराव ।
'कै' सा डकरे सामने, कूड़ा गर्द जमाव ।
कूड़ा गर्द जमाव, बिगड़ता स्वास्थ्य निरीक्षक ।
कल करवाऊं साफ़, बताया आय अधीक्षक ।
कालू धमकी पाय, जब्त हो जाए पैसा ।
बिटिया देता भेज, करे क्या रोगी ऐसा ??
(कानून)
इंस्पेक्टर-हलका कहाँ, हलका है हलकान ।
नहीं उतरता हलक से, संविधान अपमान ।
संविधान अपमान, तान कर लाओ बन्दा ।
है उल्लंघन घोर, डाल कानूनी फंदा ।
यह पढने की उम्र, बना ले भावी बेहतर ।
अपराधी पर केस, ठोंक देता इंस्पेक्टर ।।
(सम-सामायिक)
काटे पटके जला दे, कंस छले मातृत्व |
पटक सिलिंडर सातवाँ, सुनत गगन वक्तृत्व |
सुनत गगन वक्तृत्व, आठवाँ खुदरा आया |
जान बचाकर भाग, पाप का घड़ा भराया |
कन्या झाड़ू-मार, बोझ अपनों का बांटे |
कमा रुपैया चार, जिन्दगी अपनी काटे ||
(सम-सामायिक)
दाल हमारी न गली, सात सिलिंडर शेष ।
ख़तम कोयला की कथा, दे बिटिया सन्देश ।
दे बिटिया सन्देश, भगा हटिया वो भूखा ।
पर खुदरा पर मार, पड़ा था पूरा सूखा ।
वालमार्ट ना जाय, बड़ी विपदा लाचारी ।
कन्या रही बुहार, गले ना दाल हमारी ।।
________________________________________
(द्वितीय प्रस्तुति )
(आठ-दोहे )
सींक-सिलाई कन्यका, सींक सिलाई बाँध ।
गठबंधन हो दंड से, कूड़ा-करकट साँध ।|
जब पानी पोखर-हरा, कहाँ खरहरा शुद्ध ।
नलके से धो ले इसे, फिर होगा न रुद्ध |।
डेढ़ हाथ की तू सखी, छुई मुई सी बेल ।
पांच हाथ का दंड यह, कैसे लेती झेल ??
अब्बू-हार बिसार के, दब्बू-हार बुहार ।
वे तो पड़े बुखार में, खाए मैया खार ।।
कपड़ा कंघी झाड़ मत, पथ का कूड़ा झाड़ ।
टूटा तेरे जन्मते, कुल पर बड़ा पहाड़ ।।
झाड़ू थामे हाथ दो, करते दो दो हाथ ।
हाथ धो चुकी पाठ से, सफा करे कुल पाथ ।|
सड़ा गला सा गटर जग, कन्या रहे सचेत ।
खुल न जाए खलु हटकि, खलु डाले ना रेत ।|
करते मटियामेट शठ, नीति नियंता नोच ।
जांचे कन्या भ्रूण खलु, मारे नि:संकोच ।।
_______________________________________
(तृतीय-प्रस्तुति)
(दोहे / कुंडलियां)
दोहे
काँव काँव काकी करे, काकचेष्टा *काकु ।
करे कर्म कन्या कठिन, किस्मत कुंद कड़ाकु ।।
*दीनता का वाक्य
आठ आठ आंसू बहे, रोया बुक्का फाड़ ।
बोझिल बापू चल बसा, भूल पुरानी ताड़ ।।
हुई विमाता बाम तो, करती बिटिया काम ।
शुल्क नहीं शाला जमा, कट जाता है नाम ।।
रविकर बचिया फूल सी, खेली "झाड़ू-फूल" ।
झेले "झाड़ू-नारियल", झाड़े करकट धूल ।।
(फूल-झाड़ू -घर के अन्दर प्रयुक्त की जाती है । नारियल झाड़ू बाहर की सफाई के लिए।)
बढ़नी कूचा सोहनी, कहें खरहरा लोग ।
झाड़ू झटपट झाड़ दे, यत्र-तत्र उपयोग ।।
सोनी *सह न सोहती, बड़-सोहनी अजीब ।
**दंड *सहन करना पड़े, झाड़ू मार नसीब ।।
*यमक
**श्लेष
(कुंडलियां)
दीखे *झाड़ू गगन में, पुच्छल रहा कहाय ।
इक *झाड़ू सोनी लिए, उछल उछल छल जाय ।
उछल उछल छल जाय, भाग्य पर झाड़ू *फेरे ।
*फेरे का सब फेर, विमाता आँख तरेरे ।
सत्साहस सद्कर्म, पाठ जीवन के सीखे ।
पाए बिटिया लक्ष्य, अभी मुश्किल में दीखे ।।
* फेरना / शादी के फेरे
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श्री लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला
प्रथम रचना "दोहे"
अम्बर ने खीचा है चित्र, बच्ची सीधी सच्ची
कलम नहीं,झाड़ू हाथ,करे सफाई अच्छी |
बच्ची कर रही सफाई, सेहत सबकी अच्छी
मुसाफिर सब देख रहे, झाड़ू देती बच्ची |
देख रहे है कन्या को, झाड़ू उसके हाथ,
वह तो अभी अबोध है, भली करेगा नाथ |
कानून में अपराध है, किसे नहीं है भान,
सबको इसका भान है, बंद है इनके कान |
नहीं ध्यान है बच्चे का, जो भविष्य की शान
सहारा है माँ-बांप का, क्यों न उनपर ध्यान |
बाल अपराध कर रहें, ये समाज का दोष ,
लालच ये जो कर रहे, नहीं इन्हें कछु होश |
कलि खिलने से पूर्व ही, तोडना अभिशाप है,
पैसा ही माइ-बाप है ? जन्म देना पाप है //
झाड़ू नहीं, कलम पकड़, घर खुशिया लौटें
लौटें खुशिया घर पर, माँ शारदा वर दे //
पाल-पौष सिक्षा देना,सामाजिक दरकार है,
गलत राह छोड़े बच्चे, घोर नरक का द्वार है
_____________________________________
(दोहे)
घर की रौनक कहत है, लगती वही अनाथ ,
मेहंदी सजे हाथ में , झाड़ू उसके हाथ //
झाड़ू पकडे देखते, जनता में सब मौन,
कानूनी अपराध की, रपट कराये कौन |
कलम जिनके हाथ हो, झाड़ू उनके हाथ,
इन बच्चो की भीड़ है, दिख जायेंगे पाथ |
गरीबी एक संताप है, पढ़ने के ये पात्र,
सहयोगी दरकार है, पकड़ अंगुली मात्र |
देख घर की लक्ष्मी है, देवो इसको मान,
जिस घर में जायेंगी, बने वहां की शान |
झाड़ू की इज्जत करो, वर्ना कर दे खाक,
जरा डरो भगवान से, नहीं करेंगे माफ़ |
____________________________________
छन्न पकैया (ललित छंद )-
छन्न पकैया छन्न पकैया, ये तो निर्धन बाला
टेशन पर इसको सब देखे , लगती है सुर बाला
छन्न पकैया छन्न पकैया, झाड़ू इसके पाले
झाड़ू इसके कर में देदी, पढने के है लाले |
छन्न पकैया छन्न पकैया, जाना इसको शाला
शाळा जाने की वय इसकी,भीड़ देख रहे लाला
छन्न पकैया छन्न पकैया,उसका न कोई नाथ,
जिनके हाथ भविष्य देश का,क्या है उनके हाथ
छन्न पकैया छन्न पकैया,ओबीओ ने खोला राज
चित्र से काव्य में बतलाया, बन रहा कैसा आज |
छन्न पकैया छन्न पकैया, करते जिसपर सब नाज
झाड़ू नहीं कलम दो कर में,तब रहेगी घर की लाज
छन्न पकैया छन्न पकैया,सबको भावे भैया धन,
भरे शारदा के भंडारसे, न ख़तम होय धन सघन |
छन्न पकैया छन्न पकैया, तज अब पीना शराब,
नहीं पढ़ाया गर बालक को, अगली पीढ़ी ख़राब |
____________________________________________________
*********************************************
(प्रतियोगिता से अलग)
दोहे
(१) हाथों में झाड़ू लिए, बचपन का ये वेश |
मनवा कैसे मान ले, विकसित होता देश ||
(२) अपनी भागमभाग में, आदम है मशगूल |
बचपन के माथे धँसा, नहिं दिखता ये शूल ||
(३) सपने हैं दम तोड़ते, हाथ बुहारें धूल |
औ भिखमंगे वोट के, बैठे हैं सब भूल ||
(४) लाख गुना अच्छे-भले, बच्चे ये मजबूर |
इनको अपने बाप का, चढ़ता नहीं सुरूर ||
(५) तनया है ये देश की, इसका ऐसा हाल |
आकर के घुसपैठिये, होते मालामाल ||
(६) झाड़ू से दुख को घिसे, बच्ची ये अनजान |
इसमें भी तो प्राण हैं, ये भी है इंसान ||
(७) दुहिता करती चाकरी, हीरा जो नायाब |
घर में बैठे बाप की, बस इक तलब शराब ||
*********************************************
श्री अशोक कुमार रक्तले
मनहरण घनाक्षरी (प्रतियोगिता से बाहर)
लघुतर हुआ इंसा, और ये देश बड़ा रे,
चलती गाडी पातों पे, और देश खड़ा रे/
शिक्षित बूढ़े बच्चे हों,सब कि सोच रही रे,
कन्या फिर भी क्यों यह, दुःख भोग रही रे//
खेल कूद और शिक्षा,का यह वक्त हुआ रे,
बाली उम्र ढली नहीं,और बोझ बढ़ा रे/
बढ़ी विषमता ऐसे,मानो विद्वेष बढ़ा रे,
अमीर गरीबों में भी, देखो भेद बड़ा रे//
दो कुण्डलिया छंद.
जाते हैं घर देस को,मुसाफिर कई अनेक,
बेटी गर्द साफ़ करे, काम बहुत ही नेक/
काम बहुत ही नेक, उमर से पर गद्दारी,
झाड़ू फेरत लीन,काम करती अति भारी/
बेटी से माँ-बाप, मुफ्त बेगार कराते,
लज्जा आती तनिक,खुद ही काम पे जाते//
निश दिन सरकार करती,कितने है एलान,
कितने फिर लागु होते,कौन देता ध्यान/
कौन देता ध्यान,हो गये स्लोगन सारे,
बेटी को बचाओ, और वो झाड़ू मारे/
सरकारी संस्थान,साफ़ नहि होते तुम बिन,
आम हुए देश में,देखें द्रश्य हम निश दिन//
____________________________________
दोहे
खूंट्या बाँधी लाकडी,लडकी छुट्टा खोल/
झर झर झर आंसू बहे,जाने को नहि मोल//
अंधी वा सरकार है, या इंग्रजी गुलाम/
मैया के नागा न हो,मोडी देउत दाम//
मोतिया आंखियन परो,अंधा भओ समाज/
टुकुर टुकुर देखे सबै,आउत नाही लाज//
झाड़ू हाथन मा लई,छूटो इस्कुल आज/
जा हि चाहे समाज तो,का पढ़वे को काज//
नेता भाषण मा कहें,जाति का नहीं भेद/
जा फोटू दिखलाय दो, तुरत कहेंगे खेद//
चिंता करे असोक जा, सुधार कैसे होय/
कोनों रस्ता भी इहाँ, दिखात ना है मोय//
**********************************************
श्री नीरज
दोहा ...............
आवत-जावत सैकड़ों, कोऊ न देवे ध्यान.
एक नन्ही सी जान से लेते तगड़ा काम . [१]
उसके कद से दो गुना लम्बा झाडन हाथ.
साफ सफाई कर रही कोई नहीं है साथ..[२]
बाप नशे में धुत पड़ा, महतारी बीमार.
मेरा अनुभव कह रहा,तुम सब करो विचार.[३]
होटल क्रेशर खेत घर, स्टेशन बाजार.
शोषित बालक श्रम करें,मानवता धिक्कार.[४]
सारे दावे खोखले , शिक्षा का अभियान.
नियतखोर इंसान से हार रहा भगवान..[५]
(प्रतियोगिता से अलग)
राधेश्यामी छंद (मत्त सवैया)
नन्हे नन्हे दो हाथों में,एक बहुत बड़ा झाड़ू देखा .[१]
नन्ही अबोध बच्ची, द्वारा स्वछता का संचालन देखा.[२]
कापी पेंसिल गुड्डा गुडिया, इनके खातिर एक सपना है. [३]
निर्दयी लालची परिजन हैं, जिनको कहते यह अपना हैं.[४]
कानून बाल श्रम का होगा, इसका इनको कुछ ज्ञान नहीं.[५]
आते जाते सैकड़ो यहाँ,बच्ची पर देते ध्यान नहीं.[६]
संवेदन शील चित्र भेजा,तिन पर नीरज बलिहारी हैं. [७]
जय अम्बरीश जी की होवे,ओ बी ओ प्राण पियारी है.[८]
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श्रीमती राजेश कुमारी जी
रूप घनाक्षरी ३२ वर्ण १६ ,१६ पर यति /विश्राम
३१ वां वर्ण दीर्घ ३२ वां वर्ण लघु
झाड़ू से कर रही सफाई ये बाला नादान, पाँव में चप्पल पहने फ्रॉक है परिधान
रेलवे अवस्थान पर लोग रहे हैं ताक, बाल श्रम अपराध, क्या इन्हें नहीं है भान
लाचारी को देख लोग निर्धन से लेते काम, प्रशासनिक आदेश का हो रहा अपमान
भारत देश का अगर चाहते हो उत्थान, हर बालक को दीजिये विद्या का वरदान
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मेरी दूसरी प्रविष्टि
छंद कुकुभ १६,१४ मात्राएँ अंत में दो गुरु )
माँ सरस्वती की है लाडो ,ये भी इक निर्धन बाला
झाड़ू मत दो इसके कर में ,भेजो इसे पाठशाला
वर्ण ,वर्ग ,वसन को देखकर ,गुण में कमजोर न आँको
कर में पुस्तक चाहे ये भी ,मासूम ह्रदय में झाँको
बाल श्रम अपराध है भारी ,बाल मन का अँधियारा
दूर खड़े उपहास करो ना , बचपन किस्मत से हारा
यह सतरूपा, कुल कल्याणी ,जो विद्या से निखर जाए
इसकी खुशबू के सम्मुख तो , जूही , चन्दन शर्माए
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श्री अब्दुल लतीफ़ खान
दोहे
आज़ादी के सपनो की, यह कैसी तस्वीर !
भूखे बच्चे काम करें, नेता खाएं खीर !!
जिन हाथों को चाहिए, कापी क़लम किताब !
उन हाथों में झाड़ू है, देगा कौन जवाब !!
बाल श्रमिक क़ानून की, धज्जी उड़े अविराम !
नित स्टेशन होटलों में, बच्चे करते काम !!
साक्षरता की देत दुहाई, मेरा देश महान !
जिन हाथों में झाड़ू है, किस विध पावैं ज्ञान !!
मेरे भारत महान के, कितने सुंदर कृत्य !
स्टेशन पर झाड़ू लगाय, बिटिया बनकर भृत्य !!
_________________________________________
न्याय व्यवस्था पंगु हुई, गूंगा हुआ समाज !
वृद्ध पिता के कर्ज़ का, बिटिया भरती ब्याज !!
_________________________________________
दोहे
पत्नी बेटी बहन अरु, नारी माँ का रूप !
धूप में ठंडी छाँव है, सर्दी में है धूप !!
नारी शोषण देखकर, मन में उठता ज्वार !
कब खुलेंगें कर्णधारों, नारी मुक्ति के द्वार !!
फाँसी चड़ा किसान तो, बच्चे हुए अनाथ !
बिना दहेज बिटियन के, पीले हुए न हाथ !!
सरकारी संस्थान में, बिटिया रही बुहार !
जितना दोषी समाज है, उतनी ही सरकार !!
बेटियों की व्यथा कथा, कहता है यह दृश्य !
मेरे प्यारे देश का, क्या है यही भविष्य !!
भूखी प्यासी बालिका, परिसर करती साफ़ !
मौन खड़े दर्शक सभी, कौन करे इंसाफ़ !!
नारी मुक्ति के मार्ग में, कितने हैं अवरोध !
बाल श्रमिकों पर कब तक, और करोगे शोध !!
********************************************
श्री अविनाश बागडे
दोहे
जां नन्ही सी लगी हुई,प्रौढ़ देखते मौन
बाल-मजूरी को यहाँ,बंद करेगा कौन
--
बड़ी-बड़ी बातें यहाँ ,कर्म नहीं गंभीर.
मोड़-मोड़ पे जड़ी हुई बस!ये ही तस्वीर.
--
आज़ादी को हमें मिले हुये पचासों साल.
फिर भी अपने देश का ढुल-मुल सा है हाल.
--
बच्ची परिसर झाड़ती, मजबूरी के हाथ
पीछे हम सारे खड़े धरे हाथ पे हाथ!!
--
सामाजिक अपराध ये, कहती है सरकार
छद्म खोखले दावों का भरा हुआ भंडार.
___________________________________
कह मुकरियां...
(कह मुकरियां भारतीय छंद के अंतर्गत नहीं आतीं अतः प्रतियोगिता से बाहर)
रह-रह जिसकी याद सताए
तेरा- मेरा मन मुस्काए
महके जैसे बन के चन्दन
क्या सखी साजन ना सखी बचपन|
--
बचपन को ये सजा मिली है
देखो क्या मासूम कली है
जिसे देख होती है उलझन
क्या सखी साजन,ना सखी निर्धन|
--
निर्धनता ने बचपन लीला
आँख का कोना-कोना गीला
देता है जो कोरा भाषण
क्या सखी साजन ना सखी शासन.
--
शासन से करते है विनती
बच्चों को सिखलाये गिनती
खिले वहीँ ये जहां का फूल
क्या सखी साजन ना सखी स्कूल
--
स्कूल ना जाये छोटी बच्ची
उम्र है देखो कितनी कच्ची
होती है इसकी भी इच्छा
क्या सखी साजन ना सखी शिक्षा.
_______________________________
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प्रज्ञाचक्षु आदरणीय श्री आलोक सीतापुरी
छंद कुंडलिया : (दोहा +रोला )
झाड़ू लेकर झाड़ती, जन पग तल की धूल.
कली दलित परिवार की, बने किस तरह फूल.
बने किस तरह फूल. तरसता पढ़ने को मन.
खड़े देखते लोग, परिश्रम करता बचपन.
कहें सुकवि आलोक दशा कानून उखाडू.
है शिक्षा अधिकार, लग रहा उस पर झाड़ू..
********************************************
श्री पियुष द्विवेदी ‘भारत’
कुछ दोहे
उम्र है शिक्षा की उसकी, लेकिन झाड़ू हाथ!
इक गरीबी के उसके, कोई ना है साथ!
बालपन की चंचलता, दिखे नही उस आँख!
निर्धनता की आग में, बचपन होता राख!
फटा हुवा तनवस्त्र इक, जिसपे बीते पाख!
काया ऐसी कि जैसे, एक हुवे दो काँख!
भारत-भविष्य उक्त चित्र, तोड़ रहा है आस!
ये चित्र नही बदला तो, फिर क्या किए विकास!
_________________________________________
मेरी दूसरी रचना (दो कुण्डलिया)
बालश्रम को रोकन को, बस आवाज बुलंद !
क्रिया-रूप में ना दिखे, कोई खास प्रबंध !
कोई खास प्रबंध, मिटे कि जिससे ये करम !
देख भारत चित्र ये, हमें न आए क्यों शरम !
ध्यान इधर डालिए, आवश्यकता है परम !
बदल जाए चित्र ये, औ’ मिट जाए बालश्रम !
जिसको कि कहते भविष्य, ऐसा उसका आज !
क्या तरक्की की हमने, खोल रहा सब राज !
खोल रहा सब राज, कि मिली तरक्की किसको !
कलम-कर में झाड़ू, कि कहूँ तरक्की इसको !
सच ये जो संपन्न, तरक्की भी तिस-तिसको !
बस उसको ही नही, मिलनी चहिए थी जिसको !
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श्री विशाल चर्चित
दुर्मिल सवैया......
सब शासन के रखवार सुनो, तुम कौन सी धार बहाय रहे
इन कोमल बाल गोपालन से, खटनी मजदूरी कराय रहे
जिन हाथन को लिखना पढना, उनमें तुम झाडू थमाय रहे
कुछ सोच विचार के काम करो, क्यों देश का नाश कराय रहे
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एक कुंडलिया..........
बच्ची एक झाडू लिए, करती कचरा साफ़ |
देख शरम नहिं कर रहे, सारे बाबू साब ||
सारे बाबू साब, झाड़ते भाषण अच्छा |
मुंह फेर लें देखैं, आन कै नौकर बच्चा ||
कह "चर्चित" कविराय, होश में आओ बाबू |
देश जा रहा गर्त, तरस कुछ खाओ बाबू ||
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इं० अम्बरीष श्रीवास्तव
(प्रतियोगिता से अलग)
पाँच छंद
कुंडलिया (दोहा+रोला)
१ (बालिका की नज़र से)
फोटो खींचा खींच लो, जानूं नहिं क़ानून.
मैं तो फ़र्ज़ निभा रही, मेरा देख ज़ुनून.
मेरा देख ज़ुनून, घूरते लोग अचम्भा.
साफ़ करूं वह छोर, दूर जहँ अंतिम खम्भा.
बीस मिनट का काम, काम नहिं कोई खोटो.
लूं फिर बस्ता पीठ, खींचते रहना फोटो..
३ (विवशता)
बापू खटिया पर पड़े, भैया जाते झेल.
मैया को भी वायरल, साहब कसे नकेल.
साहब कसे नकेल, उठा ली हमने झाड़ू.
होगा कचरा साफ़, भले हो आँख लताड़ू.
कर लो चाहे फोन, बजा लो चाहे भोंपू.
हम भी हैं मजबूर, पड़े खटिया जो बापू..
२ (पड़ोसी)
मैया किये दुकान है, बापू पिए शराब.
भाई तक खेले जुआँ, है माहौल खराब.
है माहौल खराब, बहन घर चूल्हा फूँके.
करो शिकायत साब, कुड़ी नाबालिग़ है के.
झाडू मारे रोज, निकम्मा इसका भैया.
कर्जे में परिवार, चलाती घर है मैया..
४ (क़ानून)
पट्टी आँखों पर बँधी, हम तो हैं कानून.
बिना गवाही मौज हो, भले खून दर खून.
भले खून दर खून. लोग क़ानून उखाडू.
धाराएँ बहु एक, लगाते सब पर झाड़ू.
मजबूरी जो आज, जानते यद्यपि बेट्टी
फिर भी हम मजबूर, उतारें कैसे पट्टी..
५ (फोटोग्राफर)
फोटो हमने खींच ली, यहाँ व्यवस्था देख.
झाड़ू मारे बालिका, लिखना इस पर लेख.
लिखना इस पर लेख, बोलती जो लाचारी.
धुँआ-धुँआ क़ानून, पढ़े कैसे बेचारी.
'अम्बरीष' का चित्र, शिकायत करता छोटो.
कुछ तो सुधरें लोग, देखकर ऐसी फोटो..
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श्री सुशील जोशी
मुक्तक ......(नियमानुसार प्रतियोगिता से बाहर)
करें क्या हम, हमारे देश की हालत निराली है,
वो पौधे काटता हैं जो स्वयं फूलों का माली है,
इन्हीं राहों में चल सौंपा उसे है भार कंधों का,
उसे झाड़ू है पकड़ाया औ पुस्तक फाड़ डाली है।
2)
अजब ये आसमाँ होगा, गज़ब अपनी ज़मीं होगी,
अधर ये मुस्कुराएँगे, इन आँखों में नमीं होगी,
नज़र आएगा हमको तब हमारे देश का बचपन,
जब उनके हाथ में झाड़ू नहीं पुस्तक थमीं होगी।
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सुश्री शालिनी कौशिक
चौपाई छंद
कन्या करों में कलम सुहाती * बात समझ ये क्यूँ ना आती !
मन में अज्ञान मैल समाया * ज्ञान झाड़ू से हो सफाया !!
शिक्षित कन्या कुल मान बढाती * नई पीढ़ी शिक्षित हो जाती !
इससे झाड़ू मत लगवाओ * कागज कलम इसे पकडाओ !!
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दोहें
इन नन्हे कर कमलों में ,झाड़ू क्या सुहाए ?
निर्धन इसके मात-पिता ,क्या समझ ये पायें ?
पूजते नवरात्र कन्या ,सभी देवी रूप में ,
थमाओगे झाड़ू क्या ,बन्दी बना धूप में .
हाथ में झाड़ू इनके ,देश पर है धिक्कार ,
लाभ क्या विधि का इनको ,कानून गया हार.
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(नियमानुसार प्रतियोगिता से बाहर)
शिक्षित कन्या कुल मान बढाती * नई पीढ़ी शिक्षित हो जाती !
इससे झाड़ू मत लगवाओ * कागज कलम इसे पकडाओ !!"
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श्री धीरेन्द्र सिंह भदौरिया
मेरी पहली प्रविष्टि
(नियमानुसार प्रतियोगिता से बाहर)
सरकार क़ानून बना,कि बच्चे करे न काम
मजबूरी है पेट की ,मिले नही आराम
मिले नही आराम,देश का बचपन भूखा
जवानी क्या होगी,जब लडकपन हो रूखा
झाडू की जगह दो, हाथ में कलम संस्कार
मिले आगे आयें, अंधी दिखती सरकार,,,,,,,,
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डॉ० प्राची सिंह
छंद कुंडलिया
नन्ही कलिका कर रही, परिसर कूड़ा साफ,
मूक खड़े सब देखते, अवनति का यह ग्राफ,
अवनति का यह ग्राफ, दिशा दी किसने इसको ?
जनसंख्या वृद्धि या, दोष दें नीति विफल को ?
तंगी, कुरीति, लोभ, रक्त चूसें बचपन का,
खोलें उलझे जाल, खिले फिर नन्ही कलिका l
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श्री संदीप पटेल"दीप"
दुर्मिल सवैया
खुद दीन मलीन भले फिरती पर झाड रही गुडिया अँगना
कब काजल धार सजे अँखिया कब वो पहने चुडिया कँगना
वह खोकर बालपना अपना हक़ मांग रही दुखिया खँगना .....................(खँगना- कम हो जाना, घट जाना)
सरकार मजाक बना कहती इनका रहना बढ़िया चँगना.......................(चँगना-परेशां होना )
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श्री आशीष श्रीवास्तव
छंद : दोहा
विधि भी अब सुनता नहीं , सुनइ न नेता कोय |
लाचारी इस देश की , देख सकूँ न तोय ||
बिटिया प्यारी सी यहाँ , झाड़ू रही लगाय |
दुनिया भर का मैल अब , साफ करत भी जाय ||
मात पिता लाचार हो ,जन दी काहे जोत |
बाल श्रम कैसे हटे , खुले आम अब होत ||
होते नेता देश के , जागरूक शुचि मान |
ऐसा फिर जो होत तो , बन जाती , वरदान ||
सरल सहज सुन्दर सुघड़ ,पढ़ लिख कर के होय |
कस्तूरी की गंध को , चीन्ह सका नहि कोय ||
अब भी बाकी समय है , दो सुन्दर परिवेश |
कस्तूरी प्रस्फुर यहाँ , सुन्दर होवे देश ||
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श्री उमाशंकर मिश्र
कुण्डलिया
लेकर झाड़ू हाथ में ,सड़क सड़क बुहराय|
नाबालिक से काम को ,समझो है अन्याय||
समझो है अन्याय, बाल मजदूरी छल है|
भेजो पढने सुता, आ रहा इनका कल है||
भेद भाव को त्याग , प्रेम इनको भी देकर|
बेटों सा दो प्यार, गोद में इनको लेकर||
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स्वागत है प्रिय अनुज संदीप जी ! शुभकामनाओं के लिये हार्दिक आभार !
आदरणीय अनुज अम्बरीश जी सारी रचनाओं को एक जगह देख
बड़ी प्रसन्नता हुई यहाँ आसानी से आराम से अध्यन किया जा सकता है
सादर आभार
परन्तु मुझे यह ..कहना है ...मेरी रचना गायब है
आदरणीय उमाशंकर जी. ध्यान दिलाने के लिए आभार, आपकी रचना संकलित कर ली गई है ।
धन्यवाद आदरणीय उमाशंकर जी ! रचना के बारे में ध्यान दिलाने के लिए आभार ! सादर !
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