पुस्तक-समीक्षा.
(पुस्तक -कहता है अविनाश.)........................सितम्बर 2012 के "सद्भावना दर्पण "..संपादक-श्री गिरीश पंकज ..में प्रकाशित।
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" छंद बद्ध कविता के हक में एक बयान "...........इंदिरा किसलय ,नागपुर.
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कविता में कवि का वजूद, बाहरी और अंतर्मन की हजार परतों को चीर कर बाहर आता है. कविता उसके मौन को शब्दमाला से समर्थन देती , उसकी निजता का अभिनन्दन करती है.
" कहता है अविनाश " में संगृहीत ८२ कुंडलियों में कवि के सृजन सीमान्त का पारंपरिक रंग बिखरा है.विषयों के लिये उन्हें मशक्कत नहीं करनी पड़ती.वे स्मृतियों की कन्दरा से निकल कर अपने पांव चलकर आते हैं.समाज की सारी विद्रूपताएं उनकी नज़र की जद में हैं.वे कोई घिसा-पिटा बासी मुहावरा ओढ़कर लीक -लीक चलने की मानसिकता से मुक्त हैं. उनकी उड़ान हो या परिक्रमा , हमेशा ताजगी से भरी रहती है.
कृति में समसामयिक और शिलालेखीय तेवरों का द्वंद्व कहीं दिखाई नहीं पड़ता. वे सन्दर्भ न मिलने पर ' नदी' को 'स्त्रोतस्विनी' कहने का मोह नहीं पालते . किसी पूर्वाग्रह की जकडन से मुक्त हैं कुण्डलियाँ.
छंद बद्ध कविता के हक में यह कृति एक मुकम्मल बयान है. बेशक अनुभूति टकसाली नहीं होती जो निश्चित परिभाषाओं के खांचे में फिट बैठ जाये. दूसरा सच ये भी है कि छंदमुक्त चौंका सकती है, सारे वजूद को हिला सकती है पर लोकमानस में उसके संरक्षित रह पाने में संदेह है. गिरिधर कविराय और काका हाथरसी की कुण्डलियाँ आज भी यादों में हैं.
भाषा शिल्प की सहज भंगिमा , कुंडलियों की लय को सधे हुये है. कवि ने दुरुहता से सुरक्षित अंतर बनाये रखा पर जब कभी वो नजदीक हुई सरल लगने लगी! भाषा , यदा कदा सपाटबयानी के निकट पहुंची है. ज्वलंत सच्चाई यह है कि सौ सौ द्वंद्वों से घिरे हुये मनुष्य को सब कुछ इंस्टैंट चाहिए . अधिक माथापच्ची न हो.
अविनाश ने अपने गुरु डॉ. खादीवाला को ,कृति समर्पित कर , कृतज्ञता ज्ञापन का एक वरणीय पक्ष सामने रखा है. डॉ. खादीवाला ने अविनाश के सृजन को कुंडलीनुमा कहा है. शास्त्रीयता की उंगली पकडकर बखेड़ा खड़ा करनेवालों को यह एक सौम्य उत्तर है.
कहने की जरुरत नहीं कि सार्थक प्रतीकों और प्रयोगों ने कुंडलियों कि सम्प्रेश्नियता बढ़ा दी है.कुछ मराठी और अन्य भाषा प्रयोग जैसे 'ताबा', 'हाराकीरी ' आदि आकर्षक है. जल-समस्या , गांधीगीरी , क़साब , भ्रष्टाचार ,राष्ट्र मंडल खेल , हिंदी ,सर्व धर्म सम भाव , धर्म ,अमन , आक्टोपस बाबा , अन्ना , मौसम आदि सरोकारों के अनुरूप ' भाषा ' विन्यास , कुंडलियों की ताकत हैं.
दो उदाहरण द्रष्टव्य है-
" सत्य अहिंसा की बातें , करता था वो दूत
चरखे पर काटा करता , जीवन का वो सूत.
जीवन का वो सूत , उसे हम भूला रहें हैं
अपने मन का ख़ाली, झूला झुला रहें है.
कहता है अविनाश कर रहें हाराकीरी
कहाँ वो गांधीवाद , कहाँ ये गांधीगीरी. "
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एक ललित कुंडली का सौन्दर्य मन मोह लेता है -
" पीली-पीली सरसों फूली, हवा हुई मदहोश.
मौसम के राही ने खोया, जैसे अपना होश.
जैसे अपना होश , झरे पत्ते बेचारे.
नए वसन पाने को , आतुर तरुवर सारे.
कहता है अविनाश , आ गई ऋत रंगीली.
मौसम ने महुए की ज्यों ,दो घूँट है पीली."
किताब में कुंडलियों के नीचे कोष्ठक में सम्बंधित सन्दर्भ देकर कवि ने पाठकों के लिये तत्काल सम्प्रेषण की व्यवस्था की है.प्रक्षेप प्रकाशन की यह कृति कलेवर,कीमत और कुंडली संख्या हर दृष्टि से संक्षेप को प्रोत्साहन देती है.यही वक़्त की सही पहचान है.अपनी समाप्ति पर सूक्त की तरह आचरित होती कुण्डलियाँ लोकमानस में चिरकाल तक अपनी गूँज बनाये रखेंगी.
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.... इंदिरा किसलय ,नागपुर.
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आदरणीय अविनाश जी, समीक्षा बहुत ही सबल और सशक्त है....समीक्षक को भी बधाई प्रेषित कीजिये हमारी और से ...ये कुंडलिया तो जानलेवा है...बहुत पसंद आया
//सत्य अहिंसा की बातें , करता था वो दूत
चरखे पर काटा करता , जीवन का वो सूत.
जीवन का वो सूत , उसे हम भूला रहें हैं
अपने मन का ख़ाली, झूला झुला रहें है.
कहता है अविनाश कर रहें हाराकीरी
कहाँ वो गांधीवाद , कहाँ ये गांधीगीरी.//
पुस्तक के लिए ढेरों शुभकामनाएं....