श्री अलबेला खत्री
छंद घनाक्षरी
फांसी वाले फंदे सिर्फ़ मानवों को शोभते हैं, दानवों को देकर हराम मत कीजिये
रो पड़ेंगी रूहें राजगुरू संग भगत की, सुखदेव सिसके वो काम मत कीजिये
दामिनी के हत्यारों को मारो जूतियों से आप, जब तक न मरें आराम मत कीजिये
जूतियों से न मरे तो मारो पत्थरों से किन्तु फांसी वाला फंदा बदनाम मत कीजिये
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छंद त्रिभंगी
दृग लाल किए, उर ज्वाल लिए, कर काल लिए आई नारी
किस बात की है, अब देर कहो, ये सवाल लिए आई नारी
दामिनी के घाव ये, पूछ रहे अब तक, दानव क्यों ज़िन्दा हैं
जिनकी करतूतों के कारण जग के मानव शर्मिन्दा हैं
वह तड़प तड़प कर कहती है इन्साफ़ करो इन्साफ़ करो
जड़ मूल से नष्ट करो पापी, इस देश का कचरा साफ़ करो
सिर काट के क़त्ल करो उनको अब चोट करो अच्छी खासी
वरना हम फंदे लाये हैं तुम इनसे दे दो हमें फांसी
इस जीने से मरना अच्छा, यदि न्याय नहीं, सम्मान नहीं
लगता है कोई और जगह है, अपना हिन्दुस्तान नहीं
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प्रज्ञाचक्षु श्री आलोक सीतापुरी
छंद 'कुंडलिया'
फाँसी का फंदा लगे, महिलाओं की मांग.
करे यौन दुष्कर्म जो, दें सूली पर टांग..
दें सूली पर टांग, अंग ही भंग करा दें
दुनिया सीखे सीख , इस तरह सख्त सजा दें.
क्या मानव अधिकार, नहीं हो कहीं उदासी.
सिद्ध हुआ अपराध, चढ़ा दें फ़ौरन फाँसी..
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कामरूप छंद
(चार चरण, प्रत्येक में ९,७,१० मात्राओं पर यति, चरणान्त गुरु-लघु से )
मांगें युवतियाँ, ठोंक छतियाँ, न्याय दे सरकार.
जो पुरुष कामी, नारि गामी, बदचलन बदकार,
ये लाज लूटे, भाग फूटे, देव इसको मार.
फाँसी चढ़ा दो, सर उड़ा दो, हो तभी प्रतिकार..
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छंद हरिगीतिका
आदर्श सीता और मरियम, को बताती नारियाँ.
फिर रूप यौवन का प्रदर्शन, क्यों करें सुकुमारियाँ.
माना कि गलती है पुरुष की, जो करे बदकारियां.
फाँसी चढ़ा दो सिर कटा दो, पर मिटें दुश्वारियां..
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श्री धीरेन्द्र सिंह भदौरिया
कुण्डलिया
फाँसी होनी चाहिये, मत करना तुम माफ़
जाते-जाते दामिनी , मांग रही इन्साफ
मांग रही इन्साफ , न होये मेरे जैसा
घुमे यदि अपराधी ,फिर इन्साफ ये कैसा
सख्त बने क़ानून ,सजा हो अच्छी खासी
मुक्ति तभी मिल पाय ,उसे हो जाये फाँसी...
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श्री सौरभ पाण्डेय
त्रिभंगी छंद :
नर-गिद्ध बड़े हैं, बाज़ अड़े हैं, अब तुम सुगतागत सोचो
मन घोर पिशाची, दुर्गुणवाची, पौरुष क्यों आफ़त सोचो
माँ बहन व पत्नी, सुख की घरिणी, लेकिन ये हालत सोचो
यह प्रश्न सहज है, देह महज़ है ? नर-नारी का मत सोचो
हम बोल भुलाकर, सहतीं हँस कर, पीड़ा-व्याधि सनी रहतीं
नत भाग्य रहा है, खूब सहा है, भेद करो न ठनी कहतीं
भारत की नारी, क्यों बेचारी, कबतक दीन बनी सहतीं
दो फाँसी फन्दा, सोचे गन्दा, कहके नागफनी दहतीं
नज़रों से गन्दा, पुरुष दरिन्दा, है आफ़त का परकाला
खुद लाज लजाती, काम कुजाती, करता फिरता सब काला
दिखता सहयोगी, पर मन-रोगी, कामी का रंग निराला
? पशु यदि हिंसक, नर विध्वंसक, कर दें हम मृत्यु हवाला
[सुगतागत - सु+गत+आगत, विशद भूत-भविष्य ; मत - विचार ; ठनी - हठ पूर्वक ;
परकाला - अति कुटिल, महाधूर्त
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श्री नीरज
राधेश्यामी छंद
अब त्यागदामिनी देह गयी,दुर्दान्त दरिंदे जिंदा है,
असफल-सत्ता क़ानून-लचर जिससे हम सब शर्मिन्दा है
जनआक्रोशित,जन आंदोलित,सरकार मौन कब तोड़ेगी.
अबला निर्भय होकर भारत की राहों में कब दौड़ेगी..
'' नीरज''
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अम्बरीष श्रीवास्तव
छंद कुंडलिया
(1)
फंदा फाँसी का लिए, बहनें हैं तैयार.
सूली के हकदार को, सूली दे सरकार.
सूली दे सरकार, दुष्ट पायें तब शिक्षा.
रुके यौन दुष्कर्म, मिले हर जगह सुरक्षा.
अंग भंग कर धरें, कुकर्मी पर यूं रंदा.
उनकी गर्दन नाप, कसें फाँसी का फंदा..
(२)
भगिनी-मातु समान है, नारी है अनमोल.
फिर भी दुनिया मापती, नारी का भूगोल.
नारी का भूगोल, मापती आँखें फोड़ें.
जो भी करे कुकर्म, सभी की गर्दन तोड़ें.
ढीला है कानून, तभी तो दुनिया ठगिनी.
फाँसी ही दरकार, कहे आक्रोशित भगिनी..
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छंद 'कामरूप'
(चार चरण, प्रत्येक में ९,७,१० मात्राओं पर यति, चरणान्त गुरु-लघु से )
दे दन दना दन, मार चाबुक, लाल मिर्ची डारि.
ली लूट इज्जत, अब मरेगा, मातु-मातु पुकारि.
जा मार दीजै, उर अधम वह, कह रही है नारि.
ले हाथ फंदा, दंड फाँसी, माँगती सुकुमारि..
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'दोहा'
तुरत-फुरत ही न्याय हो, फंदे में हो धार.
दोषी को फाँसी मिले, जागे अब सरकार..
छंदों का उत्सव हुआ, मिला सभी का प्यार.
अंतिम बेला आ गयी, धन्यवाद, आभार..
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संजय मिश्रा 'हबीब'
कुंडलिया छंद
(1)
बीता जो बेहद बुरा, उससे बुरे बयान।
जिसका भी मुह खुल रहा, काली धरी जुबान॥
काली धरी जुबान, सभ्यता को खा जाती।
निकले सावन जान, कुकुरमुत्ते बरसाती॥
जब तब जलती आग, परीक्षा देती सीता।
युग बीते, पर हाय!, यहाँ कुछ भी नहिं बीता॥
(2)
संस्कार को नोचते, तार तार सम्मान।
कैसे बोलें अब कहो, हम खुद को इंसान॥
हम खुद को इंसान, करें पगपग शर्मिंदा।
सृष्टि होकर खिन्न, हमारी करती निंदा॥
सुने खोल कर कान, प्रलयंकर टंकार को।
धरती का सम्मान, बचा लें संस्कार को।
(3)
फंदा हाथों में लिए, रणचंडी का रूप।
दहक उठी हैं बेटियाँ, बनी जेठ की धूप॥
बनी जेठ की धूप, सोखना है सागर को।
छलकाए जो पाप, फोड़ना उस गागर को॥
फंदे में हो दुष्ट, करें जो जग को गंदा।
उनकी गर्दन नाप, बनाएँ तगड़ा फंदा॥
(4)
राहों में हैं बेटियाँ, मांग रही, धिक्कार!
फांसी दे दो या हमें, जीने का अधिकार॥
जीने का अधिकार, मान सम्मान हमारा।
भूल गए हो शर्म, धर्म से किया किनारा॥
हृदय हुआ था धन्य, जिसे कल ले बाहों में।
खड़ी सुलगते प्रश्न, लिए बेटी राहों में॥
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रूपमाला छंद
भावनाएं हैं मचलती, खूब करतीं रास।
क्रोध का पर्वत तना है, छू रहा आकाश।
भारती के भाल पर क्यों वार ऐसा क्रूर?
हाथ फंदा ले तनूजा, क्यों खड़ी मजबूर?
आप बन कर साँप खुद को, मारता है दंश!
किस दिशा में जा रहा है, आज मनु का वंश?
देव के समकक्ष जिनका था जहां सम्मान।
पुण्य महि में क्यूँ कलंकित, नारियों का मान?
नोचते हैं मनुजता को, दैत्य होकर बण्ड।
क्यूँ नहीं मिल पा रहा है, रावणों को दण्ड?
शर्म से हो श्याम गंगा, प्रश्न करती हाय!
हे भगीरथ कर तपस्या, क्यों धरा में लाय?
देख दुनिया में घटे जो, बेहया दुष्कर्म।
मूढ़ बहती भूल अपना, पापनाशी धर्म।
है हृदय में क्या बताऊँ, आ रही जो बात!
कर निवेदन खुद समाऊँ, विष्णु पद में तात!
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श्री अशोक कुमार रक्ताले
मदन/रूपमाला छंद
भूख ऐसी दानवी भरती दिलों में पीर,
नार चाहे न्याय अब आये न उसको धीर/
दुष्ट तो बेखौफ फिरता,खौफ में है नार,
जन यहाँ आक्रोश में है सुप्त पर सरकार/
दामिनी तडपी मरी हाँ, साथ तडपा देश,
हो गयी खामोश तब भी,है न बदला भेष/
चाहता हर आदमी है, हो नही अब देर,
बाँध दो फंदा गले में,दुष्ट हों सब ढेर/
पाय जो संस्कार नर तब, नार हो निर्भीक,
ऐ खुदा इंसान को सिखला यही अब सीख/
नाम हरगिज देश का अब,हो नहीं बदनाम,
माँगता हूँ हाथ जोड़े, दे यही अब भीख/
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मनहरण घनाक्षरी,
चिंतित है नार आज देश और समाज भी,दामिनी कि मौत हुई देश को जगाया है,
मानवों में नर कई दानव पिशाच बने,समग्र ही मानवों पे कलंक लगाया है,
सरकारी वादे झूठे कानूनी ढीलढाल ने, फैलाया आक्रोश जन जन उपजाया है,
होवे ना रहम मिले फांसी अब तो दुष्टों को,मरे नहीं फांसी बिन मन ये बनाया है/
हो गये जो यहाँ सभी नर ही पिशाच तब,नार दामिनी कि लाज इश्वर बचायेगा/
नार जो उठाये दृग शस्त्र भी उठाये यदि,बन के पिशाच तब नर पछतायेगा/
भूल से न लाना कभी मन में विचार यह,बन के पिशाच नर नार को सताएगा/
हो गयी जो भूल उसे आज ही सुधार लेना, हश्र वरना नर का वक्त ही बताएगा/
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दुर्मिल सवैया.
बहती पछुआ जब तेज हवा तब वेग व देश क भान रहे,
शिशुकाल पढ़े कुछ पाठ सखे उस नैतिकता पर ध्यान रहे,
पुरवा हि सुहावन लाग हमें जहँ वृद्ध व नार क मान रहे,
अब भूल न हो गत साल हुई, हर को नरको यह ज्ञान रहे/
हर ओर गली हर राह हुई इक माह चली जब बात हुई,
सब लोग चिराग जलाय लिए,तब रात गई परभात हुई,
अब लोग कहें गल फांस मिले जिन दुष्टन से यह घात हुई,
अब मौत नसीब बने उनका जिनसे बिटिया घर रात हुई/
(पुनः संशोधित पंक्तियाँ)
प्रथम छंद
पुरवा हि सुहावन लाग हमें जहँ वृद्ध व नार क मान रहे,
अपराध न हो गत साल हुआ, हर को नर को यह ज्ञान रहे.
द्वितीय छंद
हर ओर गली हर राह हुई इक माह चली जब बात हुई,
तब लोग चिराग जलाय सभी,जब फ़ैल गया तम रात हुई,
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श्री गणेश जी बागी
दो कुण्डलियाँ छंद
(1)
भारतवासी माँगते, जीने का अधिकार,
मौन धार कर सो रही, मनमौजी सरकार,
मनमौजी सरकार, लाज अब इसे न आती,
जनता को बुझ भेड़, लाठियाँ है चटकाती,
त्वरित मिले अब न्याय, कुकर्मी को हो फाँसी,
निडर रहें सब लोग, चाहते भारतवासी ।।
(2)
नारी चिंतित आज है, किस विध मान बचाय,
छुट्टे कुत्ते मार्ग पर, डर इनमे नहि आय,
डर इनमे नहि आय, बूझ कानूनहिं अन्धा,
नोच, बकोटे काट, दूर देखे जो फन्दा,
यह दुर्गा का देश, बने कैसे व्यभिचारी,
भारत हुआ स्वतंत्र, नहीं आजादिहि नारी ।।
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श्री अरुण कुमार निगम
प्रथम प्रस्तुति-चौपाई (16 मात्राएँ)
बिटिया हाथ लिये है फाँसी
याद आ गई हमको झाँसी |
आँखों में है भड़की ज्वाला
कौन यहाँ पर है रखवाला |
घूम रहे सैय्याद दरिन्दे
विचरण कैसे करें परिन्दे |
कोई कन्या भ्रूण सँहारे
कोई बिछा रहा अंगारे |
कहीं नव-वधू गई जलाई
जाने कब से गई सताई |
नैतिक पतन हुआ है भारी
अपमानित होती है नारी |
नैतिक शिक्षा बहुत जरूरी
बिन इसके ज़िंदगी अधूरी |
धीरज मन का टूट न जाये
जल्दी कोई न्याय दिलाये |
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श्री लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला
रपट लिखाये कौन (पुनः संशोधित दोहे)
देख अहिल्या भी हुई, इन्दर से लाचार,
अबला नारी सह रही, घर घर अत्याचार ।--- -- 1
दुष्कर्मों से इंद्र के, हो बुत सी निष्प्राण,
कुछ नहि बिगड़ा इंद्र का, अहिल बनी पाषाण।--- 2
अस्मत यू लुटती रहे, नहीं रहे संस्कार,
दुर्योधन चहुँ और है, करते जहँ तहँ वार ।------ -3
ध्रतराष्ट्र शासन करे, करत मन्त्रणा गुप्त,
मौनविदुरजी जब रहे, संस्कार हो लुप्त । --------4
सभी कहे दुष्कर्म को, यह नैतिक अपराध,
भीष्म पितामह चुप रहे, लिए वचन को साध।----5
नियम बने भरमार है, न्याय करेगा कौन,
जब रक्षक भक्षक बने, रपट लिखाये कौन।-------6
मांगे जनता न्याय है, सुप्त हुई सरकार,
बिन मारे चौराह पर, रुके नहीं व्यभिचार। -------7
पैशाचिक दुष्कर्म है, घटित हुआ है आज,
न्याय तुला पर फैसला, होगा मुद्दत बाद । ------- 8
जहाँ दानवी भूख से, जनता हो लाचार,
वहाँ न्याय हो शीघ्र ही, अमल करो सरकार। ---- 9
सहन सीमा ख़त्म हुई, जन जन की ललकार,
दुष्कर्मी हैवान को, चौराहे पर मार । - - -- - -10
नैतिक सीख मिले नहीं, रुके नहीं व्यभिचार,
नैतिक शिक्षा हो शुरू, संस्कार आधार । --------11
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दूसरी रचना कुण्डलिया छंद (पुनः संशोधित)
(१)
स्नेह भाव रख माँ ही, रखे कोख नौ माह,
पालन पोषण भी करे, दे जीने की राह ।
दे जीने की राह, प्रथम गुरु माँ ही बनती,
बुरे साथ की राह, दुखी माँ को कर देती ।
दुष्कर्मी यदि पूत,माँ के ही बरसे नेह, ???
(२)
दुष्कर्मी अब नहि बचे , कड़ी सजा मिल जाय,
माँ को इसका गम नहीं,भले पूत मर जाय ।
भले पूत मर जाय, सबक दे फ़ौरन खल को,
रुक जाये दुष्कर्म , सीख अब मिले विश्व को,
निभा जाय गुरुधर्मं, मुस्कावे सब सहधर्मी,
न्याय प्रक्रिया सख्त, बचे न एक दुष्कर्मी | ------- 2
(३)
रक्षक रक्षक ही रहे, झिझक नहीं रह पाय,
न्याय व्यवस्था ठीक हो, न्याय सुलभ हो जाय |
न्याय सुलभ हो जाय, मिले पीड़ित को राहत,
न्याय व्यवस्था लाय, दुष्ट सब होवे आहात ।
शासन दे सौगात, कड़ी सजा दुष्कर्म की,
लक्ष्मण यह भी मान, बेसिर पैर है रक्षक । --------- 3
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कुण्डलिया छंद
उदास व्याकुल दामिनी, आखिर पडी निढाल,
क्यों कर मेरे देश में, सत्ता है बेहाल ।
सत्ता है बेहाल, शासक ही जब मौन,
उनके दामन दाग, इंसाफ करे फिर कौन ।
टूट गया विश्वास, नहि रही फाँसी की आस,
कह लक्ष्मण कविराय, सबके मन हुए उदास।
(2)
बेशर्मी को ओढ़कर, कायर हुआ समाज,
चीर हरण होता रहे, कौन बचाए लाज ।
कौन बचाए लाज, बंद रक्षक के द्वारे,
जाए जिसके पास, उगले वही अंगारे ।
पहले थे इंसान, है वेही अब अधर्मी,
कह लक्ष्मण कविराय, हद से बढ़ी बेशर्मी।
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श्री रविकर जी
पहली प्रस्तुति कुण्डलिया
उदर फाड़ता नक्सली, दामोदर के तीर ।
दाम-उदर हैं फाड़ते, जनगण की तकदीर ।
जनगण की तकदीर, दाह दे दिल्ली दामिनि ।
असहनीय हो पीर, जान दे जाय अभागिनि ।
सैनिक के सिर कटे, दाँव सरदार ताड़ता ।
क्या फाँसी कानून, दाम से उदर फाड़ता ।।
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श्री संदीप पटेल "दीप"
मत्तगयन्द सवैया
दंड मिले सब दोषिन को अब बात करे सरकार न बासी
नार फिरें भय मुक्त सभी अब होय नहीं उसकी उपहासी
दीन मलीन फिरें अस लोग सुहाय नहीं मन हीन उदासी
"दीप" लगाय गुहार अदालत दे सब दोषिन को अब फांसी
मोहन रास रचाय नहीं अरु मौन खड़ी भय में अब वृंदा
काम पिपासु हुए अज लोग करें सब काम भयानक गंदा
शब्द नहीं मिल पाय रहे अब कौन बखान करे यह निंदा
"दीप" विचार करे अब शोभित हो इन दोषिन के गल फंदा
"दोषिन -दोषियों (देशज)"
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श्री विशाल चर्चित
एक दुर्मिल सवैया
सब काम पिपासु निरा बहशी अरु नीच पिशाच नराधम हैं
जिनके कर दामिनि लील गये उनको हर एक सजा कम है
फिर भी दोषिन को मौत मिले यह मांग यथावत कायम है
यदि शासन मौन रहा अब भी यह भी अपराधिहिं के सम है
(संशोधित छंद)
सब काम पिपासु निरा बहशी अरु नीच पिशाच नराधम हैं
जिनके कर दामिनि लील गये उनको हर एक सजा कम है
फिर भी तडपा कर मौत मिले, यह मांग यथावत कायम है
यदि शासन मौन रहा अब भी, यह तो अपराध समान हि है
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एक कंडलिया
मानव दानव रूप जो, दामिनि गये चबाय।
ऐसे पापी नीच को, फांसी देव चढाय।।
फांसी देव चढाय, भला अब देरी कैसी।
काहे को सरकार, करावै ऐसी तैसी।।
कहं 'चर्चित कविराय', मिटाओ सारे दानव।
नहीं बचेंगे वरना इक दिन देश में मानव।।
संशोधित पंक्ति
नहीं बचेंगे वरना, देश में इक दिन मानव।।
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श्री राजेश कुमार झा
गीतिका छंद
गिद्ध भी अब सिद्ध बनकर, कर रहे तैयारियां
गुंजलक में कैद वादे, भर रही सिसकारियां
तमतमाए नीम-बरगद, गश्त दे रोके किसे
चिलचिलाती धूप ने है, सोख ली जलधारियां
खौलती लहरें सुबह की, पूछती किलकारियां
**बिषहरा **बौधा बना क्यों, टोहता बस नाडि़यां
दंड ही देता अभय है, म्यान रख दोधारियां
कहती गीता धर्म है यह, पाप से क्या यारियां
** बिषहरा : विष को हरने वाला, महादेव को भी कहा जाता है पर यहां ऐहिक अर्थ प्रयुक्त है
** बौधा : अनजान के अर्थ में प्रयुक्त है
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मत्तगयन्द सवैया
फूट गई ढिबरी घर की अब रात घनी फनकार बनी है
जाग अघोर कि आज यहां कुछ शासन की दरकार बनी है
दानव रौंद रहे अबला करूणा चुप रोदन धार बनी है
चौंक हवा जलती बुझती हर पंथ-गली **कनसार बनी है
** कनसार :- चावल, मक्का, चना आदि भूजने की जगह जहां मिट्टी की हांड़ी में रेत डालकर इन्हें भूजा जाता है
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श्री अरुण शर्मा 'अनंत'
दोहे
फाँसी का फंदा नहीं, कर में धरो त्रिशूल,
ताबड़-तोबड़ मार दो, देर करो ना भूल,
नारी से दुर्गा बनो, सहो नहीं अपमान,
काली बन विचरण करो, भर डालो शमशान,
कोर्ट कचहरी घूमते, बीतें सदियाँ साल,
अन्यायी की मौज है, न्यायी है बेहाल,
खुलेआम दिन रैन हैं, नर रूपी हैवान,
नारी पे आरी चली, देख रहा हैरान...
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घनाक्षरी
फंदा फाँसी का फिजूल, हाथ में धरो त्रिशूल
नष्ट कर दो समूल , पापियों को देवियों ................
दुर्गा का लो अवतार , दैत्य का करो संहार
काली बन मार डालो , जुल्मियों को देवियों ................
कोर्ट कचहरी यहाँ , लगा देती है सदियाँ
तैयार ही रखो तुम , सूलियों को देवियों ................
खुले आम दिन रात, हैवान करे हैं घात
हमेशा चढ़ाए रखो, त्यौरियों को देवियों ................
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श्रीमती राजेश कुमारी
छंद कुंडलिया
फाँसी ही बस चाहिए, दंड नहीं कुछ और
इन फंदो में गर्दने, खींचों दूजा छोर
खींचो दूजा छोर, मिटे ये बलात्कारी
नहीं सहेंगे और, जान ले दुनिया सारी
ले कर में तलवार, चली अब रानी झाँसी
स्वयं करेगी न्याय, अधम को देगी फाँसी
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श्री सत्यनारायण शिवराम सिंह
कुंडलिया
नियम लचीले हो जहाँ, शासन ढुलमुल यार।
दु:शासन की त्रासदी, तब तब झेले नार।।
तब तब झेले नार, कौन जग हो सुनवाई।
मर्यादा की सीख, सभी ने उसे सिखाई।।
कहता सत्य पुकार, दमन नारी क्यों झेले।
शासन चुस्त दुरुस्त, करो ना नियम लचीले।।
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प्रयुक्त रंगों से तात्पर्य
नीला रंग : अस्पष्ट भाव / वर्तनी से सम्बंधित त्रुटि /बेमेल शब्द /यथास्थान यति का न होना
लाल रंग : शिल्प दोष
Tags:
परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥
अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥
उपरोक्त छंद पर आपके क्या विचार हैं, आदरणीय अम्बरीष भाईजी ? जिन व्यक्तिगत-मान्यताओं के अंतर्गत चित्र से काव्य तक छंदोत्सव अंक -२२ में मेरी छंद-प्रस्तुति के आखिरी छंद के तीसरे और चौथे पद के अंतिम चरणों में शिल्प-दोष इंगित किया गया है, क्या उन्हीं मान्यताओं (?) के अंतर्गत हम इस छंद को भी खारिज कर दें ?
सुप्रभात आदरणीय सौरभ जी | उपरोक्त छंद अपनी जगह सही है ! निश्चिन्त रहिये आदरणीय भाई जी, मेरी अपनी कोई भी ऐसी व्यक्तिगत मान्यताएं नहीं हैं जैसा कि आप समझ रहे हैं अपितु इस संकलन में आपके द्वारा रचित आखिरी छंद के तीसरे और चौथे पद के अंतिम चरणों के अंत में प्रवाह बाधित होने से गेयता प्रभावित हो रही है | सादर
//आखिरी छंद के तीसरे और चौथे पद के अंतिम चरणों के अंत में प्रवाह बाधित होने से गेयता प्रभावित हो रही है |//
हम अनावश्यक तार्किकता से बचें, आदरणीय. अन्यथा अबूझ ही सही किन्तु प्रतीत होती व्यक्तिगत मान्यताओं की ओर बार-बार उंगली उठेगी. आप कबतक और कितनी बार नकारियेगा ? आपने उक्त चरणों में जिस प्रवाह-भंग की बात की है, वह मेरे इसलिये भी अबूझ है क्योंकि, मैंने उन पंक्तियों को जिस स्वर में गाया है, वहाँ गेयता के लिहाज से कोई रुकावट नहीं है, अपितु, गेय-सहजता मक्खन में फिसलने की तरह है. फिर तो, यह शिल्प-दोष भी नहीं हुआ न, आदरणीय .. .
सादर
आदरणीय सौरभ जी,
काल्पनिक व्यक्तिगत मान्यताओं की ओर उंगली उठाना छोड़ कर हमें अपनी कमी दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए | शिल्प से सम्बंधित सभी नियम हमें गेयता की ओर ही ले जाते हैं क्योंकि बिना गाये हम एक भी छंद सही नहीं रच सकते |
उदाहरण के रूप में निम्नलिखित दोहा देखें
गेयता युक्त दोहा
सत्संगति सबसे भली, सज्जन रहें सुजान.
नहीं कुसंगति चाहिए, दुर्जन शूल समान..
अगेय दोहा
सत्संगति भली सबसे, रहें सज्जन सुजान.
कुसंगति नहीं चाहिए, शूल दुर्जन समान..
उपरोक्त में मात्रायें सही हैं पर क्या उपरोक्त अगेय को दोहा कहेंगें ????
हम चाहे किसी भी स्वर में गायें इसे गा नहीं सकेंगें !
इसी लिए दोहे का आंतरिक रचनाक्रम बनाया गया है जिससे आप परिचित ही हैं | अतः यह शिल्प दोष ही हुआ न!!
ठीक इसी प्रकार गीतिका छंद में तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं, व चौबीसवीं मात्रा लघु रखने से गेयता ही बनती है | आशा है कि आप संतुष्ट हो गए होंगें |
सादर
आप द्वारा उदारणार्थ प्रस्तुत अगेय दोहा पद्य के अनुरूप आवश्यक शब्द-संयोजन के लिहाज से ही ख़ारिज है. इसी कारण वह अगेय है.
यह हमें अवश्य जानना और मानना चाहिये कि मात्रिक छंदों या मात्रिक पंक्तियों (यथा, गीत या नवगीत या वो कविताएँ जो अतुकांत तो होती हैं किन्तु उनमें अंतरगेयता होती है) में पद्य के विधान के अनुरूप यदि शब्द-संयोजन नहीं होगा तो वो छंद और वो मात्रिक पंक्तियाँ कदापि गेय नहीं हो सकतीं. पद्य-विधान के अनुरूप शब्द-संयोजन गेय या प्रवाहमयी कविताओं की पहली शर्त है. इसी कारण दोहों के कई-कई प्रारूप हुआ करते हैं और शास्त्रानुसार दोहों के उन प्रारूपों के अलग-अलग नाम दिये गये हैं. लेकिन शास्त्रज्ञों द्वारा दोहों के उन सभी प्रारूपों में भी पद्य-विधान के अनुरूप आवश्यक शब्द-संयोजन से कत्तई खिलवाड़ नहीं किया गया है. अन्यथा वे भी अगेय होते.
गीतिका या हरगीतिका आदि छंदों के सुस्पष्ट विधानों को हम-आप प्रस्तुत चर्चा के मध्य न लायें. गीतिका में जिन वर्णों के लघु रूप में होने की आपने बातें की हैं, वे उस छंद की आवश्यक शर्त हैं. रचनाकार सतत अभ्यास से इन विन्दुओं पर सिद्धहस्त हो जाते हैं.
आपका सुझाव स्वीकार्य है कि उँगली उठाना न हो. लेकिन यह अपरिहार्य क्यों हुआ वह स्पष्ट है.
सादर
आदरणीय सौरभ जी, उपरोक्त अगेय कथित दोहे के माध्यम से मैंने सिर्फ यह दर्शाना चाहा था कि केवल मात्रायें व यति सही होने से ही कोई रचना छंद नहीं हो जाती | दोहे में तो अंतरगेयता संबंधी आंतरिक रचनाक्रम के नियम हैं पर रूपमाला में तो नहीं मिले हैं न !! अर्थात रूपमाला को बिना उसकी गेयता जाने नहीं रचा जा सकता है | इसी प्रकार बहुत से नियम स्पष्ट नहीं भी होते हैं इसी लिए मंचों की आवश्यकता पड़ती है| भाईजी ! हम सबने इस छंद ज्ञान रूपी महासागर से जो भी दो चार बूँदें प्राप्त कर की हैं | उन्हें बिना किसी हिचक के परस्पर साझा करते चलें | स्वस्थ चर्चा से हम सब आपस में बहुत कुछ सीखते हैं | सादर
//दोहे में तो अंतरगेयता संबंधी आंतरिक रचनाक्रम के नियम हैं पर रूपमाला में तो नहीं मिले हैं न !! अर्थात रूपमाला को बिना उसकी गेयता जाने नहीं रचा जा सकता है |//
आदरणीय, मेरी उपरोक्त टिप्पणी को पुनः देख ले जिस पर आपकी यह टिप्पणी आयी है. मैंने का है, आदरणीय - मात्रिक छंदों या मात्रिक पंक्तियों (यथा, गीत या नवगीत या वो कविताएँ जो अतुकांत तो होती हैं किन्तु उनमें अंतरगेयता होती है) में पद्य के विधान के अनुरूप यदि शब्द-संयोजन नहीं होगा तो वो छंद और वो मात्रिक पंक्तियाँ कदापि गेय नहीं हो सकतीं. पद्य-विधान के अनुरूप शब्द-संयोजन गेय या प्रवाहमयी कविताओं की पहली शर्त है.
अब बताइये, आदरणीय, दोहा या रूपमाला या किसी अन्य मात्रिक छंद को विशेष रूप से इंगित करने की आवश्यकता रह भी जाती है क्या ? जहाँ भी.. जिस भी छंद या पंक्ति में पद्य-विधान के अनुरूप शब्द-संयोजन नहीं होगा गेयता कदापि नहीं होगी.
सादर
आदरणीय सौरभ जी, शब्द संयोजन तो सम्बंधित छंद के आंतरिक रचनाक्रम के हिसाब से ही किया जा सकता है परन्तु जब आवश्यक आंतरिक रचनाक्रम विधान के अंतर्गत दिया ही न हो तो ऐसी स्थिति में बिना गेयता जाने छंद को कैसे रचा जा सकता है ? क्योंकि बहुत सी जानकारी उपलब्ध ही नहीं होती | कुछ दिनों पूर्व हमारे एक सक्रिय ओ बी ओ सदस्य ने भारतीय छंद विधान में छंदों के साथ उनके आडियो क्लिप्स लगाने का सुझाव सम्भवतः इसी कारणवश ही तो दिया था क्योंकि बिना गेयता जाने उन्हें छंद रचने में अत्यंत कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था ! सादर
पुनः मैं अपना वाक्यांश प्रस्तुत करूँगा -
मात्रिक छंदों या मात्रिक पंक्तियों (यथा, गीत या नवगीत या वो कविताएँ जो अतुकांत तो होती हैं किन्तु उनमें अंतरगेयता होती है) में पद्य के विधान के अनुरूप यदि शब्द-संयोजन नहीं होगा तो वो छंद और वो मात्रिक पंक्तियाँ कदापि गेय नहीं हो सकतीं. पद्य-विधान के अनुरूप शब्द-संयोजन गेय या प्रवाहमयी कविताओं की पहली शर्त है.
आप अपनी टिप्पणी में जो कुछ ऊपर कह रहे हैं, आदरणीय, वह सवैया आदि वर्णिक छंदों के गायन को सीखने और जानने के लिए उपयोगी हैं. या, उनके लिए भी उचित होता है जो कतिपय छंदों को कैसे गाया जा सकता है, यह जानना चाहते हैं.
मैं उपरोक्त टिप्पणी में पुनः मात्रिक पद्य-विधान के मूल विन्दु की बात कर रहा हूँ. कुछ मात्रिक छंदों (यथा दोहा, रूपमाला आदि-आदि) की विशिष्ट गायन शैली जैसी कुछ चीज अवश्य प्रचलित हो गयी है, लेकिन उन छंदों को मात्र उन्हीं प्रचलित लयों में गाया जा सकता है, इसका हम आग्रह क्यों करें ? दोहे ही भाई साहब, कई रागों में गाये जाते हैं, या गाये जा सकते हैं.
इसी कारण से, स्वर आदि अपलोड कर सकने की मेरे पास सुविधा के होने के बावज़ूद मैं दोहे या विशेषकर मात्रिक छंदों के गायन की किसी शैली को अपलोड नहीं करता. क्योंकि मात्रिक पंक्तियों और मात्रिक छंदों में पद्य-विधान के अनुसार शब्द-संयोजन का होना पहली और अनिवार्य शर्त है. बादबाकी नियमादि अन्यथा विन्दु हैं.
//शब्द संयोजन तो सम्बंधित छंद के आंतरिक रचनाक्रम के हिसाब से ही किया जा सकता है परन्तु जब आवश्यक आंतरिक रचनाक्रम विधान के अंतर्गत दिया ही न हो तो ऐसी स्थिति में बिना गेयता जाने छंद को कैसे रचा जा सकता है ?//
यह आपने क्या कहने का प्रयास किया है, आदरणीय ?
छंद में पदों के चरणों में मात्राएँ नियत होती हैं. उसी के अनुसार रचनाकार पदों के चरणों में भावानुसार शब्द संयोजित करते हैं. यह पद्य की मूल शाश्वत विधा के अनुरूप बने शब्द-संयोजन के अनुसार ही होने चाहिये. इस शाश्वत नियम में यदि कहीं-कोई परिवर्तन होता है तो छंद या मात्रिक पंक्ति अगेय हो जायेगी.
छंद रचने की प्रक्रिया में सर्वप्रथम हम उसे उससे सम्बंधित किसी भी धुन में गाकर लिख लेते हैं तद्पश्चात ही उसे उसके विधान की कसौटी पर कसते हैं | छंद को बिना गाये केवल उपलब्ध विधान के आधार पर शब्द संयोजन करने में प्रवाह व गेयता के बाधित होने की संभावना बनी ही रहती है! अर्थात जब छंद में प्रवाह व गेयता होगी तभी बिना किसी बाधा के किसी भी उपयुक्त राग व स्वर में हम उसे गा सकेंगें | भले ही छंद उससे सम्बंधित किसी भी धुन में रच गया हो |
अब हम इस बहस को यहीं विराम दें | सादर
हद है ! तो, फिर आपने मेरे द्वारा प्रस्तुत छंद के आखिरी दोनों पदों के अंतिम चरणों में किस तरह का शिल्प दोष देख लिया ?
इस तरह का ........
दिखता सहयोगी, पर मन-रोगी, कामी का रंग निराला
? पशु यदि हिंसक, नर विध्वंसक, कर दें हम मृत्यु हवाला
आदरणीय सौरभ जी, जो सत्य है वह है ! जिसकी पुष्टि आप किसी अन्य विद्वान से भी कर सकते हैं !
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