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विश्व में आका हमारे//गजल//

 २१२२/२१२२/२१२२/२१२

 

वे सुना है चाँद पर बस्ती बसाना चाहते।

विश्व में आका हमारे यश कमाना चाहते।

 

लात सीनों पर जनों के, रख चढ़े  हैं सीढ़ियाँ,

शीश पर अब पाँव रख, आकाश पाना चाहते।

 

भर लिए गोदाम लेकिन, पेट भरता ही नहीं,

दीन-दुखियों के निवाले, बेच खाना चाहते।

 

बाँटते वैसाखियाँ, जन-जन को पहले कर अपंग,

दर्द देकर बेरहम, मरहम लगाना चाहते।

 

खूब दोहन कर निचोड़ा, उर्वरा भू को प्रथम,   

अब हलक की प्यास, लोगों की सुखाना चाहते।  

 

शहरियत से बाँधकर, बँधुआ किया ग्रामीण को,  

गाँव का अस्तित्व ही, शायद मिटाना चाहते।  

 

सिर चढ़ी अंग्रेज़ियत, देशी  भुला दीं बोलियाँ,

बदनियत फिर से, गुलामी को बुलाना चाहते।

 

देश जाए या रसातल, या हो दुश्मन के अधीन,

दे हवा आतंक को, कुर्सी बचाना चाहते।

 

कोशिशें नापाक उनकी, खाक कर दें साथियों,

खाक में जो स्वत्व जन-जन का मिलाना चाहते। 

 

मौलिक व अप्रकाशित

 

कल्पना रामानी  

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Comment

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Comment by कल्पना रामानी on July 26, 2013 at 1:56pm

वंदना जी, स्नेह पूर्ण आत्मीय टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद...

Comment by Vindu Babu on July 26, 2013 at 1:05pm
आदरेया सादर नमस्कार!
आपकी गजल हृदय को आन्दोलित कर रही है,कथ्य लाजवाब तो शिल्प बेहद शानदान!
सादर बधाई स्वीकारें महोदया।
Comment by कल्पना रामानी on June 17, 2013 at 9:47am

हार्दिक आभार अशोक जी

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 4, 2013 at 11:27pm

//छंद में कहना आसान लगता है..//

हर ’उन’ को सरल उत्तर मिल गया होगा जो छंद या ग़ज़ल की मात्रिकता या व्यवस्था को अपनी भाव-उड़ान में बाधा समझते हैं.

सबके सब निष्णात हैं, सबके सब उन्मत्त
’अक्षर’ के सब आग्रही, अद्भुत ईश प्रदत्त

:-))))

Comment by कल्पना रामानी on June 4, 2013 at 11:18pm

वीनस जी, आप सबकी सकारात्मक प्रतिक्रिया से बहुत बल मिलता है। लाग लपेट वाले शे'र तो मैं लिख ही नहीं पाती हूँ। मेरी रचनाएँ हर विधा में सरल शब्दों में ही होती हैं। इसी कारण छंद मुक्त कभी नहीं लिख पाती। छंद में कहना आसान लगता है।

आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

Comment by वीनस केसरी on June 4, 2013 at 9:20pm

वाह वा ...
शानदार ग़ज़ल और कमाल का तेवर 

मुझे ऐसी ग़ज़ल विशेष पसंद आती हैं जिनमें बिना लाग लपेट के कहा जाए और एक झीने आवरण से ढँक दिया जाए ..

अहा !!!

यह ग़ज़ल ऐसी ही है 


इस दो अशआर पर खास तौर से दाद देता हूँ 

भर लिए गोदाम लेकिन, पेट भरता ही नहीं,

दीन-दुखियों के निवाले, बेच खाना चाहते।

 

कोशिशें नापाक उनकी, खाक कर दें साथियों,

खाक में जो स्वत्व जन-जन का मिलाना चाहते। 

Comment by कल्पना रामानी on June 3, 2013 at 10:11pm

आदरणीय कुंती जी, प्रोत्साहन भरे शब्दों के लिए हार्दिक आभार

Comment by कल्पना रामानी on June 3, 2013 at 9:43pm

प्रिय गीतिका जी, आपकी प्रशंसात्मक टिप्पणी   से हार्दिक प्रसन्नता हुई। आपका बहुत बहुत धन्यवाद। स्वत्व का अर्थ स्वामित्व या अधिकार होता है। शे'र में सटीक प्रयोग हुआ या नहीं, यह तो पाठकों की टिप्पणियाँ ही बता सकती हैं। अपनी रचना का मूल्यांकन हम स्वयं नहीं कर सकते ना!

Comment by कल्पना रामानी on June 3, 2013 at 9:07pm

आदरणीय सौरभजी आपकी बहुमूल्य टिप्पणी मेरे लिए अति उत्साहवर्धक है।आदरणीय मेरा मन बहुत संवेदनशील है। पर पीड़ा को शब्द देने के लिए आक्रोश की अपने आप उत्पत्ति होती है।   अगर लेखन से किसी को प्रेरणा मिलती है तो यह मेरा श्रम सार्थक हो जाएगा। आपका हार्दिक धन्यवाद

सादर

Comment by कल्पना रामानी on June 3, 2013 at 8:56pm

आदरणीय आशुतोष जी स्नेहपूर्ण टिप्पणी केलिए हार्दिक आभार

सादर

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