सूर्य देवा, लाँघना कुछ सोचकर,
इस गाँव की चौखट।
बढ़ रहे तेवर तुम्हारे,
सिर चढ़े वैसाख में।
भू हुई बंजर चला जल,
भाप बन आकाश में।
देव! है स्वागत तुम्हारा,
ध्यान हो लेकिन हमारा,
बाँध लेना प्रथम अपनी आग सी,
किरणों की बिखरी लट।
मौन हैं प्यासे दुधारू
खूँटियों से द्वंद है।
हलक सूखे हैं, नज़र में
याचना की गंध है।
शेष जल यदि तुम निगल लो,
गागरी उदरस्थ कर लो,
अन्नपूर्णा किस तरह झेले भला,
तन सोखता संकट।
ले गए लोलुप हमारी,
शहर नदिया मोड़कर।
तन यहाँ तर स्वेद से,
जल से हैं तर वे बेखबर।
तुम सखा यह याद रखना,
गाँव में शुभ पाँव धरना,
सुर्ख मुख पर बादलों का ओढ़कर,
बस हाथ भर घूँघट।
मौलिक व अप्रकाशित
कल्पना रामानी
Comment
गीतिका जी, मीना जी, अशोक जी, स्नेहपूर्ण बधाई प्रेषित करने करके आपने रचना का मान बढ़ा दिया है। आप सबका हार्दिक धन्यवाद। सादर
आदरणीया कल्पना रामानी जी सादर, बहुत सुन्दर नवगीत रचा है, अंतिम बंद तो बहुत ही सुन्दर बना है. सादर बधाई स्वीकारें.
ले गए लोलुप हमारी,
शहर नदिया मोड़कर।
चल रहे एसी वहाँ पर,
शीत छाया ओढ़कर।
तुम सखा यह याद रखना,
गाँव में शुभ पाँव धरना,
सुर्ख मुख पर बादलों का डालकर,
बस हाथ भर घूँघट।......................................बहुत सुन्दर .....क्या बात है ....... बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीया कल्पना जी
वाह वाह बहुत मनभावन नवगीत प्रस्तुत किया आपने आदरणीया कल्पना जी!
बृजेश जी, प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद...
सादर
बहुत ही सुंदर! वाह क्या बात कही है आपने और कितनी सुंदरता से। आपको ढेरों बधाई!
आदरणीय डॉ॰आशुतोष जी, सुंदर टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार...
पूजा जी, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद...
राज लाली शर्मा जी, प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार...
अभिनव अरुण जी, प्रशंसात्मक टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद...
सादर
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