For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

बार बार भीड़ में

ढूँढता हूँ

अपना चेहरा

 

चेहरा

जिसे पहचानता नहीं

 

दरअसल

मेरे पास आइना नहीं

पास है सिर्फ

स्पर्श हवा का

और कुछ ध्वनियाँ

 

इन्हीं के सहारे

टटोलता

बढ़ता जा रहा हूँ

 

अचानक पाता हूँ 

खड़ा खुद को

भीड़ में

अनजानी, चीखती भीड़ के

बीचों बीच

 

कोलाहल सा भर गया

भीतर तक

कोई ध्वनि सुनाई नहीं देती

शब्द टकराकर बिखरने लगे

 

मैं ढूँढता हूँ 

गुलाब की इन

बिखरी पंखुड़ियों पर जमा

ओस की बूँदों में

अक्स

लेकिन वहां है

सिर्फ अकेली टहनी

 

शायद इस घास पर हो

पद चिन्ह

पर यहाँ मिली

एक लकीर

जिस पर होकर

गुजर रही हैं चींटियां

 

चींटी, घास, पंखुड़ी, ओस

सब बेखबर हैं उस भीड़ से

जो घेरे है मुझे

भीतर बाहर

 

अब मैं पकड़ना चाहता हूँ

हवा को

लेकिन हवा गर्म है

और ध्रुवान्तों की

बर्फ पिघल रही है

नदी में पानी बढ़ रहा

और इस भीड़ में खोया

मैं चिंतित हूँ

अपने उस चेहरे के लिए

जिसे पहचानता नहीं

लेकिन जिसके

पिघलने का खतरा है।

                    -  बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 745

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by बृजेश नीरज on August 11, 2013 at 4:15pm

आदरणीय आपका और एडमिन साहब का बहुत बहुत आभार!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2013 at 4:10pm

लगता है ऐडमिन ने आपकी-हमारी गुहार सुन ली है. :-)))

Comment by बृजेश नीरज on August 11, 2013 at 3:55pm

आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार! आगे से व्याकरण की त्रुटियों के प्रति अधिक सचेत रहने का प्रयास करूंगा।

बूँद टाइप करते समय बहुवचन होने से रह गयी। जब ध्यान गया तो भी संशोधित नहीं किया कि एडमिन साहब को काहे नाहक तंग करूं। गलती यदि की है तो मैं ही डाँट सहूं।

सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2013 at 5:27am

भाई, आप बहुत मेहनत करते हैं.  भटकते भी हैं.  कि, सटीक प्रतीकों के बुर्के में छिपा कर कविता को बचा ले जाते हैं. वैचारिकता का आततायीपन और आतंक कुछ कर नहीं पाता.

ऐसी भाव-दशा को अकेलेपन से जन्मा और अभिव्यक्त हुआ  भय नहीं कह, इसे उस भय से सचेत हो कवि के आगे बढ़ने की कोशिश करना अधिक समझूँगा.

दरअसल

मेरे पास आइना नहीं

पास है सिर्फ

स्पर्श हवा का

और कुछ ध्वनियाँ .. .

सूक्ष्म से कितना एका है ! वाह.  कौन कहता है आज का आकाश थका है ?

स्थूल के प्रति अन्यमनस्कता कितनी आश्वस्ति से अभिव्यक्ति पाती है. ’स्व’ के प्रति और ’स्व’ के लिए बने निम्नलिखित वाक्यांशों के भाव अस्मिता को बचाये रखने की कवायद का एक मायना भी है. कि, जड़ें सूखी ही क्यों न हों पनियायी भूमि की प्रतीक्षा करती ही करती हैं. उसके मिलते ही अँकुरा भरती हैं. यही कामना  तो संघर्ष की मूलशक्ति है.  -

अब मैं पकड़ना चाहता हूँ

हवा को

लेकिन हवा गर्म है

और ध्रुवान्तों की

बर्फ पिघल रही है

नदी में पानी बढ़ रहा

और इस भीड़ में खोया

मैं चिंतित हूँ

अपने उस चेहरे के लिए

जिसे पहचानता नहीं

लेकिन जिसके

पिघलने का खतरा है।

बहुत बढिया, बृजेश भाईजी.  बहुत अच्छॆ.

कुछ व्याकरण-तत्वों को साधे रहिये, खट से लगते हैं. जैसे कि एक उदाहरण लीजिये -

ओस की बूँद में ..  उचित होगा ओस की बूँदों में..

शुभेच्छाएँ

Comment by बृजेश नीरज on August 7, 2013 at 6:56pm

आदरणीय माथुर जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by D P Mathur on August 7, 2013 at 10:49am

आदरणीय ब्रजेश सर , नमस्कार, प्रत्येक मन में अपने वजूद के लिए कभी ना कभी उठे प्रशन आपकी इस प्यारी रचना में सुन्दर ढ़ंग से पिरोये गये हैं आपको बधाई ! 

Comment by बृजेश नीरज on August 6, 2013 at 9:03pm

आदरणीया शुभ्रा जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on August 6, 2013 at 9:02pm

आदरणीय अरुन भाई हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on August 6, 2013 at 9:01pm

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका आभार!

Comment by बृजेश नीरज on August 6, 2013 at 9:01pm

आदरणीया सरिता जी आपका आभार!

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई सुरेश जी, अभिवादन। प्रदत्त विषय पर सुंदर कुंडली छंद हुए हैं हार्दिक बधाई।"
43 minutes ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
" "पर्यावरण" (दोहा सप्तक) ऐसे नर हैं मूढ़ जो, रहे पेड़ को काट। प्राण वायु अनमोल है,…"
2 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। पर्यावरण पर मानव अत्याचारों को उकेरती बेहतरीन रचना हुई है। हार्दिक…"
2 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"पर्यावरण पर छंद मुक्त रचना। पेड़ काट करकंकरीट के गगनचुंबीमहल बना करपर्यावरण हमने ही बिगाड़ा हैदोष…"
3 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"तंज यूं आपने धूप पर कस दिए ये धधकती हवा के नए काफिए  ये कभी पुरसुकूं बैठकर सोचिए क्या किया इस…"
6 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आग लगी आकाश में,  उबल रहा संसार। त्राहि-त्राहि चहुँ ओर है, बरस रहे अंगार।। बरस रहे अंगार, धरा…"
6 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' joined Admin's group
Thumbnail

धार्मिक साहित्य

इस ग्रुप मे धार्मिक साहित्य और धर्म से सम्बंधित बाते लिखी जा सकती है,See More
6 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"गजल (विषय- पर्यावरण) 2122/ 2122/212 ******* धूप से नित  है  झुलसती जिंदगी नीर को इत उत…"
15 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"सादर अभिवादन।"
15 hours ago
Admin posted discussions
Tuesday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  …See More
Tuesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"बहुत सुंदर अभिव्यक्ति हुई है आ. मिथिलेश भाई जी कल्पनाओं की तसल्लियों को नकारते हुए यथार्थ को…"
Jun 7

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service