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ज़िंदगी में हादसे, ना जाने कितने हुए..  
 कुछ में तो मर गये ,कुछ बस जीते गये..

जाने
कब किस मोड़ पे ठहरेगी ये कशकश..

कभी खुद से, दुनिया से कभी..

बस..लड़ते गये..

है तड़प क्या ? क्यों सिसकती आहटें हैं ?

ढूँढते थे ,ढूँढते हैं..और बस ..ढूँढते गये..
 

है गदित जीवन में सबके हार का - जीत का ..

हम उलझते जाल में ,कभी जोड़ के ,कभी भाग के,घिरते गये.. 

शून्य को था तोड़ना.. उस शून्य को भरना भी था..
शून्य के ही सूनेपन में ज़िंदगी खोते गये.. 

क्या है आज ?
क्या है आज..कुछ भी नही..हाथ रीते आँखें रीतिं..
रीतो को निभाते,जीते , मंन की झोली रीति करते गए.. 

बस.. चलते गए..
बस..चलते गए .. 

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Comment

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Comment by Lata R.Ojha on December 30, 2010 at 4:53pm
शुक्रिया वीरेन्द्र जी :) 
Comment by Veerendra Jain on December 30, 2010 at 4:26pm
जीवन की कश्मकश का बहुत ही बढ़िया वर्णन किया है आपने...लता जी ...बहुत बहुत बधाई ...
Comment by Lata R.Ojha on December 30, 2010 at 1:18pm
तारीफ के लिए धन्यवाद नवीन जी . :) 
Comment by Lata R.Ojha on December 29, 2010 at 2:05pm
शायद अधिकांश लोगों का सच यही हो..क्या पता ! :)
आभार भास्कर जी :)
Comment by Bhasker Agrawal on December 29, 2010 at 1:01pm

है तड़प क्या ? क्यों सिसकती आहटें हैं ?
ढूँढते थे ,ढूँढते हैं..और बस ..ढूँढते गये..

वाह ..ये हाल तो हमारा भी है ..बहुत खूब

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