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अपने दिल से मेरा सिलसिला जोड़ दे ,
द्वार आखों का अपनी खुला छोड़ दे..
.
ऐसी पागल हवायों की औकात क्या
तू जो चाहे तो तूफाँ का रुख मोड़ दे…
.
राह में रोक लेना तो रुसवाई है
साथ चल या मेरा रास्ता छोड़ दे
.
साफ चाहत का जिसमे न चेहरा दिखे।
दिल ये कहता है वो आइना तोड़ दे ...
.
दुःख में आँखें न आ जाएँ तेरी कहीं
रात भर याद में जागना छोड़ दे…।

मौलिक व् अप्रकाशित

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Comment by Sushil.Joshi on October 24, 2013 at 5:05am

आ0 पंकज भाई.... ओबीओ में आपका स्वागत है..... इस प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें.... बहुत ही खुशी हुई कि अंग्रेज़ी में शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी आप हिंदी सीखने एवं लिखने के प्रति इतने संवेदनशील हैं..... थोड़ी सी और मेहनत आपको एक अलग मुक़ाम तक पहुँचा सकती है..... सादर

Comment by Pankaj Mishra on October 22, 2013 at 12:28am

आप  सभी  का  बहुत बहुत सुक्रिया ..आप  सब  के  विचार  और  ज्ञान  जान कर  बहुत   खुसी  हुई ...वैसे  ये  मेरी  पहली  रचना  थी  जो  OBO  माध्यम  से  प्रकाशित  हुई ..यह  मैंने  बेखबर  के  मनोभावों  को  अपनी  लाइनों  के  माध्यम  से  प्रस्तुत  किया  है  .मै जानता   हु  इश्को  ग़ज़ल  का  नाम  देना  गलत  है  ..वैसे  मुझे  ग़ज़ल  लेखन  का  उतना  ज्ञान  नहीं  है   ..,हमारी  शिक्षा  भी  इंग्लीश मीडियम के  डॉन बॉस्को स्कूल से  हुई  है  ,,अभी  तो  मै  बस  हिंदी  में कविताओ  को  लिखना  सिख  रहा  हु  ...जैसा  की  ये  मेरा  सौख और  प्रेम  है .मै  जनता  हु  की  इतने  बड़े  कवियों  के  बिच  मेरा  कोई स्थान  नहीं है  पर खुद  के  भाव  लिखने  का  यह  छोटा  सा  प्रयास  है  ..और  गलतियों  को  मेरे  आप सभी माफ़  करे.
     बहुत बहुत आभार आदरणीय जनों
     आपका सुझाव पाकर धन्य महसूस कर रहा हूं।
......
पंकज मिश्र

Comment by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 20, 2013 at 1:47pm

मैं..आदरणीय शकील साहब की बात से पूर्ण सहमत हूँ...हालाँकि...आ. सौरभ पाण्डेय जी की बातें भी बहुत उचित हैं....//..सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 19, 2013 at 9:45pm

सही कहा वीनस जी आपने.

हम दूसरे रुक्न में ही उलझने लगे थे ..  पता नहीं क्यों दूसरा २१२  मुझे सेट क्यों नहीं हो पा रहा था. और बार-बार मात्रा गिराना इधर-उधर कर रहा था. वैसे मात्रा गिरे अक्षर ठीक ही हैं. लेकिन यों?  इतने !?

बहुत अच्छे

Comment by वीनस केसरी on October 19, 2013 at 9:04pm

मित्रों / अग्रजों से निवेदन है कि इस ग़ज़ल को एक बार
बह ए मुतदारिक मुसम्मन सालिम
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
२१२ / २१२ /  २१२ /  २१२
पर तक्तीअ कर के देख लें ...
शायद ग़ज़ल संतुष्ट कर सके


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 19, 2013 at 8:27pm

आपकी ग़ज़ल के मिसरों को किस वज़्न से देखूँ... गज़ल का दूसरा रुक्न संयत नहीं हो रहा है, मुझे.  क्योंकि मुझमे इसे समझने में शायद कमी है.

यह अवश्य है कि बार-बार मात्राओं को गिराना उचित नहीं होता.  बहरहाल, बहुत-बहुत बधाई..

शुभ-शुभ

Comment by शकील समर on October 19, 2013 at 1:53pm

बह्र का उल्लेख कर दीजिए आदरणीय Pankaj Mishra  जी ताकि इससे हम जैसे नए लोग लाभ उठा सकें। सादर।

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 19, 2013 at 1:50pm

क्या बात है बहुत खूब

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