आज का समय अनेक विसंगतियों से जूझ रहा है। पूंजीवीदी विकास की अवधारण औरवैश्वीकरण नें समाज में गहरी खांइयां डाल दी हैं। सदियों से हमारे देश कीपहचान रहे गाँव,किसान हमारी अद्वितीय संस्कृति पर संकट के घनघोर बादलमंडरा रहे हैं। पूरी अर्थव्यवस्था एवं न्यायव्यवस्थ भ्रष्टाचारकी भेंट चढ चुकी है। संस्कृति जिसके बूते हमारे राष्ट्र की पताका विश्वमें फहराया करती थी,आज... पाश्चात्य के अन्धेनुकरण की दौड़ में रौंदी जारही है। जब सभी मनोरंजन के साधन उबाऊ सिद्ध हो रहे है,ईमानदार,नि:सहाय और आमआदमी की सुनने वाला कोई नहीं रहा।
ऐसे अराजक और मूल्यहीन विकृत मंजर में दर-दर से ठुकराई दमन के हाशिएपर खड़ी आत्मा की अन्तिम शरणस्थली बचती है तो एकमात्र साहित्य! साहित्य का उद्गम अथवा साहित्य का अध्ययन। उद्गम के लिए साहित्य-धर्मिता धारित हर व्यक्ति तो होता नहीं ,तो बात टिक गई आकर अध्ययन पर। आज की साहित्य में ऐसी क्षमता है जो इस स्थिति में मानव-हृदय को सहलाने में सक्षम हो सके? ये एक यक्ष प्रश्न है।आज केसाहित्य में क्या ऐसे नि:सहाय पात्रों को स्थान मिलता है?क्या उन दमितआवाजों को उजागर कर सर सकता है जिनका सुनने वाला कोई नहीं? ऐसे कई प्रश्न रचनाशीलता के पल्ले में हैं।
मुंशी प्रेमचंद ने कहाहै-''साहित्य की गोद में उन्हें आश्रय मिलना चाहिए जो निराश्रय हैं,जो पतित हैं,जो अनादृत हैं।''
साहित्य का मूल उद्देश्य हमारी संवेदना को विकसित करना है। पीछे नजर डाल के देखें तो महादेवी,शरतचंद्र चटर्जी का साहित्य पद्दलित महिलाओं के बारे में सोचने को बाध्य करता है,मैक्सम गोर्की का मजदूरों के बारे में। प्रेमचन्द्र के पढें को किसानों की दशा से मन उद्वेलित होता है,टैगोर जी का साहित्य हमारा चित्त अध्यात्मिकता की ओर खींचता है। क्या आज का साहित्य की भूमिका कुछ ऐसी ही है?
इतिहास और हिंदी साहित्य साक्षी है कि जब-जब समाज में गिरावट,अर्थव्यवस्था में गिरावट,अनेकानेक संघर्ष उपजे हैं तब-तब उत्कृष्ट साहित्य सृजित हुआ है। आदिकाल,मध्यकाल हो या उपनैवेशिक काल,अनेक उदाहरण हमारे समक्ष हैं। इतिहास में कदाचित् पहली बार ऐसा हो रहा है जब साहित्य औरसमाज दोनो की अधोगति का एकाकार हो रहा है,दोनो में एक साथ गिरावट आ रहीहै।
आज जब साहित्य में संस्कृति,आम-आदमी की स्थिति और अवहेलि आवाज कोउजागर करने का समय है तब साहित्य महानगरीय और विलासिताओं के बोध से भरापड़ा है। मानो मनुष्य का विवेक और साहित्य-धर्मिता चंद समृद्ध शहरों तक ही सिमट कर रह गया हो। साहित्यकार विदेशों के चित्र,समृद्धियों के चित्र अपनी पहुंच प्रदर्शित करने के लिए प्रस्तुत करने लग गये हैं। आखिर कारण क्या है जो 100 वर्षों से अधिक हो गया है भारतीय साहित्यकार नोबेल पुरस्कार पर अधिकार नहीं कर सका।
ऐसी बात नहीं कि आज उत्कृष्ट साहित्य-धर्मिता मृतप्राय हो गई है लेकिन कमी अवश्य आई है। वह कम परन्तु विशिष्ट रचना शीलता सत्ता-क्षेत्रों और चकाचौंध से दूर है और चुप-चाप अपनी आत्मा की संतुष्टि के लिए रचना कर्म कर रहे हैं। उसे प्रकाश में लाने वाले शायद कम ही हैं ,क्योंक जिसकी लाठी उसकी भैंस। स्वार्थ और स्वयं लोकप्रिय होने की अतिशय भूख अध्ययन,आंकलन और गुणवत्ता को निगल रही है।
मुझे लगता है जो यत्र-तत्र कुछ संस्कृति,संवेदना और सज्जनता जीवित है वह इसी साहित्य की वजह से ही है,भेले ही ऐसा साहित्य पुरस्कार अधिकारी कभी न पाए। ऐसे विलक्षण समय में साहित्य की बाहुल्यता,उत्तम शिल्प,खोखली लोकप्रियता से गदगद होने की बजाय पथ-प्रदर्शित करने वाले साहित्य को प्रकाश में लाने में सार्थकता है। कहा गया है-''एक सफल राजनीति अर्धशताब्दी में भी जन-कल्याण के लिए जो नहीं कर सकती वह उत्कृष्ट साहित्य की एक साधारण सी पंक्ति कर देतीहै।साहित्य के सृजन को कोई मिटा नहीं सकता।''
समाज में युवाओं के मनोरंजन के बहुतायत साधनउपलब्ध हैं,परन्तु मनोमंथन के लिए प्रेरित करने वाला एकमात्र उत्तमसाहित्य ही है।महान विद्वान आस्कर वाइल्डि ने कहा है-''Literature always anticipates life.It does not copy it or entertain it,but moulds it to its purpose''
इसलिए साहित्य-धर्मिता विकसित करने से पहले मुझे लगता है,साहित्य की उत्कृष्टता और उद्देश्य की पहचान करने की नितान्त आवश्यकता है।
सादर शुभेच्छा
-वन्दना
(मौलिक/अप्रकाशित)
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एक ऐसा सारोकार जो साहित्य के रास्ते समाज को प्रभावित करता है. इस राइट-अप में दो-तीन विन्दु मौज़ूद हैं जिनपर सार्थक चर्चा हो सकती है. मैं अन्यान्य पाठकों से अनुरोध करता हूँ कि इस बहस/चर्चा को सहमति देते हुए इसके सभी विन्दुओं को विवेचित करें.
सादर
सादर प्रणाम आदरणीय।
मैंने ये चर्चा अपने 'सीमित' अनुभव और अध्ययन के आधार पर शुरू की है,आपसे निवेदन है की महत्वपूर्ण विन्दु उजागर करके चर्चा को सही दिशा दें। मेरा सम्प्रेष्ण की अपूर्णता को पूर्ण करें।
सच में आदरणीय अपने अन्तःकरण की व्यथा को व्यक्त किया था,आपने सार्थकता की मुहर लगाई इसके लिए आपका बहुत आभार।
मैं चर्चा में शीघ्र ही पुनः आती हूँ।
सादर
आदरणीया वंदना जी, एक बहुत ही उपयोगी और आवश्यक चर्चा प्रारम्भ करने के लिया आपका आभार!
आज के समय में जिस तरह की उच्छ्रन्ख्लता समाज में व्याप्त है उसका शिकार आज का साहित्य भी है.साहित्य को मन के भावों की सहज अभिव्यक्ति समझने वाले साहित्य की उपयोगिता और भूमिका को नज़रंदाज़ कर इसे उथले-छिछले भावों का कूड़ाघर बनाने पर तुले हैं.
मेरा मानना है कि साहित्य मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि मन की तुष्टि के लिए होता है. किसी भी काल और समाज, देश के लिए साहित्य को उपयोगिता अक्षुण्ण है बशर्ते रचनाकार अपनी भूमिका को जानें और समझें. रचनाकर्म करते समय इस पर विचार जरूरी है कि हम क्या लिख रहे है, क्यों लिख रहे है और किसके लिए लिख रहे हैं. सोते-जगते मन में उठते विचारों की अभिव्यक्ति, क्लिष्ट शब्दों के बोझ से कराहती रचना साहित्य नहीं ही है. आखिर साहित्य और डायरी लिखने में कुछ तो अंतर होना चाहिए.
सादर!
बहुत अच्छे विन्दु आपने उठाये हैं, भाई बृजेश जी. मैं आपके इन विन्दुओं को सर्वसमाही नहीं कहूँगा लेकिन दायित्वबोध के प्रति आपके विचारों का स्वागत है.
शुभ-शुभ
आपका सादर स्वागत है आदरणीय।
साहित्य उसका शिकार क्या... शायद कहना चाहिए कि समाज की उच्छ्रन्ख्लता का कारण कहीं न कहीं साहित्य भी है। क्लिष्ट शब्दों के बोझ की बात जो आपने कही उससे सहमत हूं, उन्नत और शुद्ध शब्दों के प्रयोग के पक्ष में हूँ,लेकिन उद्येश्य 'साहित्य में गुणवत्ता' लाना हो न कि अपनी 'विद्वता प्रदर्शित' करना।
अब उद्येश्य की परख होगी कैसे,ये 'रचनाकर्मकिया किस वर्ग के लिएए जा रहा है?
से सम्बन्धित हो सकता है।
उच्च भाव भी सरलतम भाषा में सम्प्रेषित करना साहित्य की विशेषताओं में से एक है।
'मन की तुष्टि...पर किसकी रचनाकार की या पाठक की?
सादर
आदरणीया वंदना जी,
मेरी दृष्टि में रचनाकार के लिए साहित्य एक साधना है! जैसे इश्वर की आराधना भक्त के मन को तुष्ट करती है, शांति प्रदान करती है, ऐसे ही साहित्य मुझे.
पाठक के लिए भी ये मनोरंजन का साधन मात्र नहीं, पर इस दृष्टि में अवश्य है कि ये पाठक के मन को तुष्टि प्रदान करता है!
रचनाकर्म का वर्ग नहीं होता. रचना समष्टि के लिए की जाती है. वर्गों में बाँट कर रचना नहीं की जा सकती! वर्गीकरण का जो भी प्रयास है वो सिर्फ आत्म-संतुष्टि के लिए ही होता है. भिखारी पर केन्द्रित रचना क्या ये सोचकर लिखी जाती है कि इसे भिखारी पढ़ेगा?
जहाँ तक क्लिष्ट शब्दों के प्रयोग की बात है, तो शब्द वही प्रयोग किये जाने चाहिए, जो सरलता से आत्मसात हो जाएँ हर पाठक वर्ग के लिए! रचना प्रक्रिया के दौरान जो शब्द सहजता, सरलता से रचना में शामिल हो जाएँ, वही उपयुक्त हैं, थोपे शब्द साफ़ नज़र आते हैं.
समष्टि में वर्ग से मेरा मतलब आयु वर्ग के लिए है आदरणी-
बाल वर्ग और वय वर्ग।
शब्द संयोजन से महत्वपूर्ण साहित्य का उद्येश्य और मूल कथ्य होता ह।,
साधना में शांति के साथ सिद्धि है तो साहित्य में भी तुष्टि के साथ पुष्टि भी है।
सादर
बहुत ही सार्थक और उद्देश्यपूर्ण चर्चा को आरम्भ करने के लिए आपका धन्यवाद. प्रिय वंदना जी..
अपनी बात को बिन्दुवत रखने का प्रयास करती हूँ..
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साहित्य यदि समय का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करने वाला दर्पण है ..तो भी आज वह आधुनिक समाज के प्रतिरूप को सही समझ के साथ प्रस्तुत करने में अक्षम है...
*एक बड़ा कारण है "जो बिकता है..वही छपता है - यानी लोग वैसा ही लिखना पसंद करते हैं जो बिके" कई विषय हैं जिन पर कुछ भी लिख दिया जाए तो फटाफट बिकने लगता है... यथा "कम समय में कैसे बनें अमीर, मोटापा घटाने के १०० तरीके, फैशन की जानकारियाँ , फ़िल्मी बातें, अस्तरीय प्रेम कथाएँ..आदि आदि ...या फिर पूरा मसाला लगा कर प्रस्तुत की गयी थोड़ी सी सच्चाई "
*दूसरा कारण है आत्ममुग्धता और जिम्मेदारी के एहसास में कमी.... कई वरिष्ठ रचनाकार मैंने देखे जो कहते मिले "मैं लिखता तो हूँ , पर मुझे दूसरों को पढना पसंद नहीं" आप किसी विषय में क्या सोचते हैं और लिखते हैं , वो विचार सही भी है, कितना व्यापक है या नहीं, कितनी अपरिपूर्ण है आपकी समझ ...इसे हम तब तक नहीं जान सकते जब तक हम खुले मन व विचारों से दूसरों ने भी उस विषय में क्या लिखा है इसे नहीं पढ़ते समझते.
कई आधुनिक तथाकथित साहित्यकारों को पढ़ा और घोर आश्चर्य हुआ ये देख कि इतनी अपरिपक्व सोच-समझ को कोइ व्यक्ति छाप कैसे सकता है. बस अपनी किताबों की संख्या बढाने के लिए छपते जाना..बिना ये सोचे कि ऐसा निरर्थक लोग पढना पसंद भी करेंगे या नहीं, इसका उद्देश्य क्या है.. या ये किसी साहित्यकार को कैसी संतुष्टि प्रदान करता है ये मेरी समझ से बाहर है..
*तीसरा बड़ा कारण है मानसिक जड़ता या सोच का आलस्य... जब साहित्यकार/ रचनाकार कुछ ग्रहण करने को तैयार नहीं होता, कुछ नया सीखना नहीं चाहता, आज के समय के अनुरूप खुच की सोच में तारतम्य नहीं बैठा पाता तो वो पिछड़ जाता है...और आज का साहित्य संकीर्णता को स्वीकार नहीं करता.
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आज तरक्की की नित नयी सीढियां चढ़ती मानवता में जिस तीव्रता से नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है.. उसका पूरा असर साहित्य पर भी नज़र आता है.
यद्यपि मैं फिल्में गीतों को साहित्य की श्रेणी में कदापि नहीं गिनती फिर भी रचनाकार की कलम से निकले कुछ भाव और बोल जब स्वर पा कर जन जन के कानों तक अपनी पहुँच बनाते हैं तब बच्चों का अबोध मन, युवाओं का अपरिपक्व दिशा तलाशता मन और प्रौढ़ व्यक्तियों की समझ भी अनजाने अनायास ही कई संस्कार ग्रहण कर लेती है... आज संगीत के नाम पर कान में पढने वाले बोल चेतना को विश्रांति देने की जगह उद्वेलित करते हैं..
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सिर्फ आत्मसुख के लिए मन के भावों को अभिव्यक्त करना, जैसे कई कई रचनाकार किया करते हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भावों की उन्मुक्तता की आढ़ में साहित्य के (सर्व हित समाही) उद्देश्य को ही हाशिये पर रख देना.. किस प्रकार का सृजनात्मक कार्य है, ये भी चिंताजनक विषय है.
किसी और के उद्वेलित मनोभावों के आवेग का अध्ययन कर... कोइ भी पाठक जो साहित्य में मन के लिए क्षणिक विश्रांति खोजता है..वो इसे कैसे पा सकता है..
जब तक किसी अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करने से पहले ....पूरी सच्चाई के साथ, विषय पर मनन- मंथन कर चरम सुख / सार तत्व तक विश्लेषित कर प्रस्तुत न किया गया हो, तब तक वो अभिव्यक्ति अपूर्ण ही रहती है... और एक अतृप्त क्लांत पाठक की आत्मा की शरणस्थली नहीं बन सकती....
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//साहित्य का मूल उद्देश्य हमारी संवेदना को विकसित करना है। पीछे नजर डाल के देखें तो महादेवी,शरतचंद्र चटर्जी का साहित्य पद्दलित महिलाओं के बारे में सोचने को बाध्य करता है,मैक्सम गोर्की का मजदूरों के बारे में। प्रेमचन्द्र के पढें को किसानों की दशा से मन उद्वेलित होता है,टैगोर जी का साहित्य हमारा चित्त अध्यात्मिकता की ओर खींचता है। //
क्या आज के साहित्य की भूमिका कुछ ऐसी ही है?..........बहुत सही प्रश्न उठाया है वंदना जी ..
//आज जब साहित्य में संस्कृति,आम-आदमी की स्थिति और अवहेलि आवाज कोउजागर करने का समय है तब साहित्य महानगरीय और विलासिताओं के बोध से भरापड़ा है।//................... बिलकुल सहमत हूँ.
//समाज में युवाओं के मनोरंजन के बहुतायत साधन उपलब्ध हैं, परन्तु मनोमंथन के लिए प्रेरित करने वाला एकमात्र उत्तम साहित्य ही है।.//...........................................................................आज युवा दिशाहीन हैं क्योंकि उनको दिशा देने के लिए कोइ यथोचित दिग्दर्शक ही नहीं है. असल में साहित्य की भूमिका ही एक जलती हुई मशाल के जैसी होनी चाहिए जो व्यक्ति को दिशा दिखाए... न कि उसके (सही/गलत) मार्ग का बाद में प्रस्तुतीकरण करता दिखे.
ऐसे में रचनाकार की ज़िम्मेदारी बहुगुणा बढ़ जाती है... उसे समाज को एक सही दर्शन देना होता है, एक जीने की राह देनी होती है, एक उत्कृष्ट चिंतन का बीज देना होता है...
आदरणीया आपकी वृहद प्रतिक्रिया विन्दु पर आपके गहन चिन्तन प्रदर्शित कर रही है।
आपने निष्ठा से अपने विचारों को प्रस्तुत किया इसके लिए आपका आभार।
आपने समस्या की तह तक जाने का सार्थक प्रयास किया है। सामान्यतः अनेकानेक प्रश्न मुझे घेरे रहते हैं जैसे इस विषय पर भी। अपने-आप में अथवा यथासम्भव अध्ययन के बाद भी जब किसी परिणाम पर नहीं पहुंची तो उन्हीं प्रश्नों को यहाँ आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया।
साहित्य अक्षम है,अधोगति को प्राप्त हो रहा है ...स्वीकार्य है पर, इससे उबरने के लिए कोई प्रयास भी हो रहे हैं या नहीं?
'जो बिकता है वही झपता है'....इसका उत्तरदायी है कौन साहित्यकार, प्रकाशक या समाज?
यदि 'दूसरों को पढ़ना पसंद नहीं' तो 'वरिष्ठ' कैसे हो जाते हैं...मेरी समझ से परे है।
आज बच्चे जो सुनते हैं उसके पीछे बड़ों की प्रेरणा की कमी अवश्य है।
आज का समय बहुमत का है,कई बार उत्कृष्टता की पहचान बहुमत के आधार पर होती है,न कि स्वच्छंद समालोचना के आधार पर...सोच का आलस्य।
क्षमा करें ज इतने सारे प्रश्नो का कारण मेरी अपरिपक्वता हैं।
सादर
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