For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

काश मैं अपनी बेटी का पिता होता...

मैं शब्दों के भार को तौलता रहा

भाव तो मन से विलुप्त हो गया|

मैं प्रज्ञा की प्रखरता से खेलता रहा

विचारों से प्रकाश लुप्त हो गया|

मस्तिष्क धार की गति तो तीव्र थी,

मन-ईश्वर का समन्वय सुषुप्त हो गया|

...

 

मैं ढल रहा था महामानव जैसा

मन की वेदना से उच्च थी

स्वयं की वंदना |

 

मेरे शब्द सितार के तार थे

पुस्तक की लय के लिए|

उनके पास समय न था,

किसी की विनय के लिए|

...

 

पदार्थवादी दंश मेरा जीवन था,

इस जीवन में,

आविर्भाव हुआ...

एक कन्या का - मेरी बेटी का|

 

ईश्वर की इस मंत्रश्रुति से,

मैं मंत्रमुग्ध हो गया,

मन-ईश्वर के संग्रंथन से,

भाव को संजीवन मिल गया|

 

 

अल्पप्राण - परिक्षीण विचारों

को मानो पीयूष मिल गया|

 

एक नयी कविता का जन्म हुआ|

....

 

मैं अद्भुत था,

वात्सल्यभाव पर परन्तु

मेरी परिणीता को संदेह था,

कहीं मैं ममता का विखंडन

कर इस कृति को

अपहस्त ना कर दूं |

 

मैं लज्जाशून्य नहीं था,

कई भावों को लील लिया|

....

 

मैं अपने प्राणाधार को

चन्द्रमण्डल के सोलहवें भाग

जैसा चाहता था...

........ क्षणजीवी विचार था|

प्रकाशगृह से निकल गया....

 

मेरी बाल-देवी लेकिन

पीठिका सी बन रही थी...

 

मैं शब्दों का शमन कर

श्वेतांशु सा मौन हो रहा था|

......

 

  

मैं जब भी अपनी सुता की

मंदस्मित चाहता,

 

किसी पोथी का पहला अध्याय

मेरा मार्गकंटक होता|

 

अंबरमणि विपर्यय को ही

उज्जवल कर रहा था|

 

हृदय खंडाभ्र सा अंशित हुआ

चेतन्य से मैं मुर्छित हुआ..

......

 

शब्दों में निपुण,

शब्दों के भार से दबा

मैं कितना शिथिल हूँ,

 

काश मैं केवल अपनी

बेटी का पिता होता...

चट्टान सा दृढ......

(मौलिक व अप्रकाशित) 

Views: 386

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on August 3, 2014 at 11:30am

आप सभी मित्रों का हार्दिक धन्यवाद्| आप सभी ने रचना को पढ़ कर जो भाव व्यक्त किये वो सत्य ही हैं और आप सभी के सुझावों को मैं अपने सिर-आँखों पर रख कर ग्रहण करता हूँ.... रचना चूँकि भाव प्रधान है.. और वास्तव में सांकेतिक है...कहा कुछ और गया है और इसका अर्थ कुछ और ही है...इसमें सामान्यीकरण नहीं है वरन विशिष्टीकरण है...इसलिए शायद उचित प्रस्तुतीकरण नहीं हो पाया| आप सभी का पुनः धन्यवाद्|


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 1, 2014 at 2:21pm

काल का एक-एक खण्ड अपने आपमें वैचारिकता का महासागर समेटे होता है. इसी वैचारिकता की गहनता को परख कर प्रकृति दायित्व निर्वहन की क्षमता से सबल करती है. किन्तु ऐसे किसी आवण्टित दायित्व के निर्वहन से मुँह मोड़ लेना प्रकृति के निर्णय का असम्मान ही नहीं उसके कार्य में दखल भी हुआ करता हुआ है. कर्तव्यच्यूत होना तो अत्यंत सरल है. किन्तु, यह सरलता किसी व्यक्ति को स्वयं उसी की दृष्टि में गिरा सकती है. ऐसी घड़ियाँ आत्मपीड़ा की कई बार पराष्ठा हुआ करती हैं. इन घड़ियों में एक मानस जैसी वैचारिकता के वशीभूत आत्मचर्चा करता है, उन्हीं निश्शब्द आत्मचर्चाओं से लिये गये शब्द हैं, आपकी इस प्रस्तुति में भाई चन्द्रेश कुमार छतलानीजी.

किसी संतति का जन्म हमारे हाथों में नहीं है. प्रक्रिया नियंत्रण का गहन कार्य प्रकृति करती है. उसका निर्धारण भी ! ऐसे में किसी जन्म को बाधित करना और समाज में व्याप्त विसंगतियों तथा विड़ंबनाओं को देखते हुए ग्लानिवत होना प्रस्तुत कविता की अंतर्धारा है. गहन है यह अंतर्धारा ! परन्तु, इस गहनता में संप्रेषणीयता की बहुत आवश्यकता हुआ करती है. अस्फुट स्वर श्रवणीय भले न हों किन्तु उनकी क्षमता पाषाण-हृदय को हिला देने की होती है. यह होती है संप्रेषणीयता !  वैसे, यह भी सही है कि रचनाकर्म के अनुसार उसके पाठक हुआ करते हैं. अतः सभी पाठक हरतरह की रचना का आस्वादन नहीं कर पाते.

फिरभी, आपकी रचनाधर्मिता का सम्मान करते हुए हमारी ओर से यही सलाह होगी कि रचना का विषय चाहे जो हो उसका प्रस्तुतीकरण बहुत मायने रखता है.
शुभेच्छाएँ

Comment by Amod Kumar Srivastava on July 29, 2014 at 8:38am

सुंदर भाव ... इस कविता के बारे मे अग्रजों ने जो भी कहा है ... हमारे और आपके हित मे ही कहा है ... बधाई स्वीकार करें ... सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 28, 2014 at 4:33pm

रचना अत्यनत गहन है   आदरणीय गोपाल सर की बातों से मैं भी सहमत हूँ ..इस रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 27, 2014 at 8:03pm

मित्र

आपको रचना के लिए बधाई तो देता हूँ  पर एक परामर्श भी है  i कविता इतना भी  सांकेतिक न हो कि उसमें  साधारणीकरण कम हो जाए  आपके प्रतीक, बिम्ब  सब अच्छे हैं परिसमे सांकेतिकता अधिक है , इससे इसके सुग्राह्य होने में संकट दीखता है i  

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय मिथिलेश भाई, निवेदन का प्रस्तुत स्वर यथार्थ की चौखट पर नत है। परन्तु, अपनी अस्मिता को नकारता…"
16 hours ago
Sushil Sarna posted blog posts
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार ।विलम्ब के लिए क्षमा सर ।"
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया .... गौरैया
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी । सहमत एवं संशोधित ।…"
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .प्रेम
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन पर आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभार आदरणीय"
Monday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .मजदूर

दोहा पंचक. . . . मजदूरवक्त  बिता कर देखिए, मजदूरों के साथ । गीला रहता स्वेद से , हरदम उनका माथ…See More
Monday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सुशील सरना जी मेरे प्रयास के अनुमोदन हेतु हार्दिक धन्यवाद आपका। सादर।"
Monday
Sushil Sarna commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"बेहतरीन 👌 प्रस्तुति सर हार्दिक बधाई "
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन पर आपकी समीक्षात्मक मधुर प्रतिक्रिया का दिल से आभार । सहमत एवं…"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन आपकी स्नेहिल प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय"
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service