"सुनती हो, देखा तुमने गुप्ता जी की बेटी आज दौड़ में फर्स्ट आयी है, देखो हर फ़ील्ड में अव्वल है और एक हमारी बेटी है, पास हो जाती है यही उसका एहसान है, मैं पहले ही कहता था कि जिस रास्ते पर चल रही है वो सही नहीं है| दिन भर बस पता नहीं क्या सोचती रहती है | पांचवीं में पढ़ती है और बैठी ऐसे रहती है जैसे 50 साल की बुढ़िया हो |" - मदन जी चिल्लाते हुए अपने घर में दाखिल हुए|
उनकी पत्नी तो जैसे ये वाक्य सुनने को आतुर बैठी थी, उसने भी चिल्लाते हुए जवाब दिया, "अब आपके खानदान की है, और क्या उम्मीद रखोगे, मंदबुद्धि और नालायकी के सिवा? "
मदन जी सर पकड़ कर बैठ गए| वो अपनी बेटी को हर क्षेत्र में आगे बढ़ाना चाहते थे, लेकिन उनके बस में कुछ भी नहीं था| उनकी पत्नी स्वभाव से क्रोधी थी, इसलिए वो कई मामलों में शांत रहते थे| कभी-कभी इस तरह बोलकर और फिर सर पकड़कर अपनी कुंठा बाहर निकालते|
उनकी बेटी सीतू अपने पिता का यह प्यार समझे ना समझे, यह ज़रूर समझ रही थी कि वो सबसे पिछड़ रही है| वो चुपचाप सी रहने लग गयी थी.. सबसे अलग और अकेली|
हर तरह से कोशिश कर मदन जी हार चुके थे| सीतू एक दिन मोबाइल पर कोई गाना सुनते हुए गुनगुना रही थी.. मदन जी ने यह देख कर जब भी समय मिलता तेज़ आवाज़ में प्रेरणादायक गीत चलाने शुरू कर दिए, ताकी उनकी बेटी सुन सके|
उस दिन 15 अगस्त था, हल्की बारिश भी थी| मदन जी अपनी बेटी को लेने उसके स्कूल चले गए| स्कूल के बाहर कीचड़ थी, उन्होंने देखा कि उस कीचड़ में कुछ प्लास्टिक के झंडे गिरे पड़े हैं| उन्हें देख कर बहुत दुःख हुआ| पता नहीं देश कहाँ जा रहा है...| अचानक उनकी आँखें फटी रह गयीं, एक ही क्षण में आंसू भी निकल आये, जब उन्होंने देखा कि बाकी सारे बच्चे बारिश से बचते हुए निकल रहे हैं, लेकिन उनकी बेटी सीतू अकेली उस कीचड़ में गंदे होने की परवाह किये बिना अपने हाथ डाल कर वो सारे झंडे बाहर निकाल रही है...
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय चंद्रेश जी,
नमस्कार। लघुकथा पर मेरी प्रतिक्रिया के प्रत्युत्तर में आपकी प्रतिक्रिया से अत्यंत प्रसन्नता हुई क्योंकि आपने मेरी प्रतिक्रिया को अन्यथा नहीं लिया। प्रिय मित्रवर लघुकथा एक बहुत ही अनूठी व प्रभावशाली विधा है और मैं इस विधा का बहुत पुराना विद्यार्थी हूं इसलिए शायद इसकी थोड़ी सूझ रखता हूं। कुछ एक विचार है जो मैं आपसे और इस मंच के सम्मानित सदस्यों से सांझा करना चाहता हूँः-
संक्षिप्ता, सूक्ष्मता एवं तीक्ष्णता लघुकथा की बुनियादी विशेषताएं हैं। अपने लघु आकार की बदौलत ही ये पाठक के मन-मस्तिष्क पर तीक्ष्ण व गहरा प्रभाव छोड़ती है। लघुकथा की एक सबसे विशिष्ट विशेषता इसमें ‘कथा तत्त्व’ का होना है। क्योंकि ‘कथा तत्त्व’ के बगैर लघुकथा का कोई अस्तित्व ही नहीं है। रचनाकार के इर्द-गिर्द रोज़ाना कई घटनाक्रम घटते हैं। उसे इन घटनाओं में से लघुकथा बनने योग्य घटना ही पहचान कर उसे जोड़-तोड़, कांट-छांट और अच्छी तरह तराश कर उसके छुपे ‘कथा तत्त्व’ को उभारना होता है। उसे घटना का विवरण नहीं अपितु विशलेषण प्रस्तुत करना होता है क्योंकि अपनी एकहरी संरचना की वजह से लघुकथा बहुपक्षीय विशलेषण करने की समर्थता नहीं रखती बल्कि किसी विशेष घटनाक्रम से प्रभावित रचनाकार के मन-मस्तिष्क में उठे सूक्ष्म प्रतिक्रम को ही कुशलता से उभार सकती है। बेशक घटनाक्रमा का चित्रण और पात्रों का आपसी वार्तालाप लघुकथा के ‘कथा तत्त्व’ को प्रगट करने में सहायक होता हैं परन्तु लघुकथा को संक्षिप्ता और संयमता की सीमा का पालन करना होता है इसलिए घटनाओं का विवरण एवं पात्रों का वार्तालाप अत्यंत संक्षिप्त और संतुलित होना आवश्यक है। सो लघुकथा में स्थिति चित्रण को पेश करने वाले अनावश्यक विवरण को काट-छांट कर उसके ‘कथा तत्त्व’ को उभारने वाले चित्रण पर ही ध्यानाकर्षण करना चाहिए। जिससे इसके शिल्प में कसावट और प्रभाव में तीक्ष्णता आती हैा
सादर ।
आदरणीय पवन कुमार जी, आपकी प्रशंसा के लिए ह्रदय से आभार|
आदरणीय रवि प्रभाकर जी, आपका विचार सर आँखों पर और आपका हार्दिक आभार जो आपने रचना को इतनी गहराई से पढ़ा, इसकी तह में जा कर इसके मर्म को पहचाना और फिर लेखन कला की दृष्टि से इसका इस स्तर पर विश्लेष्ण भी किया|
इस रचना को लिखते समय कई विचार आये जैसे कि यह रचना अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा अलग-अलग सोच के साथ दिशा भी ले ले | आप इस रचना को एक अभिभावक के तौर पर सोच सकते हैं और दूसरा कोई बच्चे के तौर पर.. आज जो पद्धति, जो संस्कार हम हमारे बच्चों को दे रहे हैं और बच्चे जिस दिशा में अग्रसर हो रहे हैं.. क्या वो उचित है? क्या हम उचित शिक्षा दे पा रहे हैं? क्या घरेलू वातावरण जो सभी की उन्नति में सहायक हो वो उत्पन्न हो पा रहा है? क्या सामंजस्य की प्रवृत्ति हिंसा पर हावी हो पा रही है? क्या विद्यार्थी केवल अच्छे अंक ला कर ही अच्छा बन सकता है? और भी कई सारे प्रश्न हैं, जिनका उत्तर भारतीय समाज को देना है.... हम देश भक्ति की बात करते हैं.... लेकिन मेरा अपना निजी अनुभव है, जब देश भक्ति निभाने की बात आती है... सबसे पहले बातें करने वाले भाग जाते हैं... ऐसी संस्कृति क्यों उत्पन्न हो रही है? कहीं ना कहीं कारण हम सब हैं..
तो यह सब बातें मस्तिष्क में थीं और जब लिखने बैठा तो कुछ अंश इस तरह के प्रश्नों का भी स्वतः ही आ गया.. आप सही कह रहे हैं, एक ही उद्देश्य को लेकर यह रचना शायद कम शब्दों में सम्पूर्ण हो जाती, लेकिन उद्देश्य एक से अधिक उस समय मस्तिष्क में थे, इसलिये शायद शब्दों में वृद्दि हो गयी | मैं कोशिश करता हूँ इसे सुधारने की|
अच्छी कहानी :)
आदरणीय,
अनावश्यक विवरण में शायद लघुकथा का मर्म स्पष्ट नहीं हो पाया, इसे बहुत कम शब्दों में लिखा जा सकता था। सादर ।
आदरणीय शुभ्रांशु पांडे जी, रचना की प्रशंसा के लिए आपका हार्दिक आभार|
आदरणीय डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी, आपकी प्रशंसा के लिए आपका ह्रदय से आभार
आदरणीय जीतेंद्र 'गीत' जी, रचना की प्रशंसा के लिए आपका हृदय से आभार|
आदरणीय राजेश कुमारी जी, आपने कहानी का मर्म सही पकड़ा, हम हमारे बच्चों में नैतिकता, राष्ट्र प्रेम एवं सुभावनाएं जागृत कर सकें, वो भी बहुत बड़ी बात, बाद में अपने बच्चे के विकास के अनुसार उन्हें जो कुछ बनाना है, बनायें| लेकिन अगर हम हमारी सोच उन पर थोपते रहेंगे तो उनके विकास में बाधक हैं|
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