मैं सबसे प्रेम करता था|
मेरे प्रेम को
एक मोबाइल कॉल की तरह अग्रेषित किया
मेरे अपनों ने ही
चमकते सिक्कों की ओर|
मेरे परिवार में मैं मूर्ख कहलाया |
मेरा लक्ष्य प्रेम था,
इसलिए मैं बन गया –
लक्ष्यहीन वाल्मिकी|
** मौलिक और अप्रकाशित
Comment
धन्यवाद् आदरणीय डॉ. प्राची सिंह, जी कहानी चल रही है.... जाने क्यों लम्बी होती जा रही है|
इस कविता के सन्दर्भ में सार्थक टिप्पणियां हुई हैं
आपकी कहानी का इंतज़ार रहेगा...
शुभकामनाएं
आप सभी आदरणीयजनों ने जो शुभकामनाये दी हैं, आप सबका हृदय से कोटिशः धन्यवाद| रचना (कहानी) सम्पूर्ण होते ही आप के आशीर्वाद के लिए पोस्ट करूंगा|
सुन्दर रचना के लिये आपको बधाई, आदरणीय !!
कथा शीघ्र पाठकों तक पहुंचे और प्रशंशा पाये इसी कामना के साथ हार्दिक बधाई , आदरणीय .
एक मार्मिक शुरुआत हुई आदरणीय चंद्रेश जी, आपकी पूर्ण कहानी हेतु बड़ी आतुरता है. शुभकामनायें स्वीकारें
आदरणीय coontee जी, आपने सही पहचाना, यह रचना अधूरी ही है|
एक कहानी लिख रहा हूँ... उसी का शीर्षक है - लक्ष्यहीन वाल्मिकी| उस कहानी का प्रारंभ इस रचना से करने की सोच है| इसका पूरा अर्थ तो कहानी में ही पता चलेगा, अभी लिखना चल ही रहा है|
महर्षि वाल्मिकी को अपने परिवार का त्याग करने के बाद एक लक्ष्य मिल गया था और उन्होंने वाल्मिकी रामायण की रचना कर दी, कहानी में भी ऐसा ही कुछ है... लक्ष्य को तरसता एक व्यक्ति है, जिसके परिवार में व्यक्ति से अधिक धन का महत्व है... वो परिवार का त्याग कर जीवन के लक्ष्य को ढूँढने निकला है....
आपकी शुभकामनाएं सिर-आँखों पर !!
आपकी रचना में आपकी भावनाओं का स्पष्टिकरण नहीं हुआ है आदरणीय.....रचना अधुरी सी लग रही है.....शुभकामनाएँ.
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