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मैंने ठीक किया जो जुमा को एक दिन की छुट्टी ली...सोचा कि अब्बा के साथ manendragarh में जुमा की नमाज़ अदा की जायेगी...
अब्बा कितने खुश हो रहे थे मुझे देख कर...जब मैंने कहा कि बी पी आपको हो नही सकती...अब्बा हंस दिए...तो क्या डॉक्टर की मशीन झूठी है...बेटा बहला रहा है...
मैंने देखा अब्बा कमज़ोर हो गए हैं...लेकिन अन्दर से कितने मज़बूत हैं अब्बा...
वाकई...अध्यापक रहे हैं वह...कितनो को पढाया है उन्होंने...मैं उन्हें पढ़ा सकता हूँ क्या...इत्ती सी ढाढस बंधाकर एक टेबलेट का असर तो उन्हे दिया ही जा सकता है...
अब्बा समझते हैं कि बेटा नौकरी से समय निकालकर आया है...
अब्बा वजू बना कर तैयार होते हैं...खादी का कमीज़-पायजामा और सर पर गांधी टोपी...नगर के खादी-भंडार से गाँधी जयंती के छूट के अवसर पर कपडे-टोपी खरीदते हैं अब्बा...
आलमारी से मजमुआ इतर निकल लाये और मुझे भी कपडे पर इतर लगाने को दिया...मजमुआ इत्र...कानपुर वाले इत्र-फरोश दीक्षित जी आते हैं तो इत्र बेच जाते हैं...ये खुशबु अब पुराने लोगों के पास ही मिलेगी...
अब्बा के साथ कदम मिलते मस्जिद की तरफ निकले तो लगा जब मैं बच्चा था तब इसी तरह उनके साथ जाता हूँगा मस्जिद...
दोपहर की धुप में अब्बा के उजले कपडे...
पवित्रता का अनोखा अहसास...
एक अधेड़ स्त्री पैर छूकर प्रणाम करती है...
अब्बा बताते हैं---"इसे पढाया हूँ...इसके बच्चों को भी पढ़ाया हूँ...!"
कोई उनका अभिवादन करता तो बताते---'बड़ा बेटा है....'
मैं खटाक से नमस्ते करता हूँ...
एकदम बच्चा बन गया हूँ...
मुझे याद आ रहे हैं वो दिन जब अब्बा के साथ निकलो तो सिमटे सिकुड़े चालू...मजाल कि चप्पल घिसटने की आवाज़ उभरे...अचानक अब्बा का आदेश...वकील साहेब आ रहे हैं...उन्हें नमस्ते करो...या मुंशी जी की पास पहुंचू तो उन्हें प्रणाम करना...
ऐसे ही संस्कार नही आया करते ज़िन्दगी में...

(मौलिक अप्रकाशित)

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Replies to This Discussion

आदरणीय सुहैल साहब.. . दिल भर आया. आँखें नम हो गयी. अचानक लिखे अक्षर-वाक्य धुँधले हो गये. संस्कार वाकई बस यों नहीं आ जाते. हर बुज़ुर्ग़ को बिल्ली-बिलौटा बन नन्हीं बिल्लियों को रास्ता दिखाना पड़ता है ! आपने बहुत आत्मीयता से आम ज़िन्दग़ी के एक-एक विन्दु को सहेज कर तह किया है. साहब, अंदाज़ का शफ़्फ़ाक़ होना ही था.


आपने जो तथ्य और विन्दु इस संस्मरण में उठाये हैं वे सुगढ़ समाज की नींव हैं. गंगा यों ही नहीं बहती उसके मायने हैं. जमुना यों ही अपनी समस्त धार लिये गंगा में घुल नहीं जाती उसके अपने अलहदे अर्थ हैं. इन धाराओं के इस मिलन-घुलन को नाम चाहे जो मिले, इनकी सात्विकता ही इनका मूल है. यही मूल इस धरती की ताक़त है जिसकी उपज पर कभी किसी को शक नहीं रहा है. भले गंगा या जमुना के किनारों पर अन्यमनस्कता के कारण जहाँ-तहाँ जब-तब खर-पतवार उग आते रहें. नाम उन खर-पतवारों का नहीं बल्कि धाराओं के मिलन-घुलन की सात्विक आत्मीयता का होता है. 
सादर

धन्यवाद सौरभ साहेब....

संस्कार एकदिन में नहीं आ जाते।जब तक बुजुर्गो का साथ होता है ,तब तक सीखते है।और यही वह धरोहर है ,जो हमें जीवन की जटिल,अँधेरी तथा पथरीली राहों में पथ प्रदर्शक बन उत्तम मार्ग पर चलने की राह दिखाती है।
अति उत्तम रचना है ,आपकी

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