उन्नीसवी शताब्दी में अवध के शिया शासक जो दिल्ली के मुग़ल बादशाहों के प्रतिनिधि थे और नवाब कहलाते थे उन्होंने दिल्ली दरबार की कमजोरी का लाभ उठाकर स्वयं को अवध का स्वतंत्र बादशाह घोषित किया और ‘शाह’ की उपाधि धारण की I अवध की राजधानी नवाब आस्फुद्दौलाह के समय में ही फ़ैजाबाद से स्थान्तरित होकर लखनऊ आ चुकी थी I अवध की बादशाहत कबूल करने वाले पहले नवाब गाजीउद्दीन हैदर थे, जिन्होंने शाहे अवध के रूप में 1819 से 1827 तक शासन किया I अवध के आख़री बादशाह वाजिद अली शाह (1847-1856) थे I चूंकि वाजिदअली शाह नवाब भी कहे जाते है इसलिए कुछ लोगो ने उनकी बादशाहत पर प्रश्न चिह्न भी खड़े किये हैं, पर इतिहास ने उसे स्वीकार नही किया I वाजिद अली शाह के समय रायबरेली जनपद के विख्यात शंकरपुर गढ़ के सामंत राना बेनीमाधव थे I राना को शंकरपुर गढ़ की तालुकेदारी अपने चाचा राजा शिवप्रसाद सिंह से प्राप्त हुयी I शिवप्रसाद सिंह की दो संतानें थी – एक पुत्री और दूसरा पुत्र फ़तेह बहादुर I फ़तेह बहादुर की अल्पायु में ही मृत्यु हो गयी I परिणामस्वरुप राजा शिवप्रसाद को उत्तराधिकारी हेतु अपने भतीजो पर विचार करना पड़ा I राजा साहेब के दो छोटे भाई थे –राम नारायन और शिवगोपाल सिंह I शिवगोपाल सिंह संभवतः निःसंतान थे, किन्तु राम नारायन के तीन पुत्र थे – बेनीमाधव, नरपति सिंह और जोगराज सिंह I इनमे बेनीमाधव सबसे बड़े और प्रतिभाशाली थे I तीर, तलवार और भाला चलाने में वे बेजोड़ थे I दंगल और अखाड़े में भी वे सबसे आगे थे I अश्व-संचालन की उनकी प्रतिभा अद्वतीय थी I उनके इन्ही गुणों पर रीझ कर राजा शिवप्रसाद ने उन्हें गोद लेकर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया I कालान्तर में तालुकेदारी की कमान हाथ में आते ही बेनीमाधव ने अपनी भू-संपत्ति का विस्तार तो किया ही एक अच्छी खासी सेना भी संगठित कर ली I बेनीमाधव का विवाह बाराबंकी जनपद के कमियार स्टेट की राजकुमारी चंद्रलेखा से हुआ I चंद्रलेखा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम रघुराज सिंह था I रायबरेली –उन्नाव रेलमार्ग पर स्थित रघुराजपुर रेलवे स्टेशन इन्ही के नाम पर है I बिहार के प्रसिद्ध क्रांतिकारी कुंवरसिंह की पुत्री का विवाह इन्ही रघुराज सिंह के साथ हुआ था I
बेनीमाधव ने अपनी शक्ति इतनी बढा ली कि उनके आस-पास के इलाकों के ताल्लुकेदार उनसे भय खाने लगे I इस समय बेनीमाधव के अधीन रायबरेली जनपद के चार प्रसिद्ध किले थे – भीखा, पुकबियाँ, जगतपुर और शंकरपुर I इससे उनकी हिम्मत इतनी बढ़ गयी कि उन्होंने शाह-ए- अवध के नाजिम को लगान देना बंद कर दिया और उसे मारकर भगा दिया I
”The Najim was not able to interfere with this powerful baron and could not enforce the payment of the revenue , when it fell into arrears .”
-RAEBARELI A GAZETEER , VOL. XXXIX , H.R. NEVIL .P 146
कालांतर में वाजिद अली शाह से बेनीमाधव की मित्रता हो गयी I परिणामस्वरूप नवाब ने उन्हें बैसवारा जनपद का नाजिम (प्रबंधक/प्रशासक) नियुक्त कर दिया I उस समय इस क्षेत्र में गांजर के तालुकेदार नवाब को लगान नहीं देते थे I बेनीमाधव ने बड़ी चतुराई और पराक्रम से अवध राज्य के लिए इन तालुकेदारों से राजस्व वसूल किया I इस असाधारण वीरतापूर्ण कार्य के लिये नवाब ने उन्हें ‘सिरमौर राना बहादुर’ की उपाधि से अलंकृत किया I
राना बेनीमाधव का व्यक्तित्व असाधारण था I वे सुगठित देहयष्टि वाले मझोले कद के वीर पुरुष थे I रोबीली दाढी, लम्बी नाक तथा निश्चयात्मक दृष्टि उनके व्यक्तित्व की शोभा थी I राना की देवी-भक्ति और देवी–सिद्धि दोनो ही इतिहास प्रसिद्ध है I कहा जाता है की बेनीमाधव युद्ध पर जाने से पूर्व देवी की आराधना करते थे और देवी स्वयम् प्रकट होकर उन्हें अपने हाथों से तलवार देती थीं I वाजिद अली शाह के कृपा-भाजन बनने पर जहां राना का सम्मान और गौरव बढा वहीं कुछ ईर्ष्यालु तालुकेदार उनके विरोधी भी बने I खजूरगाँव के रघुनाथ सिंह से ‘राना’ उपाधि को लेकर इनका झगडा भी हुआ किन्तु न्यायालय ने बेनीमाधव को ही इस सम्मान का अधिकारी माना I
11 फरवरी 1856 को अंग्रेजो ने वाजिदअली शाह को अपदस्थ कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया और निर्वासित कर मटियाबुर्ज, कलकत्ता भेज दिया I इस घटना ने बेनीमाधव को बहुत चोट पहुंचाई और वह अंग्रेजों से नफ़रत करने लगे I 1856 ई० में ही अंग्रेजों ने भू-राजस्व नया बंदोबस्त के अंतर्गत अवध के ताल्लुकेदारों की लगभग पचास प्रतिशत जमीन यह आरोप लगाकर हड़प ली की यह उनकी वास्तविक संपत्ति नहीं है और किसानो को दबाकर या जालसाजी द्वारा अर्जित की गयी है I इस घटना ने आग में घी का काम किया i अवध के सब जमींदार और ताल्लुकेदार अंग्रेजों के खिलाफ हो गए I खुद बेनीमाधव सिंह के 239 गाँवों में से 119 गाँव अंग्रेजो ने अपने अधिकार में कर लिये I यह दमन-चक्र यही नहीं रुका, बेनीमाधव से यह भी कहा गया कि 1 अक्टूबर 1856 से पूर्व वे अपने सारे किले और तोपें अंग्रेजो को सौंप दें I बेनीमाधव यह सुनते ही आग बबूला हो उठे और उन्होंने अंग्रेजों के समक्ष समर्पण करने से इनकार कर दिया I हालांकि अंग्रेजों ने बेनीमाधव को यह आश्वासन भी दिया की यदि वे समर्पण कर देते है तो उनके साथ हुयी ज्यादतियों पर फिर से विचार किया जायेगा I लेकिन बेनीमाधव को धोखेबाज अंग्रेजों पर ज़रा भी यकीन न था I अंग्रेज लेखकों ने अपनी राय जाहिर की है की राना ने अपने एक शरणागत रिश्तेदार को रक्षा का वचन दिया था इसलिए उन्होंने समर्पण नहीं किया I किसी का विचार है की राना के ह्रदय में कोई और ही बड़ी दृढ अनुभूति थी जिसने उन्हें डिगने न दिया I अंग्रेजो की बात न मानकर राना ने पुनः अपनी शक्ति विकसित की I उस समय सलोन , रायबरेली के अंग्रेज अधिकारी ने अपने सीनियर्स को सलाह दी कि इस समय राना को छेड़ना खतरनाक होगा और अभी इधर से ध्यान हटा लेना ही उचित है I यह राहत पाकर राना ने अपनी शक्ति और भी बढा ली I
लख्ननऊ मे क्रांति का सूत्रपात 30 मई 1857 की रात को हुआ I उस समय बेनीमाधव 15000 सैनिको और सहयोगी तालुकेदारों के साथ वहां उपस्थित थे I बेलीगारद, रेजीडेंसी और आलमबाग़ के युद्ध में राना की महत्वपूर्ण भूमिका रही I बेगम हजरतमहल ने इन युद्धों में राना के अद्वतीय पराक्रम से प्रभावित होकर उन्हे ‘दिलेरजंग’ का ख़िताब अत़ा फरमाया I मेजर-कैप्टन बीर भंजन मांझी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है –
“Talooqdar of Shankarpore of the Byswara disrtrict received the title of Dalair Jung from the rebel begum Huzurut Muhul who fought against the Bailee Guard and took a most prominent part in the rebellion throughout .”
-From a brief of Major_Captain Veer Bhanjhan Maanjhee
क्रांतिकारियों के अभूतपूर्व पराक्रम से कुछ दिनों के लिए लखनऊ पर बेगम का आधिपत्य हुआ I लखनऊ को यह अस्थायी आजादी दिलाने में राना बेनीमाधव की अहम भूमिका थी जिसके लिए बेगम ने राना को ‘खिलअत ‘ भी भेंट की थी I इस आजादी का लाभ उठाकर बेगम हजरतमहल ने राना की सहायता से 5 जूलाई 1857 को अपने 12 वर्षीय बेटे की ताजपोशी नवाब-ए- अवध के रूप में की I कहा जाता है की इस समारोह में अवध की प्रसिद्ध रक्काशा उमरावजान ‘अदा ‘ ने अपनी गजल पेश की थी I
राना बेनीमाधव अक्टूबर 1857 में अपने शंकरपुर दुर्ग के छतिग्रस्त भाग की मरम्मत में व्यस्त थे I उसी समय तिलोई के तालुकेदार ठाकुर प्रसाद अंग्रेजो से मिलकर नवाब बिरजिस कद्र के विरुद्ध हो गए I इतना ही नहीं उन्होंने अमावां के पठानों का किला जीतकर उस पर अपना अधिकार कर लिया I बिरजिस कद्र के विशेष अनुरोध पर राना ने ठाकुर प्रसाद को परास्त कर अमांवा का दुर्ग पठानों को वापस किया I मार्च 1858 में अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों का दमन कर लखनऊ पर पुनः आधिपत्य कर लिया I बेगम हजरतमहल बहराईच की और चली गई I राना को आदेश मिला कि वे बैसवारा वापस चले जांए I बेनीमाधव ने इस आदेश का अनुपालन किया और 10,000 सैनिको की एक सुदृढ़ सेना संगठित की I लखनऊ पर नए सिरे से आक्रमण करने के पूर्व राना ने सर्वप्रथम स्वाधीनता के नाम पर अनेक पर्चे छपवाए और उन्हें लखनऊ जनपद के कोने-कोने में बंटवाया I इसके बाद उन्होंने विज्ञप्ति प्रसारित की की नगर में रहने वाले समस्त भारतीय नगर छोड़ दें क्योंकि शीघ्र ही फिरंगियों पर उनका प्रचंड आक्रमण होने वाला है I
“ A threat now emerged from the south , an oudh talukdar (land owner) named beni madho issued proclamations warning to inhabitants of Lucknow to evacuate the city as he was preparing to attack it .
-BATTLES OF THE INDIAN MUTINY, MICHAEL EDWAD ,P . 139
राना की इस घोषणा से अंग्रेज दहल उठे I यदपि इस चुनौती में राना विशेष सफल नहीं हुए पर उन्होंने अंग्रेजों को अत्यधिक छति पहुंचाई I जिला न्यायाधीश, कानपूर द्वारा कैप्टन म्यूर को प्रेषित तार दिनांक 25 अप्रैल 1858 के अनुसार राना ने छापामार आक्रमणों के बल पर लखनऊ तथा कानपुर के बीच ग्रैंड ट्रंक रोड को बुरी तरह आतंकित कर रखा था I राना जैसे दुर्धर्ष शत्रु को समाप्त करने का दायित्व अंग्रेज सेनापति होपग्रांट पर था I अवसर पाकर 12 मई 1858 को होपग्रांट ने सेमरी के मैदान में रांना की सेना पर आक्रमण कर दिया किन्तु होपग्रांट को पराजित होकर भागना पड़ा I इस घटना को लोक कवि दुलारे ने इस प्रकार अमर कर दिया है –
“पहिल लड़ाई भइ बक्सर माँ सेमरी के मैदाना
हुआँ से जाय पुरवा माँ जीत्यो तबै लाट घबराना
अवध माँ राना भयो मरदाना”
इसी बीच 5 जून 1858 को प्रख्यात क्रांतिकारी मौलवी अहमदउल्लाह शाह का निधन हो गया I इसके प्रभाव से क्रांतिकारी गतिविधियाँ कुछ थम सी गयीं I अंग्रेज भी गर्मी से व्याकुल थे I अतः कुछ झडपों के अलावा विद्रोह लगभग शांत रहा I किन्तु अब बेनीमाधव को नेस्तनाबूद करने का दायित्व अंग्रेज सेना के कमांडर –इन- चीफ कालिन काम्पबेल को सौंपा गया I इन्ही काम्पबेल को उसकी विजयों और उपलब्धियों के लिए 1860 में लार्ड क्लाईड की उपाधि मिली थी I 5 नवम्बर 1858 को उदयपुर कैम्प से मुख्यालय के राजनैतिक प्रतिनिधि मेजर बैरो ने राना के पास एक पत्र और अंग्रेज साम्राज्ञी विक्टोरिया के घोषणा पत्र की नक़ल भेजी जिसमे राना के पूर्व अपराधो को छमा करने का आश्वासन देते हुए राना को संधि करने हेतु आमंत्रित किया गया था I दूसरी और काम्पबेल के नेतृत्व में एक गुप्त और संगठित योजना बनायी जा रही थी जिसके अनुसार राना के शंकरपुर किले को तीन और से घेरकर उस पर सामूहिक आक्रमण करना मुख्य था I जो दिशा छोडी गयी उधर सई नदी बहती थी और घना कंटीला जंगल था, अतः उधर से ससैन्य एवं सपरिवार राना का भाग पाना संभव नहीं समझा गया I काम्पबेल ने होपग्रांट को आदेशित किया कि वे राणा के उत्तर की प्रतीक्षा के साथ ही साथ सई नदी के समानांतर चलकर शंकरपुर गढ़ पहुंचे I इधर काम्पबेल स्वयं सलोन से डलमऊ जाने वाले मार्ग पर केशवपुर होते हुए शंकरपुर की और बढा I शंकरपुर से लगभग तीन मील पहले ही बिछ्वारा ग्राम के निकट रूककर काम्पबेल ने किले की उत्तर-पूर्व दिशा की और मोर्चा बनाते हुए किले को घेर लिया I ब्रिगेडियर इल्वे को निदेशित किया गया कि वे उत्तर पश्चिम की और से शंकरपुर दुर्ग का घेराव करें I
“ He had been instructed by Lord Clyde to move on Shankarpur , the strong hold of Beni Madho Baksh , but orders have been received too late .”
- UNNAO A GAZETTEER, OL. XXXVIII, H.R.NEVILL,P.138
राना के बेटे रघुराज सिंह का एक पात्र अंग्रेजो को 15 नवम्बर 1858 की रात में मिला जिसमें लिखा था कि मुझे आप श्रीमन का एक परवाना मिला है और उसके साथ घोषणा-पत्र (साम्राज्ञी विक्टोरिया का )जिसके अनुक्रम में मैं कहना चाहता हूँ कि मैं पहले इस गाँव का काबिलियंतदार था और अभी भी उसी स्थिति में हूँ और यदि अंग्रेज सरकार ऐसा ही बंदोबस्त मेरे लिए जारी रखेगी तो मैं अपने पिता बेनीमाधव को निकाल दूंगा I वे बिरजिस कद्र के पक्ष में हैं किन्तु मै अंग्रेज सरकार का वफादार हूँ और मैं अपने पिता के फेर में नष्ट नहीं होना चाहता I
“I have received Your Excellency’s a purwannah and with it the proclamation, I beg to say that I was formerly cabeeliantdaar of this village and am still in the possession of the same and if the government will continue the settlement with me I will turn out my father Bainie Madhoo . He is on the part of Birjies kuddr, but I am loyal to the British Government and do not wish to be ruined for my father’s sake .”
- THE HISTORY OF INDIAN MUTINY , VOL. II , CHARLES BAL, P. 538
इस पत्र ने अंग्रेजों को चक्कर में डाल दिया i वह इस पर विश्वास करें या न करें I साम्राज्ञी विक्टोरिया के घोषणा-पत्र के कारण जोखिम कोई भी उठाने को तैयार न था I अभी वह कोई निर्णय लें तभी राना बेनीमाधव का पत्र भी उन्हें मिला I राना ने लिखा था –“ इसके बाद किले की रक्षा कर पाना मेरे लिये असम्भव है I इसलिए मैं किले का परित्याग कर रहा हूँ, किन्तु मैं आत्मसमर्पण कभी नहीं करूंगा क्योंकि मेरा वजूद मेरा नहीं बल्कि मेरे बादशाह का है I” राना बेनीमाधव का पत्र लाने वाला अंग्रेजों का जासूस था I उसने बताया की इस समय भी राना के पास 4000 सैनिक, 2000 घोडे तथा 40 तोपें थी I इस सूचना से अंग्रेज अधिकारी स्तब्ध रह गए और उनकी सेना में भय की लहर दौड़ गयी I किन्तु यह सूचना सत्य प्रतीत नहीं होती I यदि राना के पास इतनी सेना होती तो वह युद्ध अवश्य ही लड़ते I उनका किला भी मजबूत नहीं रह गया था और सुरक्षा की दृष्टि से उसमे तमाम खामियां थी I
“The fort was a huge one some eight miles circumference but its defense were incomplete and full of gaps and Beni Madho who was a solider of ability knew he could not held it .”
-THE SEPOY REVOLT , Mc LEOD INNES, P. 266
उक्त स्थिति मे राना के लिए अंग्रेजों से युद्ध करना आत्म घात करने जैसा था I सौभाग्य से ब्रिगेडिअर इल्वे देर से आदेश मिलने के कारण शंकरपुर समय से नहीं पहुँच सके और राना को भागने का अवसर मिल गया I वे अपनी सेना, कोष, परिवार तथा असबाब सहित कब किले से बाहर निकल गए काम्पबेल और मेजर बैरो को पता तक न चला I 16 नवम्बर 1858 की प्रातः अंग्रेजो को पता चला के राना दुर्ग से निकल भागने में सफल हो गए हैं I इस समाचार से अंग्रेजों में निराशा छा गयी I अंततः शंकरपुर का ऐतिहासिक किला नेस्तनाबूद कर दिया गया I
शंकरपुर से निकल कर बेनीमाधव एवं उनका परिवार पुरई के घने जंगलो से होता हुआ डौडियाखेडा (उन्नाव) की और बढा I रास्ते में ब्रिगेडियर इवले की सेना से भीरा गोविंदपुर के पास उनकी मुठभेड़ हुयी, पर वह राना का रास्ता रोक नही सका i आगे सेमरी में मेजर मिल की सेना से राना की मुठभेड़ हुयी I उसको परास्त कर राना पुरवा गए और वहां के अंग्रेज-भक्त तालुकेदार को दण्डित किया I यही से परिवार को सुरक्षा व्यवस्था के साथ अपनी ससुराल कमियार-स्टेट, बाराबंकी के लिए रवाना किया और स्वयं बेगम से सम्पर्क करने के लिए प्रयत्नशील हो गए I किन्तु अंग्रेज बराबर उनके पीछे लगे थे I राना को लखनऊ तक पहुँचने में कठिन संघर्ष करना पड़ा और उन्हें अंग्रेजों से कई छापामार युद्ध करने पड़े I अंततः राना सरयू नदी के किनारे वासुदेव घाट के समीप झाऊ के जंगलों में हुयी गुप्त-सभा में बेगम हजरतमहल से मिले I इस सभा के बाद खोजनीपुर ग्राम (फैजाबाद ) के पास राना और कर्नल हंट की सेना में संघर्ष हुआ ,जिसमे हंट की सेना पराजित हुयी और स्वय कर्नल हंट राना बेनीमाधव के हाथों मारा गया I इधर कम्पबेल राना के पीछे पड़ा था I किन्तु बहराईच जनपद में राना ने काम्पबेल और उसकी सेनाओं को बहुत छकाया I अंगरेजी सेनाये राना के इन्तेजार में कई कई दिनो तक जंगलों में मुस्तैद रहती पर राना किसी छलावे की भाँति उनकी पकड़ से दूर रहते I अंग्रेज सैनिक निराशा और हताशा में राना का नाम लेकर प्रायः निम्नांकित गीत गाते -
“Where have you been to all the day
Benee Madho, Benee Madho !
Trying to keep, Sir, out of the way ,
Very bad O ! Very bad O !
Why so shy of British pluck
Benee Madho, Benee Madho !
Because to beat isn’t my luck
That’s very sad O ! very sad O !
-HOW I WON THE VICTORIYA CROSS , T.H. KAVANAUGH,P. 216
काम्पबेल 26 दिसंबर 1858 को नानपारा (बहराईच )से चुर्दा की और बढा I यहाँ उसे ज्ञात हुआ कि राना, नाना साहेब पेशवा और बेगम हजरतमहल की संगठित सेनायें मस्जिदिया के किले में उपस्थित हैं I काम्पबेल ने इसे किले पर भी चढाई की पर तब तक क्रान्तिकारी वहां से निकल चुके थे I अंग्रेजी सेना 31 दिसंबर 1858 को क्रांतिकारियों के पड़ाव के पास पहुँचने में कामयाब हुयी I उस समय क्रान्तिकारी सेनाएं बांकी के जंगलों में दो सड़कों के बीच स्थित थी I इनमें से एक रास्ता राप्ती नदी की और जाता था और दूसरा नेपाल मे स्थित सूनर घटी की ओर I यहाँ राप्ती नदी के तट पर क्रांतिकारियों की संगठित सेना से अंग्रेजो का अंतिम युद्ध हुआ जिसमे अंग्रेज सेना के प्रसिद्ध कमांडर मेजर हॉर्न मारे गए I वे राप्ती नदी की तीव्र धारा में संभल नहीं सके और वही डूब गए I इस युद्ध के बाद राना, नाना साहेब और बेगम सहित सभी क्रन्तिकारी अपनी सेना व सहायकों सहित नेपाल के जंगलों में विलीन हो गए I
नेपाल जाने के बाद राना के सम्बन्ध में विरोधाभासी सूचनायें मिलती रही I किसी ने मलेरिया से ग्रस्त होकर उनके मरने की बात की i किसी ने कहा वे नेपाली सेना से लड़ते हुए मारे गए I किम्वदंती यह भी है की वह वेश बदल कर अपने वतन और शंकरपुर वापस आये थे I किन्तु इस सम्बन्ध में अंग्रेज इतिहासकार राबर्ट मांटगुमरी मार्टिन ने अंग्रेज पत्रकार एवं इतिहासकार विल्लियम हावर्ड रसेल के पत्र “दि टाइम्स”, 21 जनवरी 1860 के हवाले से बताया की नेपाल नरेश राणा जंग बहादुर की सेना सेलड़ते हुए राना बेनीमाधव मारे गए I भारत सरकार ने इसे सत्य मानते हुए राना को अमर शहीद घोषित किया I उनके सम्मान में राजकीय शिलालेख शंकरपुर में सम्प्रति विद्यमान है I राना शहीद हुए या उनकी स्वाभाविक मृत्यु हुयी इस पर बहस हो सकती है पर बैसवारा ही नहीं पूरे अवध में आज भी वे अमर है I सत्तावनी क्रान्ति के सम्बन्ध में जब भी अवध का जिक्र होगा राना बेनीमाधव बख्श का नाम सदैव श्रृद्धा और सम्मान से लिया जायेगा I
ई एस -1/436 , सीतापुर रोड योजना कालोनी
अलीगंज , सेक्टर-ए , लखनऊ
मोबा. 93 75 51 85 86
(मौलिक व् अप्रकाशित)
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आ० मिथिलेश जी
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