“दोनों ही पक्ष आये हैं तैयारियों के साथ, हम गर्दनों के साथ हैं वो आरियों के साथ”। कवि डॉo कुंवर बेचैन की ये पंक्तियाँ बरबस ही याद आ गयी जब जंग और केजरीवाल के फरमानों ने दिल्ली की धड़कनों को बेकाबू कर दिया। राजधानी में ये हलचल आज से नहीं बल्कि आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक जीत के उपरान्त, चंद दिनों के अंदर ही पार्टी में तू-तू मैं-मैं का माहौल खूब सुर्खियों में रहा और वो माहौल ठीक से थमा भी न था कि दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर पैदा हुआ टकराव बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होने के साथ ही अहम की लड़ाई से देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था प्रभावित हुयी जो कि सुशासन के लिए शुभ संकेत नहीं है। अरविंद केजरीवाल सरकार और उपराज्यपाल नजीव गंज के बीच विवाद की स्थिति तब उत्पन्न हुई जब मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के निर्देश पर उनके प्रधान सचिव ने सभी विभागों को पत्र लिखकर कहा कि दिल्ली विधानसभा को सौपे गए विभागों से संबन्धित फाइलें उपराज्यपाल के पास भेजना नहीं है बस इसी एक निर्देश ने विवाद को तूल दिया। तत्पश्चात उपराज्यपाल नजीव जंग को मुख्यमंत्री कार्यालय का यह कदम रास नहीं आया और इसके पश्चात उन्होने दिल्ली सरकार के सभी अधिकारियों को सख्त निर्देश जारी किए कि वे पिछले हफ्ते मुख्यमंत्री की तरफ से दिये गए आदेशों को माना ना जाये और सभी फाइलें उपराज्यपाल के कार्यालय को भेजी जाएँ बस इसी पलटवार ने आग में घी का काम किया जिसमें लोकतन्त्र व्यवस्था सबसे ज़्यादा प्रभावी हुई और राजनीति के मंच पर संवैधानिक संकट आ खड़ा हुआ।
इस खुल्लम खुल्ला जंग की आशंका के बादल तभी छाने लगे थे जब कुछ माह पूर्व आम आदमी पार्टी ने प्रचंड बहुमत से जीत दर्ज की थी, लेकिन आशंकाओं के ये बादल ओलावृष्टि के रूप में इतनी जल्दी दिल्ली की जनता पर कयामत ढाएँगे इसका अंदाज़ा ना था। ज़ाहिर है उसी समय से हर शख्स के अंदर इसी भय को लेकर अंतर्द्वंद चल रहा था और उस दिन से केंद्र में भाजपा सरकार और दिल्ली में आम आदमी की सरकार यानि कि सरकार और उपराज्यपाल के रिश्ते सहज नहीं हुये जिसकी परिणति आज पूरा देश देख रहा है। बेहद शर्मनाक है कि अहम की इस लड़ाई ने और एक दूसरे को कमजोर करने के मंतव्य ने सारे कायदे, नियम और कानून खूटी पर टांग दिये। मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल जैसे गरिमामयी पदों को सुशोभित करने वाले केजरीवाल और नजीव जंग दोनों ही भलीभाँति अवगत हैं इस बात से कि सविधान में दिल्ली को अभी तक पूर्ण राज्य का दर्जा तक प्राप्त नहीं है तदेव दोनों ही महानुभाव वाकिफ भी हैं अपने अपने अधिकार और कर्तव्य से। फिर भी उपराज्यपाल जिस अफसर की नियुक्त करते हैं वो मुख्यमंत्री को पसंद नहीं और जो मुख्यमंत्री को पसंद है वह उपराज्यपाल को पसंद नहीं है। पसंद नापसंद की साक्षी बनीं शकुंतला गैमलिन जिनको दिल्ली का कार्यवाहक मुख्यसचिव नियुक्त किया गया था। दिल्ली के मुख्यसचिव के.के.शर्मा के निजी यात्रा पर अमेरिका चले जाने से अपजा ये विवाद अब राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तक पहुँच गया।
उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच बढते विवाद के मद्देनजर राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने केंद्र सरकार से सलाह मांगी, ऐसे में जनता की भावनाओं को ध्यान में रखकर केंद्र सरकार चुप्पी न साधे बल्कि बेवाकी से संवैधानिक हदें स्पष्ट करे। हालांकि केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति के मंतव्य पर अटार्नी गनरल से बात की जिससे जनता के सामने संवैधानिक स्थिति स्पष्ट हो सके। सविधान दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार अधिनियम और कामकाज से जुड़े नियमों से साफ़तौर पर परिभाषित होता है कि नीतिगत मुद्दे पर फैसले लेने का, अधिकारियों की नियुक्ति और स्थानंतरण का फैसला लेने का संवैधानिक निर्णय लेने का अधिकार उपराज्यपाल के पाले में ही जाता है। इसके बावजूद भी दोनों तरफ से अपने अधिकारों की सीमा पार नहीं की जानी चाहिए ।
विशुद्ध राजनीति की बात करने वाली और जनता में उम्मीद, विश्वास और आशाओं के बीज बोने वाली आम आदमी पार्टी अपनी बुनावट और प्रतिवृद्धता में दूसरे दलों से भिन्न नज़र आयी जिसके वजह से दिल्ली की जनता नें सर आखों पर बैठा लिया। दिल्ली के मुख्यमंत्री का अब फर्ज़ बनता है कि वो जनता के उस विश्वास को सूद समेत वापस करें । मुख्यमंत्री जैसे गरिमामयी पद का मान रखते हुये और अहम को परे करते हुये संवैधानिक दायरे में रहकर कुशल नेतृत्व का परिचय दें। कूटनीति की भेंट चढ़कर जनता की आँखों की किरकिरी ना बने। चूंकि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त नहीं हैं। ऐसी स्थितियों में प्रशासक उपराज्यपाल ही होता है जिसका फैसला अंतिम होता है। इन्हीं सब तथ्यों और कर्तव्यों को समझते हुये रस्सा-कस्सी जैसी विचित्र स्थिति पैदा न होने दे। दिल्ली की जनता मुख्यमंत्री के लिए सर्वोपरि होनी चाहिए। येन-केन-प्रकारेण दिल्ली का विकास ही एकमात्र लक्ष्य रखना होगा। शह-मात के इस खेल में संवैधानिक संकट यदि ज़्यादा गहराया तो दोनों पक्ष सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े खट-खटा रहे होंगे। इस पूरे व्यूह रचना में दिल्ली की जनता बहुत बढ़े पैमाने पर छली जाएगी जिसमें उसका कोई कसूर नहीं। कुछ भी हो दोनों पक्षों को यह बात ध्यान में रखना होगा कि उनकी बचकानी हरकतों से जनता पिस रही है।
अहम और अधिकारों की लड़ाई का सुखद अंत तभी हो सकता है जब संवैधानिक दायरे में रहते हुये अपने-अपने अधिकारों का निर्वहन करें न कि उसको अहम की बलि चढ़ने दें। गौरतलब है कि कोई भी विवाद इतना बड़ा नहीं है कि दोनों गरिमामयी पदों के अहम टकराकर सवैधानिक मर्यादाओं का उल्लघन किया जाय, सविधान में प्रदत्त अधिकारों के प्रति निष्ठा रखते हुये अपनी सवैधानिक प्रणाली में आस्था रखें।
(लेखिका आराधना संस्था की महासचिव हैं)
मौलिक एवं अप्रकाशित
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दिल्ली की जनता जिस उम्मीद के तहत वोट डाल आयी थी. उस प्रयास पर अनुभवहीन और अहंकारी सिस्टम कैसा पानी फेर रहा है यह देखने और चौंकने की ही बात है. आपने तो उसे शाब्दिक कर महती काम किया है.
दिल्ली राज्य को सामान्य राज्य मानने की भूल करना ही इस विवाद की जड़ है जिसे संविधानविद व्याख्या कर हल करेंगे. अब इस पर भी कोई न माने तो उसे क्या कहा जा सकता है ? इस क्रम में निवर्तमान मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का बयान महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान मुख्य मंत्री जितनी जल्दी दिल्ली संचालन की सीमाओं को समझ और स्वीकार कर लें उतना ही दिल्लीवालों का भला होगा.
वस्तुस्थिति से परिचित कराते इस तथ्यपरक लेख के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीया हृदयेशजी.
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