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बढ़िया दर्शन से भरपूर रचना प्रदत्त विषय पर , बधाई आपको
आदरणीय ओमप्रकाश जी, संस्कार और संकल्प की जुगलबंदी पर बढ़िया वार्ता. हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर.
आदरणीय ओमप्रकाशजी, आपकी लघुकथा का अर्थ बहुत गहरा है. मनुष्य के मन के साथ-साथ उसके शरीर का भी एक विशेष धर्म होता है. सामान्य दशा में शरीर की अवस्थाओं पर मन और इसकी वृत्तियाँ प्रभावी होती हैं. शरीर की अवस्थाओं से इतर मन और वृत्तियों के साध सकने वाले विशिष्ट पुरुष होते हैं जो परमहंस की श्रेणियों के हुआ करते हैं. परन्तु, सत्यान्वेषियों के लिए हर तरह का वर्तमान सत्य है. जो कुछ व्यतीत हो रहा है वही सत्य का आभास है तथा उसकी अनुभूतिजन्य व्याख्या पारिस्थिक उपलब्धि ! इस तथ्य को आपने कम शब्दों में इतनी गहनता से कहा है कि मुझे नहीं मालूम कितनों ने इसे हृदयंगम किया होगा.
ऐसी गहन प्रस्तुति केलिए मैं हृदयतल से आपको धन्यवाद देता हूँ.
सादर
आदरणीय सौरभ जी पाण्डेय जी आप ने बहुत ही सुन्दर ढंग से लघुकथा के मर्म को समझा दिया. सत्य वही है जिसे जानने की आवश्यकता अनादी काल से चली आई है. जिस ने समझा वह समझ कर महात्मा हो गया. फिर वह सत्य से परे हो गया. सत्य शरीर के तल से हो कर आत्मा के तल जा कर आत्मा और परमात्मा के शिखर तक पहुँच जाता है.....आप की इस सह्रदयता व समीक्षात्मक टिपण्णी के लिए आप का आभारी हूँ.
आदरणीय ओमप्रकाशजी, आपकी प्रस्तुति पर आपको मेरी टिप्पणी सार्थक लगी इस हेतु हार्दिक धन्यवाद ..
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