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आदरणीय चन्द्रेशजी, आपकी प्रतिक्रिया मुझे हार्दिक रूप से आश्वस्त कर रही है कि मेरा प्रयास रुचिकर हुआ है.
शुभ-शुभ
प्रस्तुति को पसंद करने केलिए सादर आभार नीताजी.
वही जगह, वही मौसम, वही फूल, किसी के होने पर अच्छे लगते हैं और न होने पर काटने को दौड़ते हैं. बहुत ही बारीकी से लघुकथा की बुनावट की गयी है, अच्छी लघुकथा प्रस्तुत हुई है आदरणीय सौरभ भईया, बहुत बहुत बधाई.
भाईगणॆश जी, आप लघुकथा के मर्म को जिस गहराई से समझते हैं वह हम सभी के लिए आश्वस्ति है. आपसे शिल्पगत अनुमोदन पाना उपलब्धि है. हार्दिक धन्यवाद, भाई
खुशियों के रंग विलुप्त हो गए नायिका के तो उसे कहाँ से फूलों में रंग दिखाई देंगे जीवन पूरा करना जैसे औपचारिकता भर रह गया हो |
दिल छू गई ये लघु कथा हार्दिक बधाई आदरणीय सौरभ जी| दो दिन से पूना में थी अभी दो घंटे पहले ही मुंबई लौटी हूँ इस बार आयोजन में ठीक से हिस्सा नहीं ले पाई अभी भागते दौड़ते अपनी लघु कथा भी पोस्ट की है तथा सबकी पढने की कोशिश कर रही हूँ जो बचेंगी संकलन में ही पढ़ पाऊँगी |
आदरणीया राजेश कुमारीजी, आप प्रस्तुति पर आ पायी और अपने बहुमूल्य विचार साझा कर पायीं, यही मेरे लिए आश्वस्ति है.
सादर धन्यवाद
आपदरणीय वीरेन्द्रवीरजी, आपसे मिला अनुमोदन मुग्ध कर गया है. हार्दिक धन्यवाद
रंग
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सदा हॅंसते रहने वाले रवि को देर तक फोन पर किसी पुराने मित्र से बड़ी मस्ती भरी बातें पूरी करते करते अचानक बहुत सीरियस हो जाने पर सुनीता ने पूछा,
‘‘ क्या बात है? फोन पर तो बड़ा रंग बरसा रहे थे अब अचानक क्या हुआ? कौन था या थी?‘‘
रवि जैसे तन्द्रा से जाग गया हो, सुनते ही बोला,
‘‘ ओह सुनीता! सब तारतम्य बिगाड़ दिया, तुमने तो रंग में भंग ही कर दिया।‘‘
‘‘अच्छा! तो क्या मैं जान सकती हॅूं कि यह भंग हो जाने वाला रंग किसका था?‘‘
‘‘ अरे! यूनीवर्सिटी में पढ़ते समय एक सुंदर गीत के कारण हुई दोस्ती याद आ गयी और वे रंगीले दिन भी। अनेक वर्षों बाद आज फोन पर उससे बात हुई , लग रहा था जैसे बाॅटनी गार्डन में मित्रमंडली के साथ बैठा वह वही गीत सुना रहा है।‘‘
‘‘ तो क्या तुम मुझे वही गीत सुनाते हुए अपनी उन्हीं यादों को फिर से ताजा नहीं कर सकते? ‘‘
‘‘ मैं तुम्हें गीत के केवल बोल ही सुना सकता हॅूं, लय और तान का गायक तो वही है, मैं तो श्रोता ही रहा हॅूं हर समय।‘‘
‘‘ चलो वही सुना दो, रंग तो वापस आये‘‘
‘‘ बुंदेली में गाये उस गीत के बोल हैं,
....."पिया मोय भूल जिन जैयो, पिया मोय बिसर जिन जैयो,
मोरी चुरियन के रखवारे मोरे ऐंगर रैयो, पिया मोय.... ‘‘
ये लाइनें सुनते ही सुनीता अपने स्कूल के दिनों में खेले गये नाटक ‘‘ढोला मारु‘‘ की याद में खो गई जिसमें ‘ढोला‘ बनी उसने, अपने पति ‘मारु‘ बने सहपाठी ‘ज्ञान‘ को रिझाने के लिये यही गीत गाया था और अभिनय इतना आकर्षक बना था कि साथ पढ़ने वाले लड़के/लडकियाॅं उन्हें पति पत्नी कहकर चिढ़ाने लगे थे, जिससे तंग आकर दोनों ने एक दूसरे से बात न करने और भविष्य में कभी न मिलने की कसम खाई थी।
सुनीता को सीरियस देख रवि ने ताना दिया,
‘‘क्या बात है? कहाॅं खो गईं?‘‘
सुनीता अपनी भाव भंगिमा छिपाते हुए बोली,
‘‘कुछ नहीं ! गीत में प्रेमिका के भय मिश्रित संदेह को कितनी अच्छी तरह मेरी बुंदेली भाषा में प्रकट किया गया है, बस मैं तो यही सोच रही थी, लेकिन तुम अचानक उदास क्यों हुए?‘‘
‘‘इसलिये कि मैंने अनेक बार उसे अपने घर बुलाकर सहपाठियों के साथ उसके गीतों का आयोजन करने का प्रस्ताव दिया पर किसी न किसी कारण से वह टालता गया और अब, मेरे उस मित्र ‘ज्ञान‘ ने अमेरिका जाकर वहीं बसने का निश्चय कर लिया है‘‘
यह सुनते ही रंगहीन हुई स्तब्ध सी सुनीता, एक ओर तो मन ही मन ज्ञान को अपनी निरर्थक कसम देने के लिये क्षुब्ध थी और दूसरी ओर उसकी सात्विक वचनबद्धता के प्रति कृतज्ञता भरे रंग की परत से, आॅंखों में छलकने को उत्सुक आॅंसुओं को रोकने का प्रयत्न कर रही थी।
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