आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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आदरणीय नयना जी प्रदत्त विषय पर सुंदर लघुकथा का सृजन हुआ है। हार्दिक बधाई लेकिन क्षमा सहित कई स्थानों पर मात्रिक त्रुटियां प्रवाह को बाधित करती हैं ,जैसे :
निंबू(नींबू ) अचार ,अपने आँचल से कोरो(कोरों ) दामाद जी वापसी कि जल्दी मचा रहे है(हैं). आओ! आज सब कुछ तुम्हारी पसंद का बनाया हैं(है). भरमा बैगन(बैंगन),
किंतु उसकि(उसकी) की(-) जिव्हा तो
भरे नेत्रो(नेत्रों) से
ये शायद टंकण त्रुटियां हैं देख लीजिएगा। ये मात्र मेरा निजी विचार है इसे कृपया अन्यथा न लेवें।
आ. सुशील सरना जी आभार आपका गलतियों को इंगित करने के लिए.टंकण त्रुटियओं को संकलन मे अवश्य सुधार करुँगी.
हलवे से घी निकलते ही उद्देश्य पूरा हो गया, वाह वाह, क्या खुबसूरत कथानक पर काम हुआ है, अच्छी लघुकथा हुई है आदरणीया नयना जी, बहुत बहुत बधाई.
आ.गणेश बागी जी रचना पर आपकी पसंदगी से उत्साहित हूँ.धन्यवाद आपका.
आदरणीया आपकी रचना पर कल टिप्पणी दी थी , मगर नेट की गड़बड़ या किसी तकनीकी कारण से गलत थ्रेड में चली गई। आप मेरे लिए एक कष्ट कीजिए और उसे खोज कर एक निगाह अवश्य डालिए। मुझे मिली तो यहाँ कॉपी पेस्ट कर दूंगा।
आ.प्रदीप जी मुझे भी कही नही मिल रही आपकी टिप्पणी.कृपया आप अपनी टिप्पणी पुन: प्रेषित करे.सादर निवेदन
आदरणीय नयना जी , आपकी कथा पर शुरू में थोड़ा अटका मगर फिर एक सांस में पढ़ गया। क्या ही अच्छा होता भाई भाभी का व्यवहार उस दिन कुछ ज्यादा ही कृत्रिम दर्शाया होता या हिंट दिया होता कि उन्होंने माँ की सेवा ढंग से नहीं की और अब सम्पत्ति के कागज़ों पर हस्ताक्षर कराने को मरे जा रहे हैं। हलवे का घी शीर्षक का शाब्दिक अर्थ भी समझने में अटका हूँ। हाँ कागज़ों पर लिखे ' स्नेह ' शब्द ने बहुत प्रभावित किया। अगर यह बहन का नाम है तो समझो हस्ताक्षर करके भाई को शर्मिंदा कर दिया कि ले मैं सब समझती हूँ मगर फिर भी तेरी तरह दौलत को रिश्तों से ज्यादा अहमियत नहीं देती। लेकिन अगर यह बहन का नाम नहीं तो यह और भी चमत्कारी शब्द है जो भाई को कह रहा है संपत्ति का क्या करेगा बहन का स्नेह ले ले। इसका दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि वह भाई के षड्यंत्र को समझ स्नेह शब्द लिखती है और जताती है कि मेरी तरफ से स्नेह देना बंद नहीं होगा। कई बार लेखक ने इतना नहीं सोचा होता , जितना पाठक सोच लेता है। मानेंगी न , लेखक से पाठक बड़ा होता है। बहरहाल सुंदर रचना के लिए बधाई।
आ. प्रदीप जी रचना की पहली पंक्ति मे मैने माँ के कष्टों का जिक्र किया है. हा ये बात सही है कि मैं इसे सहज ढंग से संप्रेषित नहीं कर पाई. संकलन मे इसमे सुधार कर लूँगी. " हलवे का घी" से तात्पर्य यहाँ भाभी द्वारा अपना काम निकालने हेतू बहन की मनपसंद का खाना ( तर घी का हलवा) बनाने से है. स्नेह का अर्थ आपने खूब लगाया. इसे पाठक पर छोड दिया था( लघुकथा का अनकहा) आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी से मन प्रफ़्फ़ुलित हुआ.धन्यवाद आपका
यानि घी का हलवा था शीर्षक ?
नहीं नहीं "घी का हलवा" नही "हलवे का घी "ही था."हलवे से निकलता तर घी"--मतलब हस्ताक्षर के लिये आवभगत करने का षडयंत्र. रचना की ये पंक्ति पढिए "आ जाओ बहना! खाना तैयार है. दामाद जी वापसी कि जल्दी मचा रहे है. आओ! आज सब कुछ तुम्हारी पसंद का बनाया हैं. पुलाव, भरमा बैगन, आटे-गुड का तर घी हलवा."
आदरणीय नयना जी , आपकी कथा पर शुरू में थोड़ा अटका मगर फिर एक सांस में पढ़ गया। क्या ही अच्छा होता भाई भाभी का व्यवहार उस दिन कुछ ज्यादा ही कृत्रिम दर्शाया होता या हिंट दिया होता कि उन्होंने माँ की सेवा ढंग से नहीं की और अब सम्पत्ति के कागज़ों पर हस्ताक्षर कराने को मरे जा रहे हैं। हलवे का घी शीर्षक का शाब्दिक अर्थ भी समझने में अटका हूँ। हाँ कागज़ों पर लिखे ' स्नेह ' शब्द ने बहुत प्रभावित किया। अगर यह बहन का नाम है तो समझो हस्ताक्षर करके भाई को शर्मिंदा कर दिया कि ले मैं सब समझती हूँ मगर फिर भी तेरी तरह दौलत को रिश्तों से ज्यादा अहमियत नहीं देती। लेकिन अगर यह बहन का नाम नहीं तो यह और भी चमत्कारी शब्द है जो भाई को कह रहा है संपत्ति का क्या करेगा बहन का स्नेह ले ले। इसका दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि वह भाई के षड्यंत्र को समझ स्नेह शब्द लिखती है और जताती है कि मेरी तरफ से स्नेह देना बंद नहीं होगा। कई बार लेखक ने इतना नहीं सोचा होता , जितना पाठक सोच लेता है। मानेंगी न , लेखक से पाठक बड़ा होता है। बहरहाल सुंदर रचना के लिए बधाई।
स्वार्थ पर टिके मानवीय संबंधों की बहुत सुन्दर रचना आ.नयना जी,
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