आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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हार्दिक बधाई आदरणीय चंद्रेश जी!प्रदत्त शीर्षक से पूर्ण न्याय करती एक बेहतरीन प्रस्तुति!आप की लघुकथा बेहद संवेदनशील और हृदय स्पर्शी है!क्या समाज में ऐसे लोग भी हो सकते हैं!मन सोचते ही काँपने लगता है!पुनः बधाई!
सादर आभार आदरणीय तेजवीर सिंह जी सर, लघुकथा का यह प्रयास आपको ठीक लगा और उस पर अपनी टिप्पणी द्वारा आपने मेरा उत्साहवर्धन किया|
रचना को पसंद करने और उस पर अपनी टिप्पणी द्वारा मेरे उत्साहवर्धन हेतु बहुत-बहुत आभार आदरणीया अर्चना त्रिपाठी जी| शायद प्रतीक अधिक गूढ़ हो गये, अंतिम पंक्ति में यह कहने का प्रयास किया था कि उनसे क्या पाप हुआ और अर्धविकसित मस्तिष्क को पाल रहे हैं, इसे प्रायश्चित का प्रतीक बताने का प्रयास किया था| सादर,
आदरनीय चंद्रेश जी बहुत ही सुंदर व सशक्त अभिव्यक्ति. बधाई आप को .
लघुकथा के इस प्रयास पर अपनी टिप्पणी द्वारा मेरे उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीय ओमप्रकाश क्षत्रिय जी सर|
आप का बड़प्पन को सलाम आदरनीय चंद्रेश जी
लघुकथा के इस प्रयास पर अपनी टिप्पणी द्वारा मेरे उत्साहवर्धन के लिए और विश्लेषण कर मुझे राह दिखाने के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीय वीर मेहता भाई जी|
लघुकथा के इस प्रयास पर अपनी टिप्पणी द्वारा मेरी हौसला अफजाई के लिए तहे दिल से शुक्रिया आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी साहब| //उन्होंने देखा कि ज़मीन पर बिखरा हुआ ज़हर बिलकुल पन्द्रह साल पहले की उस नीम-हकीम की दवाई की तरह था// इसमें यह कहने का प्रयास था कि, था तो ज़हर ही लेकिन वह देख कर प्रबल के पिता को पन्द्रह साल पुरानी दवाई की याद आ गयी, जिसे पिलाने के बाद उनकी पुत्रवधु की मृत्यु हो गयी और बच्चे का मस्तिष्क अर्धविकसित रह गया| जी, अंत में प्रतीकों के माध्यम से मैं यही कहना चाह रहा था कि, प्रबल का पिता अब अपने पोते को पालकर प्रायश्चित कर रहा है|
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