ताटंक छंद (16, 14 पर यति, अंत मे तीन गुरु)
कोयल वसन्त ऋतु की रानी,
सात सुरों की ज्ञाता है
गाती है जब अपनी धुन में,
मन मधुरस हो जाता है।।
दिखने में है काली लेकिन,
लगती कितनी भोली है
स्वर्ग लोक से सीखी इसने
मिसरी जैसी बोली है।1।
आम्र कुंज में उड़ती फिरती,
लुक छिप लुक छिप जाती है
पकड़ पास सब रखना चाहें
पर यह तो शर्माती है।।
भोरहरी में कूक सुनाकर
हमको रोज जगाती है
त्याग करों तुम बिस्तर का अब
बात बड़ी बतलाती है।2।
सुनकर बोली इसकी ही तो,
फूल सदा मुस्काते हैं
पंचम सुर का आहट पाकर,
राही भी रुक जाते हैं।।
काश! बोलते कोयल सा हम,
सबके प्यारे हो जाते
डाँट कभी ना हमको पड़ती,
चाहे जितना चिल्लाते।3।
मौलिक व अप्रकाशित
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बहुत बढ़िया शब्द-मोतियों की माला। बढ़िया सम्प्रेषण। हार्दिक बधाई आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप जी।
आद0 शेख शहज़ाद उस्मानी जी सादर अभिवादन। रचना पर आपकी उपस्थिति और बहुमूल्य प्रतिक्रिया से पोषित करने पर हृदय तल से आभार
बहुत बेहतरीन बाल रचना भाई सुरेन्द्र जी बधाई हो
आद0 डॉ भैया सादर अभिवादन। आपकी बाल कविता पर उपस्थिति और सराहना के लिए कोटिश आभार
बहुत बढ़िया शैली में रोचक और गुनगुनाने योग्य ताटंक छंदों के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और आभार आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी।
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