(1). आ० महेंद्र कुमार जी
मेरा नाम जोकर
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"मेरी, मरीना और मीनू! एक आदमी की तीन प्रेमिकाएँ और तीनों का नाम एक ही अक्षर से शुरू!" सर्कस के मालिक महेन्द्र ने रिंग मास्टर से कहा। "हाँ, पर आप अपने आप को भूल रहे हैं।" रिंग मास्टर ने चौथे इत्तिफ़ाक़ की तरफ़ इशारा किया।
अब तक राजू जोकर का आख़िरी करतब शुरू हो चुका था, पर उसकी निगाहें अब भी दरवाज़े की तरफ़ लगी हुई थीं। "मैडम जी मुझे बहुत मानती हैं।" उसने मन ही मन कहा।
"ये मेरा आख़िरी खेला है मैडम जी। मुझे यकीन है आप ज़रूर आएँगी।" डेविड ने राजू का ख़त पढ़ने के बाद अपनी पत्नी मेरी की तरफ़ बढ़ाया और कहा, "लगता है तुम्हारा स्टूडेण्ट अभी भी तुमसे प्यार करता है?" डेविड की बात ने मेरी के चेहरे पर गर्वीली मुस्कान ला दी। उसने झट से डेविड को गले लगा लिया। दोनों एक दूसरे को बेतरह चूमने लगे। इस बीच जोकर का वो पुतला जिसे राजू ने ख़त के साथ भेजा था, न जाने कब मेरी के हाथ से छूट कर उसके क़दमों तले पहुँच गया और वो बेदर्दी से उसे कुचलती रही।
"मरीना ने भले ही मुझसे कभी कुछ नहीं कहा पर मैं जानता हूँ वो मुझे चाहती थी।" राजू की आँखें मरीना को ढूँढ रही थीं।
रूस में राजू का ख़त पाते ही मरीना परेशान हो गयी। उसकी अभी हाल ही में शादी हुई थी। घर परिवार भी अच्छा था और पति भी। वो नहीं चाहती थी कि उसकी हँसती-खेलती ज़िन्दगी में कोई नयी समस्या खड़ी हो और वो फिर से सर्कस में पहुँच जाए। इसलिए उसने राजू के ख़त को चुपचाप जला कर जोकर के पुतले को सड़क किनारे लगे कूड़े के ढेर में फेंक दिया।
उधर जनता राजू की तरफ़ देख रही थी मगर राजू दरवाज़े की तरफ़। "मेरे जितना प्यार मीनू को कोई नहीं कर सकता। मेरा ख़त मिलते ही वो दौड़ी चली आएगी।"
पर मीनू अब टॉप की हीरोइन बन चुकी थी। प्यार-मुहब्बत जैसी बातें उसके लिए दकियानूसी थीं और राजू जैसे मामूली जोकर से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध उसके स्टेटस के ख़िलाफ़। इसलिए डाकिये ने जैसे ही राजू जोकर का नाम लिया उसने तुरन्त कहा, "मैं राजू नाम के किसी भी आदमी को नहीं जानती।" डाकिया जैसे ही मुड़ा बंगले का कुत्ता डाकिए के हाथ से ख़त और जोकर के पुतले को छीन कर भाग गया। थोड़ी ही देर में उस कुत्ते ने ख़त के साथ-साथ उस पुतले को भी चीर-फाड़ कर रख दिया।
राजू जोकर का आख़िरी खेला ख़त्म हो चुका था मगर तीनों में से कोई भी नहीं आया। सर्कस का पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। जोकर रो रहा था और दुनिया हँस रही थी। राजू ने आख़िरी बार चारों तरफ़ घूम कर देखा और फिर वहीं दम तोड़ दिया। ज़मीन पर उसके गिरते ही दर्शक और ज़ोर-ज़ोर से ताली बजाने लगे। वो इस बात से बेख़बर थे कि जोकर का तमाशा ख़त्म हो चुका है।
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(2). आ० आसिफ ज़ैदी जी
गाँव का घर
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शकुंतला देवी और शांतिनाथ जी बहुत ख़ुश थे, अपने गांव के घर आते ही सारे आस पड़ोसी आ गए, कोई पानी ले आया, कोई चाय, तो कोई गुड़ की डली लिए मुंह मीठा कराने चला आया, बल्कि पड़ोस में रहने वाली गेंदा बाई तो शकुंतला देवी से गले मिलकर फूट फूट कर रो पड़ीं.. सामने वाले चंदू काका शांतिनाथ जी का हाथ, हाथ में लेकर फ़ौरन गांव की चौपाल की ओर चल पड़े.. पुराने मित्रों से मिलाने जो चौपाल पर बैठ कर ताश पत्ती से साथ हाथ, दहला पकड़,रमी इत्यादि में खेती से रिटायर्ड या निपट कर ख़ाली समय काटते और वहीं पेड़ की छांव में दिन भर गुज़ार देते.. हंसी मज़ाक हुक्का-पानी,बीड़ी,तंबाकू चाय सब वही चला आता कुछ लोग तो खाना भी वहीं मंगा खा लेते मिलजुल कर...किस्सा अल मुख़तसर ये के... शांतिनाथ जी ने खेती-बाड़ी करके बाद में अधिक ज़रूरत के चलते खेत बेच दिए और उन रुपयों से बच्चों को पढ़ाया लिखाया डॉक्टर,ऑफ़िसर बनाया और शहर में ही रहने लगे दोनों बेटों की शादी के बाद दो घर हुए.. अलग अलग होकर और बड़े हुए.. फिर शहर की हाई सोसायटी के नियम क़ायदे भी मुसल्लत हुए बड़े घर की बेटीयां बहूऐं हुईं.. ताने बाने शुरू..जिस घर जाओ.. बड़े बड़े घरों में तन्हाई गला घोंटती रहती फुटबॉल की तरह कभी इधर कभी उधर उछाल दिए जाते.. जल्दी समझ आ गया बड़े बड़े घरों में ज़्यादा जगह नहीं होती सो चले आए अपने गांव वो तो अच्छा हुआ गांव का मकान निशानी के तौर पर..नहीं बेचा दोनों बेटों ने हर्जा ख़र्चा भेजने की ज़िम्मेदारी ले ली.. आते ही लगा जैसे गाँव में नहीं मां बाप के की छाँव में बल्कि उनके पाँव में आ बैठे...
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(3). आ० कनक हरलालका जी
आखिरी दौरा
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राखी को आज फिर दौरा पड़ा था । करीब दो अढ़ाई वर्ष हो गए थे यह सिलसिला शुरू हुए .। मध्यम वर्गीय परिवार था रमा का । पति पत्नी ,एक लड़की ,दो लड़के ,। खाता पीता घर , मधुर स्वभाव , हाउसिंग सोसायटी में फ्लैट , पड़ोसियों से अच्छा मेल मिलाप ।
तभी एक दिन राखी के स्कूल से फोन आया था । उसको पहला दौरा पड़ा था । घर लाकर अच्छे से अच्छा डॉक्टर दिखाया गया ।कुछ दिनों नर्सिंग होम में भी रखा गया ।सभी पास पड़ोसी मिलने आए ,सहानुभूति प्रकट की । डॉक्टर की सलाह पर स्वास्थ्य बर्धक फल ,पथ्य की व्यवस्था रखी गई । सब ठीक हो रहा था कि चार महीने बाद फिर राखी को वही मिरगी का दौरा पड़ा । फिर वही क्रम ....।
धीरे धीरे दो महीने चार महीने से दौरों का क्रम चलने लगा । ईलाज के पैसे कमाई के पैसों पर भारी पड़ने लगे । अच्छा मुहल्ला छोड़ कर स्तरहीन मोहल्ले में एक कमरे का छोटा सा घर लेना पड़ा । दोनों लड़कों के स्कूल भी सार्वजनिक हो गए जहाँ से वे पढ़ाई से ज्यादा असंस्कृत वार्तालाप ज्यादा सीख कर आते थे । खाना दाल रोटी में सिमट गया ।
डॉक्टर ने कह दिया कि इस का इलाज तो नहीं है और कि कोई भी दौरा आखिरी दौरा हो सकता है ।
पिछले कई दौरों से रमा को अब यही आस हो गई थी शायद यह दौरा वही आखिरी दौरा हो ....!!!!
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(4). आ० अनीता शर्मा जी
मोह
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अनुश्री को अनाथालय आये आज दो साल हो गए, एक महीने की थी तब रेल के डिब्बे में रोती हुई मिली थी । तभी से वो इस आश्रम में है । अनुश्री की तोतली बोली और मासूमियत ने सब का मन मोह लिया था ।
आज ही विदेशी दम्पति का अनुश्री को गोद लेने का अनुरोध भी स्वीकृत हो गया था । आज अनुश्री का इस आश्रम में आखिरी जन्मदिन है, यही सोच सब का मन भारी था ,साथ ही उसका खुशहाल भविष्य सोच सब उसके लिये खुश भी थे ।
अनुश्री तो नये कपड़े और खिलौने लिये सारे मोह बंधन तोड़ नये माता पिता के संग जाने को तैयार थी ।
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(5). आ० मनन कुमार सिंह जी
मोह
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डॉक्टर की बातों के जवाब में वर्मा जी कहने लगे-
-हाँ साहब, मुझे पुरानी चीजों से लगाव है।चाहे यादें हों,या पुस्तकें,पन्ने आदि।
-मसलन?
-मैं यदा-कदा यह निर्णय ही नहीं कर पाता कि किन यादों को स्मृति-पटल से खुरचकर मिटा देना चाहिए या कौन किताब या पन्ना अपनी अलमारी से बाहर करूँ,कौन रखूँ।
-मतलब ,आप दुविधाग्रस्त रहते हैं।
-जी।
-और पुरातनता से संबद्ध भी रहना चाहते हैं।
-जी।पर कभी-कभी अपने इस लगाव के चलते पश्ताचाप भी होता है कि मैं अनावश्यक तौर पर अनचाही चीजों में फँसकर खुद को परेशान कर लेता हूँ।
-जी, जहां तक मैं समझता हूँ,आप बीती बातों में खोए रहते हैं।चाह कर भी अनचाही चीजों का परित्याग नहीं कर पाते हैं।हालाँकि आप वैसा करना चाहते हैं।और अपनी ऐसी प्रवृत्ति के चलते आप पछताते भी हैं।उद्विग्न भी हो जाते होंगे शायद।
-जी बिलकुल।जब मन की बात नहीं कर पाता हूँ,तब उद्विग्नता बढ़ जाती है।
-तो देखिये, मैंने शुरुआत में बताया था कि बैच थेरेपी में कारण का निवारण किया जाता है।इसमें शारीरिक तकलीफ को कम महत्व दिया जाता है।
-जी सर,मैं समझ गया हूँ।
-तो आपकी भूत के प्रति चाहे-अनचाहे आग्रह के लिए 'हनी सक्कल', त्याज्य-अत्यज्य में भेद न कर पाने के लिए 'स्क्लेरेन्थस', अपनी करनी पर पश्ताचाप करने या वैसी स्थिति के लिए खुद को दोषी मानने के लिए 'पाइन' और चूँकि आप चाहते हैं कि आपके स्वभाव में शामिल ये बुराइयाँ छू मंतर हो जाएं,इसलिए आपको 'क्रेब एप्पल' दे रहा हूँ।चार-चार बूँदें दिन में चार बार लें।
-जी।
-हाँ,भूत का मोह दुविधा पैदा कर रहा है,जिससे आप अनिर्णय की दशा में आ जा रहे हैं।और फिर पश्चाताप के चलते आप उद्विग्नता को प्राप्त हो रहे हैं।आप पैर की उँगली की खुजली पर ध्यान मत दें।वह आपकी इस तरह की मनःस्थिति का परिणाम है।चली जायेगी।
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(6). आ० तस्दीक अहमद खान जी
देश प्रेम
सुबह सुबह चाय पीते हुए अमर सिंह अपने एकलौते बेटे राजेश से कहने लगे "बेटा मुझे तुम्हारी माँ के साथ अमेरिका आए क़रीब दो महीने हो गए हैं l अब हम वापस घर हिन्दुस्तान जाना चाहते हैं, हमारा टिकिट बुक करवा दो"
यह सुनते ही राजेश को एक झटका सा लगा, वो फौरन कहने लगा "आप ऎसा क्यूँ बोल रहे हैं, यहाँ क्या परेशानी है"
अमरसिंह फ़िर बोलने लगे," बेटा यहाँ सब आ राम है, तुम्हारे सिवा हमारा कौन है, लेकिन हमें यहाँ अच्छा नहीं लगता, तुम और बहू ऑफिस चले जाते हो, खाली घर में हमारा वक़्त नहीं कटता है"
राजेश फ़िर अपनी बात कहने लगा, "गाँव में बिजली नहीं आती, पानी की परेशानी, कोई अस्पताल नहीं, वहाँ आप लोगों का कौन खयाल रखेगा?"
अमरसिंह चाय का प्याला टेबल पर रखते हुए बोले," वहाँ मेरा घर है, ख़ुद मुखतारी है, प्यार करने वाले लोग हैं जो हमारा ख़याल रखेंगेI"
इतना सुनते ही राजेश की आँखों में आँसू आ गए, वो फ़ौरन माता और पिता जी के पैरों से लिपट कर कहने लगा," आपकी यही मर्ज़ी है तो आज ही मैं टिकिट का रिज़र्वेशन कर वा दूँगा, मगर राजेश की आँखों के आँसू साफ़ साफ़ कह रहे थे कि पुत्र मोह से बड़ा है देश प्रेम l
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(7). योगराज प्रभाकर
बीजमंत्र
साकिब ज़िद पकड़ कर बैठा था कि इस बार अपने बूढ़े पिता फजलुर्रहमान को अपने साथ शहर लेकर ही जाएगाI लेकिन उसके पिता गाँव छोड़ने को हरगिज़ तैयार नहीं थेI फजलुर्रहमान कुछ देर पहले ही अपनी नाव से मछली पकड़ कर लौटे थेI
"तो क्या सोचा आपने अब्बू?" साकिब ने टोकरियों में मछलियाँ भर रहे पिता से पूछाI
कतार में खड़े बगुलों के के आगे छोटी-छोटी मछलियाँ डालते हुए वे बोले,
'इन मासूमों को बेसहारा छोड़कर चला जाऊँ? मेरे बाद कौन ध्यान रखेगा इनका?"
बगुले अपने-अपने हिस्से की मछली चोंच में दबाए ख़ुशी-ख़ुशी वहाँ से रवाना हो गएI फिर टोकरी से एक बड़ी सी मछली निकालकर एक बहुत ही वृद्ध महिला को देते हुए कहा,
"लो बड़ी बी!"
वृद्धा दुआएँ देती हुई वहाँ से निकल गईI "ये बेचारी विधवा है, इसके आगे पीछे कोई नहीं...
जाल में मछलियाँ निकाल कर उन्हें टोकरों में भरने वाले छोटे-छोटे बालकों को उनका पारिश्रमिक देते हुए वे बोले, "अब तुम ही बताओ कि इन सबको छोड़कर..."
पिता की बात काटते हुए साकिब बोल पड़ा,
"लेकिन अब्बा ये पुण्य के काम तो आप शहर में भी कर सकते हैंI"
"बेटा, बात वो नहीं हैI"
"तो बात आखिर है क्या? बताइए तो सहीI" साकिब के स्वर में झुंझलाहट के भाव थे.
साकिब के सर पर स्नेह भरा हाथ रखते हुए वे भावुक स्वर में बोले,
"बात ये है बेटा, जैसे तुम अपने बाप को अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहते वैसे ही मैं भी अपने बाप को छोड़कर नहीं जा सकताI"
"आपका बाप? मैं कुछ समझा नहीं अब्बाI"
फजलुर्रहमान ने उँगली से इशारा करते हुए भावुक स्वर में कहा,
"वो समुद्र देख रहे हो? बचपन से ही इसने मुझे और मेरे खानदान को पाला हैI अब इस बुढ़ापे में इसे अकेला छोड़कर चला गया तो मुझे पाप नहीं लगेगा?"
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(8). डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
(मोह
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‘साला कवि बनेगा ? भाट बनेगा ? बाप न मारी मेंढकी बेटा तीरंदाज i अबे कविता करेगा तो खाएगा क्या ? जिन्दगी भर बाप की ही छाती पर मूंग दलेगा I सोचा था कि बेटा बड़ा हो गया है I कुछ मेरी मदद करेगा i मगर इसे तो कविताई सूझी है I काम का न काज का दुश्मन अनाज का I’ बूढा बाप चीख रहा था i उसने अपने बेटे की कविता की कापी फाड़ कर डस्टबिन में डाल दी i बेटे की हालत ऐसी थी कि जैसे उसका बाप मर गया हो I किसी रचनाकार को उसकी रचना से कितना मोह होता है, यह उसके बाप को शायद नही पता था I लडके की माँ स खड़ी रो रही थी I उसे समझ में नहीं आ रहा था की इस परिस्थिति में वह किसका पक्ष ले I
लडका कुछ देर तक आँख में ज्वालामुखी लिए खडा रहा फिर उसने अपने को कमरे में बंद कर लिया I उसके पिता क्रोध के आवेश में बाहर चले गए I माँ ने लाख कोशिश की पर बेटे ने कमरे का दरवाजा नहीं खोला i सुबह से शाम हुयी I शाम से रात हुयी i बेटा भूखा प्यासा कमरे में बंद रहा I पिता का पारा नीचे गिर चुका था I पर बेटे ने उनकी भी नहीं सुनी I निदान दम्पति को इस आशा में कि शायद सुबह तक सब ठीक हो जाए, भूखे ही लेटना पड़ा I
‘तुमने गुस्सा किया चलो ठीक I पर तुमने उसके कापी क्यों फाड़ दी ?’-पत्नी ने पूछा I
‘वह तो गुस्से में --? मगर क्यों इससे से क्या आफत आ गयी ?
‘आफत ही समझो I तुम्हे बेटे से प्यार नहीं है ?’
‘क्या बात करती हो I वह तो मेरे जिगर का टुकडा है i उसने खाना नही खाया I गुमसुम पड़ा है I मुझे तो बड़ा पछतावा हो रहा है I ‘
‘पछतावा हो रहा है क्योंकि हम उसे प्यार करते है i हमने उसे जन्म दिया है I पैदा किया है I ‘
‘हाँ I’
‘तब भी बात तुम्हारी समझ में नही आयी I उन कविताओं को उसने जन्म दिया था I उनका माता-पिता सब कुछ था वह और तुमने पूरी कापी फाड़ दी I उसकी संतान का क़त्ल कर दिया तुमने I’
अचानक कुछ खटपट हुयी i दम्पति ने सास रोकर देखा i बेटे ने कमरे की लाईट जलाई थी I फिर वह दबे पाँव बाहर आया और डस्टबिन उठाकर अपने कमरे में ले गया i फिर वह सेलो टेप से कापी के फटे हुए पन्ने बड़े यत्न से जोड़ने लगा I अवसर पाकर माँ भी कमरे में चली गईं I उसने बेटे को गोद में भर लिया –‘ चल मेरे लाल कुछ खा ले फिर यह करना I’
‘नही माँ, जब तक मेरी कापी फिर से बन नहीं जाती, मैं न खाऊंगा और न पियूंगा I’
बेटा अपने काम में फिर लग गया i इतने में उसके पिता भी आ गए I कुछ देर तक वह स्थिति का जायजा लेते रहे I फिर वह भी सेलो टेप लेकर पन्नों को जोड़ने में लग गए I बेटे ने पिता की ओर कृतज्ञ भाव से देखा i दोनो के चेहरे पर मुस्कान की हल्की रेखा फ़ैल गयी I
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(9). आ० मोहन बेगोवाल जी
मोह
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बस वृधाश्रम खुलने से जहाँ बुज़ुर्ग अब घर के कोने से होने की जगह यहां आकर रहने लगे हैं हमारे शहर में भी बाहर एक वृधाश्रम खुल गया है आज कॉलिज के स्टूडेंट्स की इस आश्रम में विज़ट रखी गई है तांकि ये जानकारी प्राप्त की जा सके कि बजुर्गों का कैसे समाजिक पुनर्वास हो रहा है ।समाज और सरकार इस में क्या योगदान पा रही और पा सकती है।
जैसे जैसे हमारे देश में उम्र बढ़ रही है साथ बुजुर्गों की गिनती बढ़ती जा रही है गाड़ी आ कर वर्धाश्रम के सामने आ कर रुकी स्टूडेंट्स बस से उत्तर कर वृधाश्रम की तरफ़ बढ़ने लगे और गेट के पास बने आफ़िस के पास आ कर स्टूडेंट्स खड़ गए।
स्टूडेंट्स के साथ आये रविंद्र दफ़्तर में दख़ल हुआ और कुछ देर बाद वहाँ के सुपरवाइजर के साथ बात चीत करता बाहर आ कर, स्टूडेंट्स को बताने लगा "प्रधान जी की कोशिश से ये वृधाश्रम तैयार कराया गया है । यहां रहने के लिए तीस बुजुर्गों का प्रबंध है एक साथ रहने से इन की अकेले पन की समस्या दूर हो जाती है। बुजुर्गों की ज्यादातर जरुरतों का ध्यान रखा गया है। फर्स ऐसे बनाए गए कि उनके फिसलन की संभावना न हो ।
मैस के साथ ही एक कमरे में टी वी लगा हुआ है। , बाहर लान है, सुपरवाजर ने इशारा करते हुए कहा कुछ कुर्सी भी रखी हुई हैं ।
जब वह ये सब कुछ बता रहा था। तब स्टूडेंट्स भी अपने कुछ सवाल पूछते जा रहे थे।
जब सभी लोग कमरा नंबर पचीस के पास पहुंचे तो लगा स्टूडेंट्स के सभी सवाल खत्म हो गए हों किसी को कोई सवाल नहीं आ रहा था
तब रविंद्र जो कि इस वर्धआश्रम में पहले भी आता है ने कहा "चाचा बता दो फिर अपनी कहानी।" ,
"न पूछ भतीज, आँख में आँसू भरते हुए उस ने कहा" "है तो यहां मज़ा है, मगर बाज़ू पे लिखे नाम को फिर दिखते हुए, मगर जाने वाले का मोह आराम से नहीं रहने देता।"
"कमला और बच्चे , याद में आ रुला देते हैं मुझे " पचीस नंबर वाले चाचा ने धीरे से कहा।
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(10). आ० विनय कुमार जी
ममता
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पूरा घर दरवाजे पर ही था, राजू, उसकी मेहरारू रानी, बेटी और राजू की माँ. बस इंतज़ार हो रहा था कि सामने चरनी पर खड़ी लक्ष्मी गाय कब बच्चा दे. उसका समय हो गया था और वह दर्द से इधर उधर घूम रही थी. राजू ने अपने सर पर बंधी गमछी को एक बार और कस के लपेटा और सामने के हैंडपंप पर पानी लेने चला गया.
"ए बार त बछिया ही होगी, तीन दिन से हम सपना में देखत हैं कि लक्ष्मी को बछिया हुआ है", राजू की माँ ने गहरी सांस ली. रानी ने एक बार माँ की तरफ देखा लेकिन कुछ नहीं बोली.
"दू बार से बछवा जन्मत है इस लक्ष्मिया, अब ए बार त बछिया ही चाही", माँ ने फिर से रानी की तरफ देखते हुए कहा.
राजू भी पानी रखते हुए माँ की हाँ में हाँ मिलाया "हाँ माई, ए बार त पक्का बछिया होगा, सरकारी हस्पताल लेजाके सीमेन चढ़वाये थे हम".
बेटी इन सब बातों से बेखबर खटिया पर लेटी थी, उसे भी कौतुहल था कि इस बार लक्ष्मी क्या बियाती है. अचानक लक्ष्मी ने जोर से चक्कर लगाया और कुछ ही देर में उसके पेट से बच्चा बाहर आ गया. राजू दौड़ कर उसके पास गया और जैसे ही उसने बच्चे को नजदीक से देखा, उसका चेहरा उतर गया.
"धत्त तेरी की, ए बार फिर से बछवा हुआ है, किस्मत ही खराब है हमरा", उसने अफ़सोस करते हुए कहा. माँ का चेहरा भी उतर गया, वह भी बुझे मन से चरनी की तरफ बढ़ी.
बेटी ने उठकर चरनी पर जाना चाहा लेकिन रानी ने उसे कस कर भींच लिया, उधर गाय भी अपने बछड़े को ममता से चाट रही थी.
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(11). आ० बबीता गुप्ता जी
मोह
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सरकारी लिफाफा हाथ मे लिए नवीन , अपनी पत्नी के साथ हड्बड़ाते हुये,अपने बड़े भाई,प्रवीण के घर पहुंचा.वो कुछ कहता ,इससे पहले प्रवीण ने कागज उसे दिखाया. दोनों पढ़कर अपने आप को कोस रहे थे,अपने अम्मा –बापू के साथ किए दुर्व्यवहार पर मन ग्लानि से भर गया. उस दिन की घटना का चलचित्र आँखों मे घूम गया,जब दोनों ने अपनी पत्नियों के साथ अपने ही बेसहारा,पराधीन बुजुर्ग जन्मदाता को किसी कोने मे पड़े रहने की गुहार करने पर भी, बेघर करके दर-दर की ठोकरे खाने के लिए छोड़ दिया था.
दोनों नालायक बेटों के दुखित पिता,किशन ने न्याय की गुहार अदालत में की ,तो फैसला उसके पक्ष में सुनाया गया , -‘कोर्ट फैसला किशन दास के पक्ष में सुनाते हुये,उनके दोनों बेटो को आदेश देती हैं कि कल अपराहन दो बजे तक जबरदस्त कब्जा किए घर को किशन और उनकी पत्नी सुजना को सुपुर्द करे। साथ ही फरियादी के विशेष आग्रह पर दोनों बेटों को उनकी जायदाद से बेदखल करती हैं।’
आदेश को सुन किशन की आँखों मे खुशी थी,पर दूर खड़े बेटों बहुओं की निगाहें वितृष्णा से भरी घूर रही थी।उसके बाद से दोनों ने अपने माँ-बापू की कोई खोजबीन नही की. लेकिन आज इस कागज ने उन्हे जड़वत कर दिया. अपने आप को कोस रहे थे.
तभी प्रवीण की पत्नी अंदर घुसी तो,कमरे मे मातम-सी पसरी चुप्पी को देख,प्रश्नभरी दृष्टि से प्रवीण को झकझोरते हुये पूछा तो उसने लिफाफा थमा दिया,जिसे खोलकर, पढ़ा,तो वो माथा पकड़कर बैठ गई,कागज में उनके महीना भर पूर्व सड़क दुर्घटना में गुजरे माँ-बापू की सूचना के साथ ,दोनों बेटो के नाम घर वसीयत के कागजात थे.
सभी की आँखों मे पश्चाताप के आँसू झलक रहे थे,जैसे कह रहे हो ,कि औलाद कितनी भी निर्दयी,स्वार्थी निकल जाये पर,माँ-बाप की ममता कभी नहीं मरती ,ये उनका मोह ही तो होता हैं, मोह ही...तो.............
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(12). आ० प्रतिभा पांडे जी
'राम काज '
''गुरू जी एक बात कहें ?'' पैर दबाता सेवक धीरे से बोला ।
" हाँ बोल पर हाथ मत ढीले पड़ने दे। " अपनी सिंहासन नुमा गद्दी की पीठ पर सर टिकाये निरंजन गुरु की आँखें आराम की मुद्रा में बंद थीं। एक दिन पहले ही इस गद्दी का फोम बदला गया था और अब ये और भी आरामदायक हो गई थी।
" आज आप सुबह प्रवचन में कैकेयी माता के पुत्र मोह पर बोले थे ना। उसी को लेकर ये बात है। " झिझक को काबू करने की कोशिश में सेवक के हाथ गुरु जी के पैरों पर और जोर से चलने लगे।
" ओहो ! अच्छा ! तुम लोग भी ध्यान से सुनते हो हमारे प्रवचन को। " गुरूजी मुस्कुरा रहे थे।
" वो हम सोचते हैं कि कैकेयी माता को पुत्र मोह नहीं था। " एक साँस में अपनी बात कह गया सेवक।
" अच्छा तो अब आप बताएँ संतोष महाराज कि फिर उन्होंने राम को वनवास क्यों भेजा ?" गुरूजी की बात पर पास में खड़े दूसरे सेवक हँसने लगे। गुरूजी ने अब पैर खींच लिए थे , मुद्रा सजग हो गई थी और आँखें संतोष को घूर रही थीं।
" राम काज के लिए गुरु जी। जैसे बजरंगबली ने किया था " सेवक संतोष ने अब हिम्मत बटोर ली थी " प्रभु वनवास नहीं जाते तो रावण कैसे मरता ? इसीलिए माता ने सबकी बुराई अपने सर ली। " घूर रहे गुरूजी और सेवकों को देखकर सेवक अब आँखें झुकाकर गद्दी की झालर ठीक करने लगा था।
गुरूजी देख रहे थे प्रश्न करते हुए सेवक को। .उनकी आँखों में घूम रहा था चालीस वर्ष पहले का एक युवा शिष्य जो अपने गुरु से प्रश्न करता करता आज उनकी गद्दी पर विराजमान था।
" नहीं " अपने आप से बोल उठे गुरु जी।
" जी ! " गुरु जी की बदली मुख मुद्रा देखकर सेवक अचकचा गया।
" देखो बेटा ये मोह और ,स्वार्थ की बातें बहुत गूढ़ हैं । किसी दिन फुर्सत से तुम्हें समझाऊँगा। अभी तुम सब जाओ। "
गुरु जी के चरणों से उठते हुए संतोष ने देखा गुरू जी की उँगलियों ने गद्दी को जकड़ रखा था।
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(13). आ० बरखा शुक्ला जी
यादें
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“माँ आप हमारे साथ दिल्ली चल रही है न ?”मोहन ने रेवती से पूछा ।
“बेटा इस घर को छोड़ कर जाने का मेरा मन नहीं होता ।”रेवती बोली ।
“माँ जब तक पिता जी थे ,मुझे कोई चिंता नहीं थी ,पर आप यहाँ अकेली हो तो मुझे फ़िक्र होती है ।”मोहन ने कहा ।
“बेटा इस घर से मेरी कितनी यादें जुड़ी है ।”रेवती बोली ।
“माँ यादें तो दिल में भी बसी होती है ।”मोहन ने कहा ।
तभी पोते की रोने की आवाज़ सुन रेवती बहू से बोली ,“बहू मुन्ना क्यों रो रहा है ?”
बहू बेटे को ले कर आयी और बोली “देखिए न माँ जी ,चुप ही नहीं हो रहा है ।”
रेवती की गोद में आते ही उसने रोना बंद कर उसे टुकुर-टुकुर देखना शुरू कर दिया ।
बहू अपने पति मोहन से बोली ,”देखा शैतान को ,दो तीन दिन में ही माँ जी से कितना हिल गया है ।”
“हाँ बहू इस ने तो मुझे मोह में बाँध लिया है , इस के मोह के आगे इस घर का मोह कम लगता है ।अब तो मुझे तुम लोगों के साथ चलना ही पड़ेगा ।”रेवती बोली ।
“सच माँ आप चल रही है ।”बहू बोली ।
हाँ बहू ,मोहन सही तो कह रहा है ,यादें तो दिल में बसी होती है ,उन्हें मैं दिल्ली के घर में बिखेर दूँगी ।”रेवती बोली ।
“ये हुई न बात माँ ।”मोहन ख़ुश हो कर बोला ।
“अरे भई ,मेरे पोते के पास भी तो उसकी दादी की कुछ यादें होनी चाहिए ।”रेवती पोते को प्यार से निहारते हुए बोली ।
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(14). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
गुन-धुन-घुन
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आज़ाद गणतंत्र का कवच पहने हमारा 'वतन' आज भी स्वाभिमान और क़ाफी हद तक आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास के साथ तन के खड़ा हुआ था गंगा-जमुनी देश-प्रेम, देश-द्रोह, सहिष्णुता और असहिष्णुता, धर्मांधता, भ्रष्टाचार और आतंक आदि की विसंगतियों के साथ अद्भुत सामंजस्य बनाते हुए। अपने जन-गण-मन को टटोलते, समझते व परखते हुए! तन-मन-धन से मुख़ातिब होकर क्रमशः उनके विचार जानकर उनका अवलोकन व समालोचना करते हुए!
"मुझे पहले धन चाहिए। फ़िर मन का धन करने की आज़ादी चाहिए! तत्पश्चात वतन की बात कीजियेगा मुझसे!" जन-गण का प्रतिनिधित्व करते 'तन' ने कहा।
"मैं तो चंचल हूं। आज इधर, कल उधर। आसमां पर हूं, ज़मीं से मुझे क्या? होड़ की दौड़ में मुझे भी पहले धन चाहिए! फ़िर ज़माने के मुताबिक़ तन चाहिए! उसके बाद ही वतन की बात करियेगा आप हमसे, समझे न?" जन-गण का प्रतिनिधित्व करते 'मन' ने कहा।
वतन सबकी सुन रहा था, या यूं कहिए कि सबकी और सबको झेल रहा था। उसे अपने जन-गण के तन, मन और धन की फ़िक्र भी थी और इस सदी में उनके गुन (गुण) और उनकी स्वाभाविक आधुनिक 'धुन' (क्रेज़) के साथ उनकी ज़रूरत और ख़्वाबों के मुताबिक़ उन तक पर्याप्त 'धन', अंतरराष्ट्रीय स्तर के यंत्र-तंत्र, तकनीक और दीगर इंतज़ामात की भी फ़िक्र थी।
उसकी तंद्रा तोड़ते हुए जन-गण का प्रतिनिधित्व करते हुए 'धन' ने कहा, "मेरा क्या है? आज यहां, कल वहां! कभी सीमा के अंदर, कभी सीमा पार! कभी काले चोले में, कभी सफ़ेद में! जन-गण के तन और मन की बात है भाईयो! उनके लगाव, नीयत, गुन और धुन पर निर्भर है मेरा रूप और वजूद!" इतना कहकर उसने दया-दृष्टि डालते हुए वतन से कहा, "तुम्हारे लिए समय है ही कहां किसी के पास?"
"किसने कहा? हैं.. ऐसे भी देशभक्त हैं जिनकी सच्ची मुहब्बत, देशभक्ति की धुन और गुन की बदौलत न सिर्फ़ मेरा आज का वजूद है, बल्कि दुनिया में मेरा नाम भी है!" वतन ने सीना तान कर कहा और उन सब पर एक विहंगम दृष्टि डालते हुए आगे कहा, "मुझे फ़िक्र है तो मुझे निरंतर चुनौती देते हर उस 'घुन' की जो मुझे कई तरह से चोटिल या खोखला करने की कोशिश करता है!"
"इस सदी के असरात से हमारे स्वामियों 'जन-गण' के गुन और धुन में कोई न कोई खोट तो है, जो वतन के लिए घुन ही है!" यह सोचते हुए तन-मन और धन तीनों अपने गिरेबां में झांकने लगे। वतन उनकी मनोदशा को समझ ही रहा था कि वे तीनों उसके चरणों पर गिरकर एक साथ बोले, "हम जियेंगे और मरेंगे अय वतन तेरे लिए!... दिल देंगे, जां भी देंगे,अय वतन तेरे लिए!"
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(15). आ० अन्नपूर्णा बाजपेई जी
जिंदगी
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मधूलिका ने अपने बिस्तर के पास पड़े हुए मोबाइल को उठाया और मुस्कुराते हुए , कुछ आड़ी तिरछी शक्लें बनाकर सेल्फी लीं । फिर कोई गीत बड़े ही मधु स्वर में गाकर रिकॉर्ड किया और पोस्ट कर दिया फेस बुक, इंस्टाग्राम और भी जहाँ उसने चाहा । उसके चेहरे पर अब सुकून के भाव थे । वैसे भी उस दुर्घटना के पश्चात आधे शरीर के पैरालाइज्ड होने के बाद से वह बिस्तर पर पड़ी निर्जीव हुई जा रही थी ।
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