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" आँगन "
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अब कोई चिड़िया नहीं आती मेरे आँगन के दरख़्त पर...

बेटे को गाँव के मेले से एक गुलेल दिलाई थी मैंने...

अब कोई तितली नहीं मंडराती
मेरे आँगन में बने कुए के पास लगे गेंदे के पौधे पर...

बेटे ने कुछ तितलियाँ पकड़ कर अपनी कॉपी में दबा ली थीं..

अब गैया नहीं खड़ी होती मेरे द्वार पर...

भगवान को लगे भोग की रोटी खाने...

बहुएं अब आँगन को गोबर से नहीं लीपती हैं...

गोबर की महक को फिनायल से दूर कर दिया गया है...

गैया के रंभाने की आवाज़ से
मेरा बेटा डंडा लेकर दौड़ता है उसके पीछे...

अब इकतारा लेकर लच्छू दाऊ नहीं आते राम-राम गाने...

बरामदे में बज रहे स्पीकर में उनके इकतारे की टुन्न..टुन्न दब जाती है..
अब नन्ही काकी नहीं आती उबले बेर और बिरचुन की टुकानिया लेकर....

मेरे बच्चों के हाथ गंदे और चिपचिपे हो जाते हैं उबली बेर खाकर...

अब न तो डाकिया आता है तिवहार का इनाम लेने....

न ही कपड़े से बने खिलोने बेचने कजरी आती है...

न ही पुतला पुतलिया की शादी होती है...

आँगन में अब कोई पिट्टू या चीटी धप्प नहीं खेलता...

न ही आँगन में बहुएं पापड़ बनाकर सुखाती हैं....

न ही अब आँगन में मट्टी के मटके हैं पानी के...

न ही आँगन में खाट बिछा कर सोता है कोई...

अब सूने सूने खूंटे गड़े हुए हैं आँगन में...

गैया और बकरियां बेच दी गईं हैं...

आँगन भी बरसात तक अपना दर्द छिपाए सूखा पड़ा रहता है....

आँगन के दर्द का अंत होने वाला है अब...

छोटा भाई अब आँगन पूर के दो दुकाने निकल रहा है...

जिसमे शहर से लाकर
जींस.. टी शर्ट ...और कैसेट बेचेगा....

शहर अब गाँव में ही आ गया है....

न चिड़िया...न गैया....न गोबर.... न इकतारा....न कुआ...न गेंदा....

........न 'आँगन'.....!
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Comment

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Comment by Rash Bihari Ravi on July 12, 2010 at 3:41pm
मन को मोहने वाला मनमोहक
Comment by baban pandey on July 12, 2010 at 7:51am
waah dinesh bhai ...pahli baar padha ....aangan....ko aangan kahne me bhi ab sharm aati hai ...prabhakar bhai sach kahte hai ....we are going towards india from Aryabart.......thanks
Comment by Admin on July 11, 2010 at 8:54pm
आदरणीय दिनेश चौबे जी, सादर अभिवादन ,
सर्वप्रथम मैं ओपन बुक्स ऑनलाइन के मंच पर आपके पहले ब्लॉग का हृदय से स्वागत करता हूँ , आप की यह रचना बरबस बचपन की यादों मे ले जाती हैं तथा वही गाँव का मंज़र दिखाती है, अब तो अपार्टमेंट वाली संस्कृति मे ना वो आँगन है और ना ही वो गोबर और मिट्टी की भिनी महक, सरल शब्दो का प्रयोग करते हुए बहुत ही सुंदर और उत्कृष्ण कविता प्रस्तुत किये है, बधाई स्वीकार करे , धन्यवाद,
Comment by Dinesh Choubey on July 11, 2010 at 8:22pm
राणा भाई और योगी भैया... आपलोगों का इतना अच्छा प्रतिसाद मिला है तो और लिखने कि शक्ति मिली है...

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 11, 2010 at 7:41pm
दिनेश भाई, सीधे दिल से निकले हुए जज़्बात हैं ये ! कितनी दफा पढ़ चुका हूँ, मगर विश्वास करें दिल ही नहीं भर रहा ! यह देश के "भारत" से "इंडिया" तक के सफ़र का खामियाजा है जिसको बहुत ही भावुक मगर मार्मिक ढंग से आपने चित्रित किया है ! बात इतनी मासूमियत से कही गई है कि किसी चलचित्र की तरह पूरा मंज़र ज़ेहन पर उभर आता है आपकी यह कविता पढ़कर, यही इस कविता की खासियत है ! पूरी की पूरी रचना एक विलक्षण लय लिए हुए आगे बढती है बिना किसी रुकावट के, जो बहुत अच्छा लगा ! लेकिन कहीं कहीं कविता महज़ बयानबाजी होते होते भी बची है, लेकिन कोमल भावों ने उसको बहुत ज्यादा उभरने नहीं दिया ! सिर्फ एक सलाह अवश्य देना चाहूँगा कि थोडा भाषा की परिपक्वता और व्याकरण/स्पेलिंग की गलतियों पर ध्यान दीजिये तो लेखनी में और निखार आएगा ! इस दिलकश रचना के लिए में आपको दिल से मुबारकबाद देता हूँ !

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on July 11, 2010 at 7:06pm
दिनेश भैया..आपकी ये कविता दूर कहीं खींच कर ले जाती है. किन्ही मीठी स्मृतियों में गोता लगाने को मज़बूर करती है. शहरीकरण और झूठी आधुनिकता के दिखावे में हम अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे है. जो कि एक शुभ संकेत नहीं है

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