ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की ऑनलाइन काव्य गोष्ठी 24 मई 2020 (रविवार) को हुई I कवियों का उत्साह अनुभवगम्य रहा I अध्यक्ष आये भी नहीं थे कि उत्साही प्रस्तोता सुगबुगाने लगे I कवयित्री नमिता सुंदर के आते ही अनुमति पाकर संचालक आलोक रावत ’आहत लखनवी’ ने अपनी कमान सभाल ली और सर्वप्रथम कवयित्री आभा खरे को काव्य-पाठ के लिए आमंत्रित किया I आभा जी ने चार क्षणिकाएँ सुनाकर वातावरण को आभायित कर दिया I एक से बढ़कर एक रचना I श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर होती हुई I प्रेम की सकारात्मक अनुभूति लिए निम्न क्षणिकाएँ देखिये -
तुम्हारा प्रेम ! / मेरे सबसे बुरे दिनों में सुने गये / चंद उन अच्छे शब्दों की तरह हैं /जिन से लिखी जा सकती है...एक कविता / जीवन की कविता..!!!
मैंने चुना तुम्हें चाहना / तुमने मुझे पाना चाहा / और इस तरह / चाहने और पाने के बीच / एक रिश्ते ने अंतिम सांस ली .../ जीने से बहुत पहले..!!!
स्त्री जब प्रेम में होती है / वो भुला बैठती है / अपने होने को / इस धरती पर पीड़ा की / वह पहली और आख़िरी परिभाषा है ...!!!
और आख़िरी क्षणिका में शब्दों का जो चयन है और कहन में जो किस्सागोई है, उसकी महक बहुत दूर तक जाती है I ऐसी रचना कभी-कभी ही जन्म लेती है i मुलाहिजा फरमाइए -
दिन के शाम से मिलने / और शाम से रात के / मिलने में / ये जो सूरज से चाँद हो जाने की किस्सागोई है न / यहीं पर कहीं किसी गुलाबी पन्ने पर / दर्ज कर दिए हैं मैंने / तुमसे मिलने और / खुद से बिछुड़ जाने के / न जाने कितने ही किस्से...!
अगली कवयित्री थीं सांद्र भावनाओं की चितेरी डॉ. अंजना मुखोपाध्याय I उनकी कविता ‘माँ’ पर आधारित थी I माँ जो जन्म देती है, शिक्षा देती है और संस्कार देती है I पर माँ की यह याद एक ऐसे व्यक्तित्व के द्वारा प्रसूत है जिसने अपना पूरा जीवन संघर्ष में अविजित रहकर बिताया है I वह माँ के संघर्ष में स्वयं को देखती है और अपने संघर्ष में माँ को I इस अद्भुत अनुभूति का निर्णय ये पंक्तियाँ करती हैं I’
आज एक सुदूर पथ परिभ्रमण कर/ लौट आई हूँ मैं, मंजिल को छूकर / ढूंढ़ रही हूँ, तेरे बाहुओं का छोर
प्रशान्ति का वही दामन / जिसे बिछाई थी तूने / इस धरती की पहचान बनाकर । बिछाए गुलशन / गुजरी मैं इस बाग से महक बनकर / छा गई जैसे तेरी ही तस्वीर में।।
अगले प्रस्तोता थे ग़ज़लकार और साहित्यकार नवीन मणि त्रिपाठी I इन्होंने बह्र का जिक्र नहीं किया पर अरकान दिए हैं - 1222 1222 1222 122 यह अरकान कम प्रयोग होता है I अधिकतर लोग 1222 1222 1222 1222 का उपयोग करते है I फिल्म ‘सूरज’ का मशहूर गाना –‘बहारों फूल बरसाओ’ इसी कोटि का है I नवीन जी ने अरकान को साधने की उम्दा कोशिश की है और उनके कुछ शेर तो बहुत ही अच्छे बन पड़े हैं I जैसे -
क्षुधा की अग्नि से जलते उदर की वेदना का ।
कदाचित ले रहा होता कोई संज्ञान किंचित II1II
प्रकृति के मर्म के उपहास का परिणाम ही है ।
प्रलय करने चला है युद्ध का सम्मान किंचित II2II
शवों पर काल का यह ताण्डव तुम रोक लेते ।
हृदय में सृष्टि का होता कहीं स्थान किंचित II3II
मृगांक श्रीवास्तव जी ने आते ही वातावरण की गंभीरता का हरण व्यंग्य प्रस्तुति के अपने खास अंदाज में किया I हास्य को यहाँ उन्होंने हाशिये पर रखा I जिंदगी की जद्दोजहद के संजीदा पहलू से प्रारंभ कर वह अपना निष्कर्ष इस तरह रखते हैं -
दौड़ एक बिल्ली की,
उसकी एक आवश्यकता है।
पर चूहे की दौड़,
उसकी जीवन रक्षा है।
जिंदगी एक भाग-दौड़ है ....
और पोजिटिव रिपोर्ट जो कभी नव-दंपति के उल्लास का आलंबन होती थी, उसकी अभिव्यक्ति अब अपार्थ सी हो गयी है I कवि के शब्दों में -
आजकल पाज़िटिव का अर्थ
रह गया है केवल कोरोना
आज हर व्यक्ति चाह रहा ,
निगेटिव होना
घोर कलियुग है
पाज़िटिविटी की ये दुर्दशा
हाय कोरोना हाय कोरोना हाय कोरोना
तुम पाज़िटिव मत होना ।
डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने अपनी स्वरचित मूल कविता के स्थान पर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की दस क्षणिकाओं का आत्मकृत अनुवाद प्रस्तुत किया I भाव यदि गुरुवर के हों तो उसका उल्था करना भी एक चुनौती है, जिसे शरदिंदु जी ने न केवल स्वीकार किया बल्कि मूल कविता को हिंदी में प्रस्तुत करने में इतना सफल रहे मानो वह अनुवाद न होकर स्वयं में कोई मूल रचना हो I डॉ. शरदिंदु की शाब्दिक सतर्कता सदैव उनका ब्रह्मास्त्र रहा है I मुलाहिजा कीजिये-
अंधकार मानो विरहिणी वधू
आँचल से आवृत मुख,
पथिक प्रकाश की राह देखती
बैठी है उत्सुक ।
निम्नांकित क्षणिकाओं की तुकांत योजना से छान्दस सौन्दर्य लगभग उद्घाटित सा हो गया है- -
1-सुन्दरी छाया के प्रति तरु की नीरव दृष्टि,
नहीं छू सका उसको कभी है उसकी ही सृष्टि
2-स्वप्न मेरे जुगनू हैं दीप्त प्राण की मणिका,
स्तब्ध अँधेरी रात में उड़ते प्रकाश की कणिका।
समकालीन कविताओं की श्रेष्ठ रचनाकार कवयित्री संध्या सिंह जब दोहा या ग़ज़ल प्रस्तुत करती हैं, तो एक नया और सुखद अनुभव होता है I अपेक्षित मात्रिक संगठनों को वह जिस सहजता से प्रस्तुत करती हैं, वह उनकी अपनी मेहनत का अक्स है I एक दोहा देखिये-
बाहर कोरोना फिरे , दुबका है इंसान l
तुम कहते अभिशाप है , धरा कहे वरदान ll
बह्रे मीर ‘फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन’ पर आधारित उनकी ग़ज़ल का एक उम्दा नमूना यहाँ पेश है I
उसकी भी आँखों में आँसू
सहरा लगा समंदर जैसा II
माना बहुत मधुर थी भाषा
लेकिन लहजा खंजर जैसा II
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ एक लम्बी गीत रचना के साथ प्रस्तुत हुए i यह गीत यद्यपि बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम / फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन / 212 212 212 212 की लोकप्रिय तर्ज पर आधरित है I कहना न होगा कि गीत बहुत ही सुन्दर बन पड़ा है I एक बानगी देखिये -
आपके स्खलन में न दोषी हूँ मैं,
आपकी सोच ही मात खाती रही।
आपने कृत्य अपने छिपाए सभी,
रूठते तुम रहे मैं मनाती रही।
तौल लो बुद्धि को नाप लो आप भी,
सुप्त मन आपका आज जगने लगा।
खुश हुए देवता मानवों से तभी,
वारुणी दे गए जग उमगने लगा।
कवयित्री कौशाम्बरी जी ने तीन छोटी-छोटी कविताएँ प्रस्तुत कीं I उनकी एक कविता में
चिरंतन उद्योग, अटूट धैर्य और आशा का संदेश है जो आदमी की विश्वास की नींव पर खड़ा है – यथा-
बचपन में / बो रहे थे / बीज तुम / बंजर धरा पर / धैर्य के संग / आस रखकर / पनप आयेगी कोई कोपल / कहीं से / खिल उठेंगे / फूल फिर / उपवन बनेगा
और फिर एक रूमानी कविता – सूर्य बन तुम साथ चलते / कामना बन शाम आती / चाँद तारे मुस्कराकर / स्वप्न गढ़ते / प्रणय बन / उपवन महकता / और फिर अभिसार / सारी रात, सारी रात – जो अभिसार में सबको फंसाकर विभोर कर गयी I
एक अन्य कविता में उन्होंने अपने मन की भटकन से उत्पन्न विसंगति को कुछ इस प्रकार पेश किया -
कब ठहरेगी / मन की भटकन / खोजे डगर पुरानी /
आत्मलीन हो / निज मंथन में/ क्या पावे अज्ञानी /
निज से ही निज/ का मन पूछे / बिसरी राम कहानी /
भूल गया तू /क्यों इस जग में / सारी रीति निभानी
कवयित्री कुंती जी का वैशिष्ट्य उन कविताओं में शिखर पर होता है, जिनका आयाम प्रायशः छोटा होता है I कम शब्दों में बड़ी बात कहने की अनूठी कला का परिचय वे पहले भी कई बार दे चुकी हैं I उनके द्वारा प्रस्तुत कविता में कैसा रूमानी तसव्वुर है I मुलाहिजा फरमाइए -
ठहरो! कुछ देर बाद आना / अभी फूलों का रंग चटका नहीं है/ न गुलों में रंगत आयी है
ए मुसाफिर !
अभी - अभी तो सुबह हुई है_/ रात की खुमारी अभी टूटी नहीं है
शाम की रंगत / आकाश की नीलिमा में मिलने दो / रात महक जाएगी / अभी क्षितिज में और भी निखरेगा / और फूलों में रंगत भरने वाली है।"
संचालक आलोक रावत आहत लखनवी का संचालन बहुत सराहनीय था I संयोजक ने अध्यक्ष की अनुमति से उन्हें अपनी रचना पेश करने हेतु आमंत्रित किया I आहत ने एक नये अंदाज में बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ / फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन / 2122 2122 2122 212 की तर्ज पर एक ग़ज़ल प्रस्तुत की जिसके तेवर हिंदी के नवगीतों से मिलते-जुलते थे I इसीलिए डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने ग़ज़ल के संबंध में खूबसूरत टिप्पणी करते हुए कहा- आलोक जी ने तो साहित्यिक ऑडिट कर दिया या कहूँ सामयिकता के साथ ऑडिटेड रचना प्रस्तुत कर दी । मुलाहिजा फरमाइए –
हम तो इक इक बूंद की खातिर यहाँ तरसे रहे
नल हज़ारों आपने साहिब कहाँ लगवा दिए II
आप से आगे निकलने का हुनर था इसलिए
आपने साहिब हमारे पंख ही नुचवा दिए II
लहलहाती फस्ल मेरी आप को भायी नहीं
ढोर सारे आपने अपने वहीं चरवा दिए II II
गज़लकार भूपेन्द्र सिंह ने बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़/ / फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन / 2122 1122 1122 22 में एक ग़ज़ल प्रस्तुत की, जिसमे वुसअत, मुहब्बत, जहानत और शराफत के छीजते अहसास पर चिंता की गयी है I एक बानगी देखिये –
आज के दौर के इन्सां में हवस है इतनी,
उसके किरदार में थोड़ी भी शराफ़त न रही.
रंगो-रौग़न के हुए आज सभी ही क़ायल,
दिल के जज़्बात समझने की ज़हानत न रही.
नफ़रतों ने हमें यूँ कर दिया तक़सीम कि अब,
कोई दीवार उठाने की ज़रूरत न रही.
डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने भी इस बार बहरे हज़ज मुसम्मन अशतर मक़्फूफ़ मक़्बूज़ मुख़न्नक सालिम / फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन / 212 1222 212 1222 में एक ग़ज़ल पेश की, जिसमें विपदाओं के आते रहने का संकेत देते हुए यह संदेश देने का प्रयास हुआ है कि आपदाएँ आती हैं, विनाश होता है, पर इससे मानव प्रजाति को कोई संकट नहीं है I कवि का स्वर आशावादी है वह अंधेरों के छंटने और प्रकाश के आने की बात कहते हुए यह भरोसा दिलाता है कि हमारी संस्कृति से टकराने वाला खुद ही चूर हो जाएगा I
किंतु इन अंधेरों से मीत टूट मत जाना
देवता लगे है सब ज्योति रश्मि लाने में II I
अंशुमान का रथ अब वेग से बढ़ा आता
देर अब नहीं साथी अंधकार जाने में II II
आँधियों के आने से संस्कृति नहीं मिटती
खुद ही टूट जायेगी जड़ मेरी हिलाने में II II
डॉ. अशोक शर्मा को आशावाद का वैतालिक कहा जाये तो अनुपयुक्त नहीं होगा I उनका मानना है कि अच्छा सोचने से ही POSITIVITY आती है और जब हम इसे फैलायेंगे तो कुछ तो अवश्य ही इसका असर होगा i समाज के लिए यह ‘गिलहरी प्रयास‘ आवश्यक भी है और उपयोगी भी I अपने गीत में भी वे अपनी भविष्य की इन्ही योजनाओं का परिचय देते हैं –
वे जमाने को बुरा कहते रहे , वो अंधेरों को बड़ा करते रहे
हम दिये को हाथ में लेकर रोशनी की जीत लिख देंगे
बात उड़ने की करेंगे हम और उगने की लड़ेंगे हम
हम ज़मी में सृजन बोयेंगे हम फलक पर प्रीति लिख देंगे
अंत में अध्यक्ष नमिता सुंदर जी का आह्वान हुआ I उन्होंने सर्वप्रथम सभी प्रस्तुतियों की सराहना की I सुयोग्य संचालन की सराहना की और फिर सडक को प्रतीक बनाकर शायद नारी की ही पीड़ा को नये ढंग से पेश किया I गलियाँ और सडकें निरंतर पदाक्रांत होकर भी कोइ हलचल नही करते I उनके जब्त की भी इन्तेहा है I उन्हें छज्जों की कानाफूसी और झरोंखों के प्यार से शायद कुछ सुकून मिलता हो I कविता का अंश देखिये -
बहुत / अलहदा होता है मिजाज / सडकों और गलियों का -------------/ कोई हलचल/ या फिर वो / किये रहती है जब्त / सब कुछ अपने ही भीतर / और गलियाँ / गलियाँ / छज्जों की कानाफूसी / झरोंखों का प्यार
यह साहित्य-संध्या के अवसान का अवसर था i पर आज मेरा मन जाने क्यों आभा खरे जी की प्रस्तुतियों में अटका था ---‘ये जो सूरज से चाँद हो जाने की किस्सागोई है न –और फिर मैं डूब गया ----
“शांति / और शीतलता / शीतलता और शांति / शायद यूँ ही नहीं आती / पहले खुद को तपाना पड़ता है / या फिर तपना पड़ता है / सूरज के मानिंद / चाँद होने के लिए जरूरी है / अनंत काल तक/ सूरज होना / शायद यही इन दोनों के बीच की / किस्सागोई है I (सद्यः रचित )
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
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वाक़ई, ओबीओ लखनऊ चैप्टर की माह मई 2020 की मासिक गोष्ठी बहुत ही शानदार ढंग से सम्पन्न हुई | इस गोष्ठी में सभी रचनाकारों ने अपने बेहतरीन कलाम पेश किये थे और गोष्ठी अपने उरूज़ पर पहुंची थी | भले ही लखनऊ चैप्टर में कम लोग हों लेकिन ये 10 - 12 लोग अपनी रचनाओं की गुणवत्ता से 50-60 लोगों पर भारी पड़ते हैं | मैं सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई देता हूँ | साथ ही, हमेशा की तरह एक शानदार और सारगर्भित प्रतिवेदन के लिए आदरणीय डॉक्टर गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी को बहुत बहुत बधाई देता हूँ
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