बाल-कविता
श्वेत,सुनहरे,काले बादल,आसमान पर उड़ते हैं।
दादा-दादी के केशों से,मुझे दिखाई पड़ते हैं।।
मन करता बादल मुट्ठी में,भरकर अपने सहलाऊँ।
दादी के केशों से खेलूँ, सुख सारा ही पा जाऊँ।।
रिमझिम बरसा जब करते घन,नभ पर नाच रहे मानो।
दादी मेरी पूजा करके,जल छिड़काती यूँ जानो।।
काली-पीली आँधी आती,झर-झर बादल रोते हैं।
गुस्से में जब होती दादी,बिल्कुल वैसे होते हैं।।
दादी पर दादाजी मेरे,कभी जो बड़बड़ करते हैं।
उमड़-घुमड़ कर बड़े जोर से,बादल गड़गड़ करते हैं।।
जब भी खेलूँ आँख मिचौनी,साया घन सा चाहूँ मैं।
दादी के आँचल में छुपकर,नजर कहीं ना आऊँ मैं।।
आसमान को वश में रखना,ज्यूँ बादल को आता है।
दादा-दादी के साये में,रहना मुझको भाता है।।
मौलिक एवं अप्रकाशित
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