दिनांक 20 अक्टूबर 2019 को सायं 3 बजे ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या का आयोजन 37, रोहतास एन्क्लेव, फैजाबाद रोड (डॉ. शरदिंदु जी के आवास) पर आदरणीय डॉ. अंजना मुखोपाध्याय के सौजन्य से हुआ I कार्यक्रम के प्रथम चरण का संचालन चैप्टर के संयोजक डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने किया ,जिसमें माह नवंबर 2019 में होने वाले वार्षिक कार्यक्रम पर चर्चा करते हुए अब तक संपन्न कार्य की समीक्षा की गई I संयोजक ने कार्यक्रम संबंधित जानकारी देते हुए सदस्यों को हॉल के बुक होने और अतिथियों के बारे में विस्तार से बताया I इस बार ‘सिसृक्षा’ वार्षिकी का संपादन दायित्व सर्वसम्मति से श्री मनोज शुक्ल ‘मनुज‘ को दिया गया I इसके बाद आर्थिक पक्ष पर भी एक सार्थक चर्चा हुई I
कार्यक्रम के दूसरे सत्र में काव्य पाठ किया गया I इसकी अध्यक्षता अतिथि गीतकार घनानन्द पाण्डेय ‘मेघ ‘ ने की I संचालक थे युवा कवि मनोज शुक्ल ‘मनुज‘ I काव्य –पाठ का आगाज व्यंग्यकार मृगांक श्रीवास्तव ने किया I इन्होने हास्य और व्यंग्य से भरी कुछ फुटकर रचनाएँ सुनाईं और श्रोताओं को रचना के कथ्य पर सोचने हेतु मजबूर किया I उनकी कविता की एक बानगी यहाँ प्रस्तुत है –
खुश रहने वालों की न पूछो हर हाल में खुश रहते हैं I
कुछ लोग सुबह-सुबह पार्क में बिना बात हँसते हैं I
कुछ तो इतने बेशर्म होते हैं कि शादी के बाद भी खुश रहते हैं II
कवयित्री अलका त्रिपाठी’ विजय’ ने अपनी कविता में भोजपुरी भाषा और संस्कृति को रूपायित करते हुए एक भावपूर्ण गीत कुछ इस प्रकार सुनाया -
बोये तरैया के फूल हो , चंदा अंगना उतरि के
सुश्री कौशाम्बरी सिंह की कविता का भाव था कि आरंभिक जीवन में मनुष्य अपनी जीविका की तलाश में इधर-उधर बेचैन भटकता है पर अंततः उसे घर लौटना ही पड़ता है -
विश्व भर का परिभ्रमण कर
नीड़ में पाखी उतर नव
कवयित्री कुंती मुकर्जी ने दार्शनिक अंदाज में अपनी कविता प्रस्तुत की और श्रोताओं को सोचने का एक नया विषय दिया . वे कहती हैं कि –
बहुत सुन्दर होते हैं फूल
लेकिन तुमको भ्रम है कि –
वे मात्र फूल हैं I
डॉ. अशोक शर्मा के गीत में छायावाद का आभास दिखा I वे हवाओं पर पैगाम लिखने और सूरज के नाम पत्र लिखने की बात करते हैं I छायावाद ऐसी ऊहात्मक कल्पना का एक दौर था I
आओ हवाओं पे कोई पैगाम लिखें I
आओ तो एक पत्र सूरज के नाम लिखें I
ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ‘होश’ को उन लोगों से शिकायत है, जो आपसी मतभेद का पारस्परिक समाधान न कर व्यर्थ का बैर पाल लेते हैं –
नाइत्तेफाकियां हैं अगर. मुझसे तो कहें
क्यों बेवजह की ये शिकायत है इधर-उधर I
संचालक मनोज शुक्ल’मनुज’ ने अपनी कविता से भारतेंदु हरिश्चंद्र की नाटिका ‘अंधेर नगरी ‘ की याद करा दी , जहां टके सेर भाजी और टके सेर खाजा बिकता था i आज के दिन भी सेब प्याज की तुलना में बहुत सस्ता है I मनुज कहते हैं –
बर्छी और कटारी तनती दुर्लभ मीठा बोल हो गया I
एक सुरा के घट से भी कम अमृत -घट का मोल हो गया II
डॉ. अंजना मुखोपाध्याय की कविता का शीर्षक था – आज़ादी I एक टुकड़ा आकाश और उन्मुक्त उड़ान के पुराने रूपक को नया ‘धज’ देते हुए कवयित्री कहती हैं –
उसने चुना था
मुक्ति का संकेत साधित
एक टुकड़ा आकास, उड़ान भरी थी
उभय चित्त में , लिए हलक में प्यास I
लोकप्रिय कवयित्री संध्या सिंह ने लिखने की पूरी तैयारी कर ली है , अभी लिखा नहीं है पर क्या-क्या लिखने का विचार है , वह इस प्रकार है -
पतझर के उड़ते पत्तों को , महकी एक बहार लिखूँगी I
जेठ माह की भरी दुपहरी , सावन की बौछार लिखूँगी I
जिस दिन जिस पल प्यार लिखूँगी I
धरती को गुलजार लिखूँगी II
कवयित्री नमिता सुंदर ने भी उसी पुराने आकाश और उड़ान के रूपक को अपना विषय बनाया जिसकी चर्चा डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने की थी I पर अंदाजेबयां का फर्क इस प्रकार नुमायाँ है -
मैं
होना चाहता हूँ
आकाश
कि तुम्हारी उड़ान पा सके
निस्सीम आयाम
डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने बांग्ला के प्रसिद्ध कवि सुकांत भट्टाचार्या की कविता ‘आगामी ‘ का हिंदी में स्वयं द्वारा किया गया उल्था पेश किया , जिसमें एक बीज का आत्म-कथन रूपायित हुआ है I अनुवाद की एक बानगी इस प्रकार है -
क्षुद्र हूँ तुच्छ नहीं
मैं भी हूँ भावी वनस्पति
वर्षा और धरती के रस में
मिलती है नित्य सम्मति,
सुनोगे तब मेरी पुकार-
आकर छाया में मेरी,
करो यदि आघात मुझे तुम
फिर भी बुलाऊंगा मैं
तुम्हें बारम्बार,
दूंगा फल, फूल दूंगा
दूंगा पक्षियों का कलरव
एक ही धरती से आखिर
पोषित हैं हम-तुम,
तुम-हम सब.
मूल बांग्ला रचना कुछ इस प्रकार है :-
खुद्रो आमि तुच्छो नोई – जानि आमि भाबी बॉनोश्पोति,
बृष्टिर, माटिर रॉशे पाई आमि तारि तो शॉम्मोति.
शेदिन छायाये एशो : हानो जोदि कोठिन कुठारे,
तोबुओ तोमाए आमि हातछानि देबो बारेबारे;
फॉल देबो, फूल देबो, देबो आमि पाखिरो कूजॉन
ऐकी माटिते पुष्टो तोमादेर आपोनार जॉन.”
डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने आज की विकासशील कवयित्रियों की इस रूढ़िगत सोच पर प्रहार किया कि सारा नर समूह दरिंदा है, वहशी है और रेपिस्ट है I बहुत ही खतरनाक है यह माइंड सेट कि पुरुष में संवेदना है ही नहीं I बिना संवेदना के क्या परिवार चलता है ? समाज में अगर रेप है तो वह एक बुराई मात्र है I उससे सारे समाज को उपमायित नहीं किया जा सकता . कवि कहता है -
मानता हूँ रेप इस समाज की बुराई है
द्वापर त्रेता से कलयुग तक चली आई है I
पर समाज,समाज है समाज एक नाता है
प्रेम, साहचर्य, सद्भाव इसमें आता है I
जीव इसकी गोद में जीवन बिताता है
कब किसी रेप से समाज अर्थ पाता है ?
अंत में अध्यक्ष एवं कोकिल कंठ गीतकार घनानंद पाण्डेय ‘मेघ’ ने उस कृतज्ञ और वयस्क बालक के भाव का बड़ा ही मार्मिक निरूपण किया जो अपने माता-पिता की संतान विषयक चिंता को समझने लगा है I वर्तमान में इस समझ की कितनी आवश्यकता है, इसे हर माँ-बाप अपने आख़िरी दिनों में शिद्दत से अनुभव करता है –
माँ की दुआ का अब भी असर है I
हम पे पिता की अब भी नजर है II
अध्यक्षीय पाठ के बाद काव्य संध्या का अवसान हुआ I इस समय डॉ . अंजना मुखोपाध्याय के स्नेहिल आतिथ्य ने सभी को आप्यायित किया I मैं चाय सिप करता रहा , अध्यक्ष महोदय की कविता मुझे झकझोरती रही , जब तक मैं अध्वांकित निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा I
नहीं दिखता
उनकी मौजूदगी में
उनकी दुआओं का असर
और जब होता है
वह असर
तब नहीं रहते
दुआ में उठने वाले वे हाथ
बेटे की उपलब्धियाँ
तब हँसती हैं
एक विद्रूप हँसी
ताने मारती हैं
वे सारी सफलताएं
जो असर है उन दुआओं का
जिन्हें वक्त रहते
नहीं पहचान सके थे हम (सद्म रचित )
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