आदरणीय साथियो,
Tags:
Replies are closed for this discussion.
गुनगुनी मीठी सी रचना । बधाई आपको
सादर नमस्कार। आवश्यक नयी विसंगति उभारती विचारोत्तेजक लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी। बढ़िया सांकेतिक अनुपम शीर्षक। समापन पंक्तियों के मद्देनज़र मेरे विचार से इस वाक्य पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए - //पर इस क्षण वो चाह रहा था कि उन सब पोस्टरों को जलाकर राख कर दे।// - इसके स्थान पर जिज्ञासा बढ़ाता कोई लघु वाक्य लिखा जा सकता है- जैसे कि- //पर इस क्षण वो कुछ विपरीत सा कर डालना चाह रहा था// या //पर इस क्षण वो कुछ और ही करना चाह रहा था//
आदरणीय pratibha pande जी आदाब,
इस बिहतरीन लघुकथा के लिए बधाई स्वीकार करें।
शीर्षक भी बहुत उम्द: रखा गया है। शुभकामनाएँ
चाहिए
राज्याभिषेक–समारोह में जन-मंडली ने अपने उद्गार,आकांक्षाएँ व्यक्त की। अब राजा के सम्बोधन की बारी थी।सभा-मंडप में एकदम शांति छाई हुई थी। वह अस्वस्थ होने की वजह से बैठे-बैठे ही जन- समूह को संबोधित करने लगा, ‘यह राजमुकुट आपका है।’
‘राजा हो तो ऐसा।’ जनता ने जोश का इजहार किया।
‘राजा नहीं, अपना प्रतिनिधि कहिए।’ राजा की वाणी आगे फूटी।
‘जय हो सरकार। माई –बाप।’ जन-रव तुमुल हो चला।
‘आपने अपनी वेदना व्यक्त की। दुखों का इजहार किया। मैं भी दुखी हुआ। अपने को कितना भी कोसूँ, कुछ फायदा तो नहीं होगा। खुद को कोसने के बदले मैं ऐलान करता हूँ कि अब हमारे साम्राज्य में कोई दबा-कुचला,वंचित नहीं होगा। जनता के भरण-पोषण का सम्पूर्ण भार अब राज-खजाने पर होगा।’ राजा अनवरत बोलता जा रहा था। जनता जय-जयकार करने में मशगूल थी।
राजा ने आगे जोड़ा, ‘अपनी उम्र और सेहत के चलते आपका यह राजमुकुट आपके हवाले करना चाहता हूँ। आप जिसे चाहें, इसे सौंप दें।’
‘दुहाई सरकार की। आप इसे जिसे सौंपना चाहें,हमें मंजूर है। मंजूर है......मंजूर है।’ जनमत ने स्वीकृति दी।
राजा ने राजमुकुट बगल में विराजमान नवयुवक के सिर पर रख दिया। फिर नवयुवक ने सभा के समक्ष शीश झुका आशीष की याचना की।
‘राजकुमार की जय हो....जय हो....जय हो।’ जन-पारावार ने जय-ध्वनि की।
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
आदाब। इस सांकेतिक तंजदार विचारोत्तेजक रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। चाहिए, वोट/समर्थन, और सत्ताहस्तांतरण के समयया उसके ठीक पूर्व के लुभावने ऐलान पर बढ़िया रचना। जनता की दुविधा, जयकारा और आशाओं/अपेक्षाओं पर भी।
आपका हार्दिक आभार आदरणीय उस्मानी जी। नमन।।
परिवारवाद पर सामयिक तंज।बधाई आदरणीय
आपका आभार आदरणीया प्रतिभा जी।
. माँ के आँचल-सा
मुन्ना साहब,
बहुत ही दुःखी मन से आपको यह पत्र लिख रहा हूँ। आप मुझको शायद ही पहचान पाएँ। परंतु मैं आपको बहुत वर्षों से या यूँ कह लीजिए बचपन से जानता हूँ।
मुझको याद है जब आपका जन्म हुआ था आपकी दादी ने एक बढ़ई से कहकर खास तौर से आपके लिये बनवाया था।
आप ज्यादातर तो सबकी गोदी में ही रहते थे। और क्यों न हो, आपके पिताजी के जन्म के बाद इस घर के आँगन में आप ही की तो प्रथम किलकारीयाँ सुनाई दी थी। अब आप को लग रहा था यह बात को मैं कैसे जानता हूँ। तो वो इसलिये की जब आप की माँ आपको याद करती और अपने पास बुलाने के लिये किसी को भेजती तो आपके परिवार के कई सदस्यों के मुँह से यही बात निकलती, "अरे बहू, इसको रहने दो न हमारे पास , शेखर के बाद अब मुन्ना ही तो आया है हमारी गॉद में। ऐसे तो मुहल्ले में रिश्तेदारों में बहुत बच्चे हुए पर अपना खून तो अपना ही खून होता है न।" तब आपकी माँ कुछ न कह पाती। उस समय बहुओं को घर में कुछ कहने की छूट कब मिलती थी? वह तो सहमी-सहमी-सी पर्दे में रहती थीं। आपके भूख के समय या तो सिर्फ रात को माँ के पास आना मिलता था। माँ के आँचल में आप कब जो जाते थे पता ही न चलता था। कुछ देर के बाद माँ आपको मेरे हवाले कर देती थीं और आप मेरे पास आराम से सो जाते थे। उस समय सब आपको मुन्ना बुलाते थे, मैं भी यही कहता था।
फिर जब जब बड़े हो गए, आपकी दुल्हन के कदम घर में पड़े। तब मैं आपके हवेली के एक बंद कमरे में दूसरे पुराने सामानों के साथ रहने लगा था। आपको याद होगा, आपके घर में जब गुड़िया का जन्म हुआ था, तब बहूरानी ने मुझको उस अँधेरे कमरे से निकाला था, और बढ़ई से बोलकर थोड़ा ठीक-ठाक करवाया था। उस चतुर बढ़ई ने मुझे पोलिश भी कर दिया था। उसके बाद आपके घर में जब बेटा पैदा हुआ तब भी मेरा उपयोग हुआ था। मैं अपने को बहुत गौरवान्वित महसूस करता था। यही सोचकर कि पहले आपके काम आया हूँ, और अब आपके बच्चों के। यूँ तो आपकी दादी की यह चौथी पीढ़ी थी। पर मैं इस समय तक एकदम फ़िट था। आपके घर मे कोई भी आता था, वो मुझको देखकर यह पूछे बिना न रह पाता, "अरे वाह! यह तो बहुत ज़ोरदार है। कहाँ से बनवाया। तब अगर आप घर पर होते तो अपने शर्ट की कॉलर को पहले तो ठीक करते फिर कहते, "यह तो मेरे दादी जी ने ...।" और वे लोग थोडी देर बैठकर चले जाते। इस समय तक तो आप एक फैक्ट्री के मालिक बन गए थे। अब हमारा मुन्ना साहब बन गया था।
आपको भी जब तक मेरे उपयोग की आवश्यकता पड़ी। आपने उपयोग किया उसके बाद अपनी पत्नी से कहकर वापिस उसी अँधेरे कमरे में रखवा दिया। मैं उस समय भी आपसे कुछ कहना चाहता था पर मोहवश कभी कह न पाया। और मैं दुबारा बंद कर दिया गया। जहाँ अब मैं टूटने लगा था, क्योंकि मेरे ऊपर किसी ने बहुत भारी वाली कोई पुरानी अलमारी रख दी थी। मैं सिसकता रहा पर मेरी आवाज़...।
अहा! आज तो मुझको सूर्य देव के दर्शन हो गए। मैं कितना खुश हुआ। बाहर आया तो देखा कि आपकी पत्नी की तस्वीर पर माला चढ़ी हुई थी। मैं कुछ पूछने के लिये हुआ कि दो लोग आए और उन्होंने मुझको उठा लिया। मुझको लगा कि अब मुझको किसी कमरे में ले ले जाया जा रहा। मेरे मन में यह सोचकर लड्डू फूट रहे थे कि अब मैं आपके बच्चों के बच्चों को भी काम आऊँगा। पर मेरा सोचना गलत था। वे लोग तो मुझको बाहर खड़े एक ट्रक में रख रहे थे। मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैं घबरा गया था, अपना इतने बरसों पुराना साथ ...तभी मैंने किसी को कहते सुना, "घोर कलियुग है, क्या ज़माना आ गया है, इसके बाप-दादाओं के समय की हवेली... और इसके नालायक बेटे ने सब कुछ अपने नाम कर लिया, और अब तो सुना है इसको भी घर खाली करने को कह दिया है। इसने अपने बच्चों के लिये कितना कुछ नही किया, बेटा तो विदेश में एक बार क्या गया वहीं का होकर रह गया..." मेरी समझ में कुछ-कुछ आने लगा था। मैंने देखा कि तुम मेरे करीब आ रहे हो। तुमने मुझको छुआ। मुझसे लिपट कर रोये तुम। हमारा मुन्ना...अब तुम कहाँ रहोगे? मन कर रहा था कि तमको पहले की तरह अपनी आगोश में ले लूँ। पर अब मैं लँगड़ा हो गया था, मुझपर बंधा कपड़ा भी न रहा था। तुम ने रोते हुए मुझसे कहा था, "तुमने मेरे बचपन मे अपने आगोश में सुलाया। अब बुढ़ापे में बच्चों ने वृद्धाश्रम का दरवाज़ा...।
और ट्रक ड्राइवर ने ट्रक स्टार्ट कर दिया। तुम पीछे रह गए। पर इस बीच मैं यह खत लिख चुका था। मैं तो तुम्हारे बचपन से ही तुमको खत लिख रहा था सोचा था कि तुम जब दादा बनोगे...।
खैर समय का खेल है मुन्ना साहब। यह खत जब तुम पढ़ रहे होगे, मैं बहुत दूर जा चुका होऊँगा और तुमको भी कोई ठिकाना मिल गया होगा। पर बेटा अब तो अधिकार रखता हूँ तमको बेटा कहने का। तुम को मैं कभी नहीं भूला पाऊँगा। क्योंकि तुम्हारी माँ की तरह तुम मेरी गोद में भी लोरी सुनते हुए सोए हो और खूब सोये हो।
अलविदा बेटा! तुम्हारा बुढ़ापा सही कटे। स्वस्थ रहना
मौलिक एवं अप्रकाशित
सादर नमस्कार। इस ख़ूबसूरत मानवेतर पत्रात्मक शैली की भावपूर्ण रचना से यह शतकीय गोष्ठी समृद्ध हुई है। हार्दिक बधाई आदरणीया कल्पना भट्ट जी। शीर्षक बहुत बढ़िया है। शीर्षक स्वयं पत्रलेखक को इंगित कर देता है, अत: यह पंक्ति भी बढ़िया है - //// आपकी दादी ने एक बढ़ई से कहकर खास तौर से आपके लिये बनवाया था।// - यहां वस्तु का उल्लेख करना अनिवार्य नहीं था। वैसे भी सम्पूर्ण रचना सुस्पष्ट है, प्रभावित करती है, पाठक को प्रवाह बाँधे रखता है अंत तक। मुझे भी यह शैली पसंद है। कुछ पंक्तियाँ कम या छोटी कर कुछ कसावट की गुंजाइश नज़र आती है।
जी धन्यवाद आदरणीय शहज़ाद उस्मानी जी। जी आपके सुझाव पर विचार अवश्य करूँगी। सादर।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |