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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-108 (विषयमुक्त)

आदरणीय साथियो,

सादर नमन।
.
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-108 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। इस बार का गोष्ठी को विषयमुक्त रखा गया है। आप अपने मनपसंद विषय पर लघुकथा प्रस्तुत कर सकते हैं। तो आइए मिलजुलकर इस गोष्ठी को सफल बनाएँ।  
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-108
(विषयमुक्त) 
अवधि : 30-03-2024 से 31-03-2024 
.
अति आवश्यक सूचना:-
1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी केवल एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
2. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
3. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, 10-15 शब्द की टिप्पणी को 3-4 पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है। 
4. एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हल्की टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पाए इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता अपेक्षित है। देखा गया कि कई साथी अपनी रचना पोस्ट करने के बाद गायब हो जाते हैं, या केवल अपनी रचना के आस पास ही मंडराते रहते हैंI कुछेक साथी दूसरों की रचना पर टिप्पणी करना तो दूर वे अपनी रचना पर आई टिप्पणियों तक की पावती देने तक से गुरेज़ करते हैंI ऐसा रवैया कतई ठीक नहींI यह रचनाकार के साथ-साथ टिप्पणीकर्ता का भी अपमान हैI
5. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति तथा गलत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी को बिना कोई कारण बताये हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
6. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि लिखने/लगाने की आवश्यकता नहीं है।
7. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
8. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें। 
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मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)
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स्वागतम

“ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-108

अंत नहीं है

“मुझे किसी दिन सुबह में बेहद ज़रूरी रहता है तुम्हारी सहायता की और जल्दी आने के लिए कहती हूँ तो दस बहाने बनाती हो! आज इतनी सुबह कैसे काम करने आ गयी?”
“अरे! अभनी एक काम नहीं हुआ न। बहुते बेल बजाने, किवाड़ थपथपाने के बाद भी डाकदर साब दरवाजा नहीं खोले। गाढ़ी नींदवा में होंगे।”
“क्या उनके साथ और कोई नहीं रहता है?”
“उनकी पत्नी दूसरे शहर नौकरी करती हैं अउरी बचवा सब हास्टल में रहता है। छुटटी-छपाटी में आवेगा सब।”
“तो तुम अकेले रहने वाले मर्द के घर में काम करने के लिए कैसे तैयार हुई?”
“डाकदर साब बड़े भले मानुष हैं। दरवाजा खोलने के बाद पलट के नहीं देखते हैं। कुछ नहीं बोलते-बताते हैं। मैं अपने मन से काम कर देती हूँ! काम करना ही क्या रहता है… बस रोटी भुजिईया बनाना रहता है रोज के रोज।”
“यह तो तुम जानों…! ऊँच-नीच होने वाले इस ज़माने में किस पर कितना विश्वास करना है!”
“पाँचों उँगली एक बराबर त नहीं ही होता है न?”
“कानाफूसी की चिंगारी लुपलुपाते भी…, सदा यह याद रखना कि तुम अपने पति से अनुमति लेकर सहायिका का काम करने नहीं निकली हो! ना तो तुम अग्नि परीक्षा में बचने वाली और ना तुम्हारे लिए धरती फटने वाली!”

आदाब। गोष्ठी का आग़ाज़ कर बढ़िया पेशकश हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया विभारानी श्रीवास्तव जी। 

ऊपर आयोजन का नाम लिखने के निर्देश नहीं हैं समूह में। रचना के अंत में 'मौलिक व अप्रकाशित' लिखना नियमानुसार व परम्परा अनुसार अनिवार्य है संक्षिप्त घोषणा रूपेण। सादर।

कथानक अनुसार और पात्र अनुसार क्षेत्रीय भाषा ने संवादों को स्वभाविकता प्रदान की है। चिर-परिचित विषय पर नयी पेशकश। विचारोत्तेजक और मार्गदर्शक। हार्दिक बधाई आदरणीया विभारानी श्रीवास्तव जी।

हार्दिक आभार उस्मानी जी
जी कई गलतियाँ हो गयी हैं…
बाद में ध्यान में गया…
 
घर
_____
 कल्लन वापस आ गया। दोस्तों की प्रश्नभरी निगाहों को नजरअंदाज करता वो चुपचाप अपना सामान जमाने लगा।महानगर के रेल्वे विस्तार में पश्चिम पुल के नीचे कल्लन और  साथियों का बसेरा था और वहाँ से दो ढाई किलोमीटर दूर ईस्ट पुल के नीचे कल्लन के चाचा का।
 चार दिन पहले कल्लन का चाचा कल्लन के पास आया था।
" देख, दो दिन बाद जब जलूस वलूस निकलेगा तो यहाँ लफड़ा पक्का होयगा।फिर यहाँ से तुम लोग को भगा देंगे।तू मेरे साथ चल" चाचा ने कल्लन को एक तरफ ले जाकर कहा।
चाचा के लहज़े से कल्लन समझ गया था कि किस  लफड़े की बात वो कर रहा है।
" हमें क्या लेना देना लफड़ों से।दो टाइम की रोटी का जुगाड़ मुश्किल है यहाँ तो" अपनी बाईस की उम्र से कहीं ज़्यादा की समझदारी कल्लन के चेहरे पर चिपक गई।
" वो ही तो कह रहा हूँ। वहाँ सामने हनुमान मंदिर में रोज भोजन प्रसादी मिलती है। छक के खाना रोज"
कल्लन ने माथे पर बल डालकर कुछ पल सोचने के अंदाज में बिताये और फिर बोला "चल देख लेते है तेरे ईस्ट पुल की शान भी"
 और आज चौथे ही दिन रात बारह बजे के आसपास  कल्लन  लौट आया।
"क्या रे! मंदिर की प्रसादी जमी नहीं या लंगड़े ने भगा दिया?" रऊफ  ने कल्लन  को छेड़ा। 
" अपना मन नहीं लगा यार। कसम से एक भी दिन सो नहीं पाया वहाँ।" कल्लन ने बीड़ी सुलगा ली।
" तू और सोया नहीं! सुबह पुलिस वाला डंडे से कोंचता हुआ थक जाता था तब तो जाकर तू उठता था यहाँ " रऊफ और साथी हँसने लगे। 
"चुप्प! अरे यार मालगाड़ियाँ  चीखते हुए खोपड़ी के ऊपर से गुजरती हैं वहाँ पर ,धड़ धड़ धड़ धड़  नामुराद बेशऊर टाइम बेटाइम। कोई कैसे सोये!"
"सर के ऊपर से गाड़ियाँ तो यहाँ से भी गुजरती हैं" रऊफ  मुस्कुरा रहा था।
" दोनो की बराबरी है क्या! अपनी बड़ी गाड़ियाँ हैं। ठाट वाली राजधानी। फिक्स टैम फिक्स आवाज, माथे पर थपकी सी देती हुई गुजरती हैं ऊपर से।" कल्लन ने अंगड़ाई लेते हुए आँखें बन्द कर लीं।
" चल सो जा। जम्मू राजधानी भी गुजर गई। पुलिस वाला सुबह जल्दी चक्कर लगाने लगा है आजकल" चद्दर बिछाते हुए रऊफ बोला।
कुछ पल सीधे लेटने के बाद कल्लन ने करवट लेते हुए एक टाँग रऊफ के ऊपर रख दी "कसम से यार, चैन तो अपने ही घर में आता है" नींद से बोझल होती आँखों को बन्द करता वो बुदबुदा रहा था 
_____
मौलिक व अप्रकाशित 
  


 

नमस्कार। गोष्ठी में दूसरी रचना की प्रस्तुति से गोष्ठी को बढ़िया रचना से गति देने हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी। कोशिश कर रहा हूं कुछ तात्कालिक लेखन की । विलंब हो ही गया।

“कसम से यार, चैन तो अपने ही घर में आता है" -सत्य कथन! काश देश के लिए यही सोच रखते हुए कोई विदेश की ओर नहीं बढ़ता…

'पश्चिमी पुल' और 'पूर्वी पुल' का बढ़िया प्रयोग। बोलचाल वाले शब्द 'ईस्ट' के बजाय 'पूर्वी' बेहतर होता। 'पश्चिम' की जगह 'पश्चिमी' या फिर 'ईस्ट' और 'वेस्ट'! ये‌ शब्द/पुल बिम्बात्मक भी हो सकते थे। उस स्थिति में कथानक अनुसार 'कल्लन वाला पुल ' 'पूर्वी पुल हो‌ और  चाचा वाला 'पश्चिमी', तो? ( यदि उल्लेखित रेलगाड़ियों के नामों का उनसे सीधा संबंध न हो)।

अपना निजी निवास स्थान/घर/देश ही अंततः सुख देता है और लौट कर यहीं आना होता है। बढ़िया पंच। बढ़िया संदेश वाहक रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी।

इन्सान के अंदर 'घर' की अवधारणा बहुत सशक्त होती है और  पुल के नीचे गुजर करने वाले आदमी को भी शाम ढलते अपने एक चादर की हद वाला ढौर याद आ जाता है। यही सोच है इस रचना के पीछे।पुलों के वर्गीकरण के पीछे प्रतीक जैसा कुछ नहीं है। आप ने रचना पर आकर अपने विचार रखे  हार्दिक आभार आदरणीय उस्मानी जी

शुक्रिया। मेरा आशय इसी रचना को बड़े फलक तक ले जाने से था। पश्चिम की ओर पलायन करते युवक की पूरब की ओर वापसी।

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