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आज नफरत की ये दीवार गिराई जाए.
आओ मिल-जुल के कोई बात बनाई जाये.
देखो दुनिया में ये तकदीर अहम है यारों,
छोड़ इसको यहीं तदवीर बनाई जाए.
वो भी अपना न लें अन्याय के आगे अनशन,
सारे बच्चों को यही बात सिखाई जाये.
सोंच जो नाज़ से पाले हैं सभी नें बच्चे,
आस उनसे न किसी रोज लगाई जाये.
यार झगड़ो न कभी जाति पंथ मज़हब पर,
तुम्हारे दिल में जली आग बुझाई जाये.
मुल्क में मेल अमन चैन प्यार कायम कर,
आज दुनिया को नयी राह दिखाई जाये.
--अम्बरीष श्रीवास्तव
यार झगड़ो न कभी जाति धर्म मज़हब पर,
तुम्हारे दिल में जली आग बुझाई जाये.
यहाँ 'धर्म' के स्थान पर 'पंथ' होना चाहिए.
'धर्मं स: धारयेत' जो धारण किये जाने योग्य (श्रेष्ठ, सर्व हितकारी, सर्वकालिक) है, वही धर्म है. पंथ की स्वीकार्यता सीमित है धर्म की शाश्वत.
स्वागत है आदरणीय आचार्य जी ! आपका सुझाव बहुत भाया.....वह मेरे लिए आदेश की तरह है .....ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका इस सम्पूर्ण हृदय से आभार.......:))
आपके आदेशानुसार धर्म' के स्थान पर 'पंथ' शब्द संशोधन करा दिया गया है |
आदरणीय अम्बरीषजी, आपने सही किया.
इस धर्म शब्द की नासमझों द्वारा बहुत बखिया उघेड़ी गयी है.
धर्म को मद्भग्वद्गीता में भगवान् ने कर्त्तव्य के लिहाज से भी प्रयुक्त किया है. और इसे अगर स्वीकार कर लिया जाए तो सारा कन्फ्यूजन समाप्त हो जाए.
//सोंच जो नाज़ से पाले हैं सभी नें बच्चे,
आस उनसे न किसी रोज लगाई जाये.//मुझे इस अशआर ने सबसे अधिक प्रभावित किया. बधाई कुबूल करें.
आदरणीय सौरभ जी! आस जब टूटती है तो व्यक्ति भी टूटकर बिखर सा जाता है ......जिस तरह समस्त पक्षी अपने बच्चों के उड़ने तक उनका भरपूर पालन पोषण व संरक्षण करते हैं ...परन्तु बाद में उनसे कोई भी उम्मीद नहीं रखते .......ठीक वैसे ही मानव यदि अपने बच्चों से आस लगाना छोड़ दे तो बहुत से दुखों का निराकरण स्वतः हो जाएगा !
सराहना के लिए आपका हृदय से आभार मित्र !
बात सोरहोआने सच. चौबीसो कैरेट टंच.
गाँव के गाँव, रिश्ते-रिश्ते, परिवार-परिवार, व्यक्ति-व्यक्ति तबाहोबरबाद हुए हैं... अव्यावहारिक आशाओं और उम्मीदों के चलते.
कर्त्तव्य/धर्म को निभाने की शिक्षा पर अमल करना सिखा दिया जाय तो बच्चे खुद-ब-खुद अपने बड़े-बुजुर्गों की ख़ैर करने लगते हैं.
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