आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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षड्यंत्र
"अरे ओ हरिया ये क्या सुन रहे हैं रे हम ! तोहार महरी चुनाव लडवे का चाही है ! " ठाकुर ने कडक स्वर में कहा।
"जी मालिक "
"अरे मुरख घर की औरत जात बिना घूंघट गांव भर में घुमते फिरेगी तो तेरी इज्जत का का होगा भैया ! तोहार खानदान की मान मर्यादा को मिट्टी में ना मिल जायेगी "
"पर मालिक ! "
"अरे ये चुनाव औरतो के लिए नही है पराये मर्दों के सामने.. छी... छी."
और महिला आरक्षित सीट पर ठकुराईन निर्विरोध चुनाव जीत गई !
मौलिक व् अप्रकाशित
गजब का षड्यंत्र. शोषित वर्ग ऐसे ही छला जाता रहा है.
प्रदत्त विषय के साथ पूर्ण न्याय हुआ है आ० बबिता चौबे शक्ति जीI लघुकथा बहुत प्रभावोत्पादक हुई है, जिस हेतु बधाई प्रेषित हैI आपको भी लिखते हुए काफी अरसा हो गया है, अब प्रयास करना चाहिए कि लघुकथा किसी क्षणिका सी न लगकर एक कहानी सी लगेI
रचना की बहुत मीठी क्षेत्रीय बोली बबिता जी मगर कटाक्ष गजब। फूलों में लपेट कर ढेला दे मारा आपने षड्यंत्र रचने वालों के खिलाफ। कम शब्द , सीधी बात। रचना देखन में छोटी लगी ज्यों नावक के तीर ..
वाह्ह्ह्ह, बहुत ही शानदार रचना , छोटी -सी सार्थक ,विषयानुरूप , बबिता जी,
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