आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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हार्दिक धन्यवाद आ. प्रदीप जी
" शठे शाठ्यं समाचरेत्"
लाला जगन्नाथ जी ऑफिस के अपने विशाल कमरे में उपस्थित अपने दोनों बेटे ,बहुओं और बेटी-दामाद को निहारते हुये अभी-अभी अतीत बने पिछले कुछ सीख दे गये कड़वे दिनों को याद कर रहे थे.
उम्र के इस पड़ाव पर कम सुनाई देना शुरू हुआ तो दोनों बेटों और डॉक्टर दामाद की जिद पर उनके द्वारा सुझाये गये बड़े-बड़े चिकित्सकों को दिखाया गया,पर हुआ कुछ और,ये साधारण रोग निपट बहरेपन में बदल गया.
बहरेपन का असर बिज़नेस पर पड़ रहा था,तो उन पर दबाव पड़ने लगा कि अगली पीढ़ी को जिम्मेदारी सौंप दी जाये.प्रयोग के तौर पर एक महीने बेटों को जिम्मेदारी सौंप वो एक योग- शिविर में शान्ति से रहने चले गये
यहाँ बहरेपन के उनके साथी बने उनके सबसे पुराने और विश्वस्त मुलाजिम राधेश्याम जी,जो परछाई की तरह उनके साथ चल शॉर्ट हैण्ड की भाषा में, जिस में लालाजी भी निष्णात थे,सभी के संवादों को लिखकर लालाजी तक सम्प्रेषित करने का काम कर रहे थे
शिविर से लौट कर लालाजी ने घर में ही कुछ दिन बिताये,राधेश्याम जी की अनुपस्थिति में यहाँ पहले की तरह इशारों की भाषा में ही परिज़न उनसे बात करते.पर अब उनकी असहायता पर उठते सवालों के अतिरिक्त दबाव को महसूस करते हुये सभी को उनकी पसंद के अनुसार कंपनी में काम और हिस्सा सौंपने हेतु कागजात तैयार कर सबको आज यहाँ बुलाया था.
राधेश्याम जी ने बारी-बारी सभी से कागजात पर दस्तखत करवा लिये.
दस्तखत कर सभी सन्तोष का भाव लिए एक दूसरे की तरफ देख मुसुकराते हुये चले गये.
उनके जाते ही लालाजी ने कानों से रूई निकाल एक फ़ोन लगाया - "हेलो वकील साब, जी हाँ,सभी के दस्तखत हो गये हैं .अब सब कुछ केवल मेरे नाम है .अब आगे क्या करना है ,इस बारे में सोचते हैं," फिर पलट कर राधेश्याम जी से बोले-
"हॉस्पिटल के सारे बिलों का भुगतान हो गया है न ?
शुभचिन्तक राधेश्याम जी की प्रश्नवाचक दृष्टि को ताड़ आगे उन्होंने कहा -
ये जो किया वो ज़रूरी था.
मेरे कान का रोग लाइलाज नहीं था,पर विश्वास जो टूटा उसका कोई इलाज है क्या ?
("मौलिक व अप्रकाशित" )
आ० महिमा वर्मा जी, आयोजन में अपनी पहली प्रस्तुति हेतु अभिनन्दन स्वीकारेंI आपने प्रदत्त विषय को परिभाषित करने का सद्प्रयास किया है, उसके लिए आपको बधाई देता हूँI लेकिन लघुकथा में अभी बहुत सी कमियाँ हैं, उनपर आपका ध्यानाकर्षण चाहूँगा:
1. लघुकथा 2 कालखंडों में बंट गई है, एक योग-शिविर में जाने से पहला का समय और दूसरा वहां से वापिस आने के बाद काI कालखंड दोष आ जाने से रचना लघुकथा रह ही नहीं जाती हैI
2. कथा के अनुसार राधेश्याम ने लोगों से कागज़ पर हस्ताक्षर ले लिए, अब सवाल ये पैदा होता है कि लाला जगन्नाथ जी बहरे थे या अंधे? अत: ये बात गले नहीं उतरती हैI
3. दस्तखत करने वाले भी इतने अनाड़ी कैसे हो सकते हैं कि बिना पढ़े दस्तखत कर दिए?
4. बिजनेसमैन ऐसा जो भी करते हैं केवल वकील की उपस्थिति में ही करते हैं .
5. कथा में स्वाभाविकता बहुत कम है और नाटकीयता हद से ज्यादाI
बहुत- बहुत धन्यवाद और आभार आपका आदरणीय योगराज प्रभाकर जी , लघु- कथा पर आपकी उपस्थिति और मार्गदर्शन के लिए. हमने कथा फ्लेशबेक में कहने का प्रयास किया था परंतु शायद स्पष्ट नहीं हो पाया ,पुनः आभार आपका ,
बहुत- बहुत धन्यवाद और आभार आपका ,आदरणीय ओमप्रकाश क्षत्रिय सर जी,
बहुत- बहुत धन्यवाद और आभार आपका , आदरणीय समर कबीर सर जी,
बहुत- बहुत धन्यवाद और आभार आपका आ.नीता जी, आप सभी के प्रोत्साहन से प्रयास कर रहे हैं,
बहुत- बहुत धन्यवाद और आभार आपका आ.शशि जी,
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