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ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की साहित्यिक परिचर्चा माह सितंबर 2020 :: एक प्रतिवेदन     :: सुश्री नमिता सुंदर

ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की ऑनलाइन मासिक ‘साहित्य संध्या’  20 सितंबर 2020 (रविवार) को सायं 3 बजे प्रारंभ हुई I  इस कार्यक्रम की अध्यक्षता हास्य के पुरोधा श्री मृगांक श्रीवास्तव  ने की I संचालन कवि मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने किया I कार्यक्रम के प्रथम सत्र में कवयित्री डॉ. अर्चना प्रकाश की निम्नाकित कविता पर उपस्थित विद्वानों ने अपने विचार रखे I

                      मृत्यु (कविता )

 मृत्यु एक आगाज़ है ,भव्य नव निर्माण का !

यह सरल कायाकल्प ,जीर्ण शीर्ण के उद्धार का।

चिर विश्राम स्थल ये ,श्रांत क्लांत आत्मा का ।

जीवन पथ से विरत, प्रपंच संवेगों को विराम ।

मृत्यु सेज सुख की, नित् नूतन धारण की ।

यह राह पर लोक की ,जीव के आवागमन की ।

सीना घावों से हो छलनी पल पल दूभर जीवन ।

मृत्यु सुनहरी छाँव ,  ले जाती दबे पाँव ।

छुड़ाती पल में सब गाँव,बना देती नव्य ठाँव ।

कब किसने देखा इसे ,कभी क्रूर कालिमा लागे।

कभी स्वर्णिम अप्सरा सी ।नयन मूंद विश्रांत जीव

ले जाती स्वर्ण हिंडोले में ।ये जीवन का चरम सत्य ,

इस छलना से क्या डरना ?हँस हँस गले लगाना है ,

फिर नूतन काया धर ।लौट धरा पर आना है ।

ये प्रेयसी असफल प्रेमियों की,विद्रुपिणी ये सुहागनों की ।

मोह में जकड़े हुओं की , क्रूर शाकिनी डाकिनी सी ।

है शूर वीरों के लिए ये ,भव्य द्वार अमरत्व का I

 

संचालक मनोज शुक्ल के आह्वान पर सर्व प्रथम सुश्री नमिता सुंदर ने उक्त कविता पर अपने विचार इस प्रकार रखे – ‘मृत्यु जैसे विषय पर यह एक बेहद सकारात्मक रचना है । अर्चना जी की यह कविता हमे  चरम सत्य को अंगीकार करने की ऊर्जा से भरती है ।‘

 अगली उपस्थिति सुश्री आभा खरे जी की थी । अपने विशिष्ट अंदाज़ में कविता की सांगोपांग व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा --"आदरणीया अर्चना जी ने अपनी कविता में मृत्यु के डर और दर्द को अलग-अलग भावों एवं आयामों के माध्यम से परिभाषित किया है । कविता नए बिम्ब , नए रास्ते एवं नए प्रमाणों से साक्षात्कार कराती चलती है।"

डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने कविता के मर्म को और अधिक व्यापकता से समझाने का प्रयास  किया । उनके अनुसार - "अर्चना जी ने मृत्यु की सत्यता के नाना आयामों का रूप सहेजा है। जीवन की अनुभूतियों से परे मृत्यु कवयित्री की नज़र में 'सुनहरी छाँव' भी है और आवागमन की राह में 'नूतन' काया बदलकर लौटने का पथ भी है।

आ. कौशाम्बरी जी की प्रवाहमय अभिव्यक्ति के अनुसार मृत्यु अंत नहीं , एक नयी शुरुआत का उदघोष है I  अर्चना जी ने अपनी कविता के माध्यम से इस कठिन सत्य को प्रमाणित करने का सफल प्रयास किया है।

तत्पश्चात डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव  ने अपनी सारगर्भित, विस्तृत एवं गंभीर विवेचना से हमें अन्तर्निहित अनेकानेक पक्षों से अवगत कराया। अंग्रेजी की कहावत, गीता के श्लोक , महामनीषी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरणों से अलंकृत गोपाल जी की टिप्पणी अपने आप मे एक संग्रहणीय साहित्यिक रचना है। उनके अनुसार डॉ. अर्चना जी की कविता में पारंपरिक विचारों की छाया तो है पर कुछ बातें उन्होने अपने मन की भी कही है और वही इस कविता की सबसे बड़ी बात है । यह दिव्यता ही पारंपरिक विषयों पर भाव-प्रकाश की भव्यता व दिव्यता है । शिल्प के स्तर पर अवश्य अभी अतिरिक्त अभ्यास की आवश्यकता है।

डॉ. शरदिंदु मुखर्जी ने अर्चना जी की कविता ‘मृत्यु’ पर सटीक व समग्र टिप्पणी करते हुए कहा कि यह रचना एक सकारात्मक व संवेदनशील रचनाकार के चिंतन की सरल और सपाट अभिव्यक्ति है I मृत्यु चिरंतन है व सर्वथा अर्थवाही । इसी सत्य को रचना के माध्यम से पूरे आत्मविश्वास के साथ दर्शाने हेतु कवयित्री को साधुवाद ।

आपदा को अवसर में परिवर्तित करते हुए ओ.बी.ओ. लखनऊ चैप्टर के सदस्यों ने अपनी मासिक गोष्ठी को विशेषतः समृद्ध करने का भरपूर प्रयास किया है। यह ऑनलाइन गोष्ठी के चलते ही संभव हो पाया है कि रचना पर विस्तार से चर्चा हो पायी और जो सदस्य व्यस्तता के चलते सम्मलित नहीं हो पाते, वे भी विचाराधीन कविता पर अपनी प्रतिक्रिया बाद में ऑन लाइन  उपलब्ध करा देते हैं। माह सितंबर की गोष्ठी में श्री अजय श्रीवास्तव, श्री नवीन मणि त्रिपाठी , श्री आलोक रावत के सानिध्य से, किन्ही अपरिहार्य कारणों के चलते वंचित रहे, पर उनकी रचनाये और प्रतिक्रियाएं हमे प्राप्त हुईं , जनका उल्लेख आगे किया जा रहा है I  

श्री अजय श्रीवास्तव  ने अर्चना जी की कविता ‘मृत्यु’ के क्रम में केवलाद्वेत, शुद्धाद्वेत, गीता की उक्ति तथा अंग्रेजी कवि Henry Wotton के संदर्भों को उद्धृत कर, कविता के गहनतम दार्शनिक पक्ष की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया । अजय जी ने प्रस्तुत कविता के माध्यम से परिलक्षित अर्चना जी के रचनाधर्मिता की प्रशंसा करते हुए कहा-  

"जहाँ तक काव्य योजना का संबंध है , कविता अतुकांत-तुकांत से प्रवाहित होती हुई , मंदाकिनी की भांति सरल-विरल रास्ते तय करती हुई हृदय तक पहुँचती है। काव्य शिल्प और शब्द संयोजन सरल है। कुल मिला कर कविता अपने उद्देश्य पूर्ण करती है।“

डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी  ने अपनी सरस रुचिकर टिप्पणी में अर्चना जी की कविता को अत्यंत दार्शनिक भावों से परिपूर्ण बताते हुए कहा कि रचना पढ़ने के उपरांत वह चर्चित पंक्तियाँ सहज ही जुबान तक आ जाती हैं- ‘ निर्भय स्वागत करो मृत्यु का..----‘

उनका यह भी मानना है कि जहाँ कविता की ' नयन मूँद विश्रांत जीव, ले जाती स्वर्ण हिंडोले में ' की पंक्ति का प्रश्न है तो यह मृत्यु का सुखद एहसास जगाती हैं एवं पाठक को मृत्यु के भय से मुक्त कर देती हैं I इसी प्रकार 'ये प्रेयसी असफल प्रेमियों की' पंक्ति निराशावाद को बल देती है और इस से बचा जा सकता था ।

श्री आलोक रावत ‘आहत लखनवी‘  ने अपनी समग्र और सशक्त टिप्पणी में व्यक्त किया – “ कविता पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्थायित्व प्रदान कर रही है। साथ ही जीवन की विद्रूपताओं से परिचित कराती हुई मृत्यु की सकारात्मक पक्ष को उजागर करती है । उनके अभिमतानुसार कविता की यह भावना कि ....’इस छलना से क्या डरना ' सार्वभौमिक सत्य को उदघाटित करती है और इसीलिये प्रभावित भी करती हैं।“

आदरणीय प्रदीप शुक्ल अपनी संक्षिप्त किन्तु प्रभावोत्पादक टिप्पणी में समीक्षा को कुछ यूँ समेटते हैं " मृत्यु को काव्यबद्ध करने का सराहनीय प्रयास पर मुझे इसमें नयेपन की कमी लगी। निम्न पंक्तियाँ विशेष आकर्षक लगीं - " इस छलना से क्या...गले लगाना है।“

कम शब्दों में अपने विचारों का सम्पूर्ण सम्प्रेषण क्र देना आदरणीया कुंती मुकर्जी की विशेषता है । उन्होंने कहा - " मृत्यु इतनी सुंदर भी हो सकती है। " इस छलना से ...." पंक्ति ने उन्हें विशेष तौर पर प्रभावित किया ।“

सुश्री संध्या सिंह ने रचना को रचनाकार के उत्तरदायित्व से जोड़ते हुए, अपने विशिष्ट प्रभावी अंदाज़ में समीक्षात्मक विवेचनाओं के इस सत्र के फलक को कुछ और व्यापकता प्रदान की। उनके शब्दों में ये रचना बहुत सघन, सार्थक है और मृत्यु के वरण को मानसिक रूप से तैयार करती है। ये भी एक उत्तरदायित्व है रचनाकार का कि वे पाठक को इस अवश्यम्भावी घटना से भयमुक्त करें। रचना गहरा दर्शन समेटे हुए है किंतु वे – ‘ये प्रेयसी है असफल प्रेमियों की ‘  पंक्ति से अपनी असहमति भी दर्ज कराती हैं और  कहती हैं ..ये रचना न सिर्फ़ मृत्यु का महिमा मंडन करती है , अपितु मृत्यु से प्रेम करने का बढ़ावा भी देती है।

संचालक श्री मनोज शुक्ल  ने कविता के विषय प्रकरण से थोड़ी असहमति व्यक्त करते हुए कहा  - "मुझे मृत्यु सुंदर नहीं लगती , न ही उसके बाद कोई अमरत्व दिखता है। दुःख या मृत्यु को चाहे जितना महिमामंडित किया जाए पर देश पर शहीद होने लोगों के अलावा कोई न मरना चाहता न दुःख सहेजना ।‘

कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री मृगांक श्रीवास्तव  के शब्दों में यह  सकारात्मकता से भरपूर रचना है । मृत्यु के सभी आयामों को खंगालती है I अपने अंदाज में बात को थोड़ा हास्य पुट देते हुए उन्होंने यह भी कहा कि -"अच्छा हुआ आपने मृत्यु की इतनी खूबियाँ गिना दी, अब हम लोग मृत्यु से भयभीत नहीं होंगे।‘

अंत मे डॉ. अर्चना प्रकाश  ने अपना लेखकीय मंतव्य व्यक्त किया , " मैंने जो महसूस किया. उसे ही शब्दों में पिरोया है। रहस्यात्मक चीजें मुझे अच्छी लगती हैं। जब लिख देती हूँ, रहस्य ख़त्म हो जाता है। जन्म और मृत्यु दोनों में ही एक सी अनुभूतियां देखी हैं मैंने। जैसे रीति-रिवाज जन्म पर किये जाते हैं ...वैसे ही मृत्यु पर भी किये जाते हैं।

इसी के साथ कविता की  विषयवस्तु, शैली, काव्य सौष्ठव पर गहन वैचारिक अभिव्यक्तियों , अनुभूतियों को समेटे गोष्ठी का प्रथम सत्र सम्पन्न हुआ।

  (मौलिक/ अप्रकाशित )

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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