आदरणीय साथिओ,
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कसावट भरपूर प्रभावशाली रचनाओं के लिए हार्दिक शुभकामनाएं आदरणीय बागी भाई जी । 'बाज़ार' लघुकथा का बहुआयामी शीर्षक बहुत ही प्रभावशाली है। /पापा शोपिंग मॉल में अभी छूट चल रही है, जितनी उम्र उतने परसेंट की छूट/ गोया घर भी बाज़ार हो गया और बुज़ुर्ग बाप वस्तु । वाह ! क्या बात है ! हार्दिक शुभकामनाएं भाई जी ।
आदरणीय रवि भाई, आपकी विवेचनात्मक टिप्पणी पा कर हृदय आह्लादित है, दिल से आभार आपका.
आदरणीय वीरेंदर वीर मेहता जी, लघुकथाओं की सराहना हेतु दिल से आभार व्यक्त करता हूँ.
आदरणीय तश्दिक अहमद खान साहब, उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत आभार व्यक्त करता हूँ.
आदरणीया नीता कसार जी, आप जैसी विदुषी से सराहना पाना मायने रखता है, दिल से आभारी हूँ .
वाकई में कड़क नोटों ने इंसान इंसान में एक रेखा खींच दी हैं।कठिन मुद्दे को आपने बढ़िया कथा के माध्यम से उठाया हैं।
जिस वृद्ध पिता को मॉर्निंग वाक के लिए साथ ले जाने में शर्म महसूस कर रहे हैं उन्हें क्या निस्वार्थ भाव से कोई भी मॉल ले जा सकता हैं?आपने दोनों ही कथाओं में एक कड़वे सत्य को उम्दा तरीके से प्रस्तुत किया हैं ।हार्दिक बधाई आ.गणेश बागी जी
लिए हार्दिक बधाई आपको
आदरणीया अर्चना त्रिपाठी जी, लघुकथा आप तक पहुँच सकी यह मेरे लिए प्रसन्नता की बात है, बहुत बहुत आभार आपका.
आदरणीय बागी जी
“हम डोम ही सही, मगर इंसान इंसान में फर्क जानते हैं यजमान.”
पापा शोपिंग मॉल में अभी छूट चल रही है, जितनी उम्र उतने परसेंट की छूट ....
दोनों ही पञ्च लाइने अद्वतीय हैं . इतनी सुन्दर रचनाओं के लिये आपका अभिवादन . सादर .
आदरणीय बड़े भाई डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी, लघुकथाओं पर आपका आना मानवर्धन कर गया, इस उत्साहवर्धन करती टिप्पणी हेतु दिल आभार व्यक्त करता हूँ.
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