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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-28 में शामिल सभी लघुकथाएँ

(1). सुश्री सीमा सिंह जी 
मायका

"रिक्शा रोकना, ज़रा!”
भाई को राखी बाँधकर वापस लौटते समय गुमसुम नंदिनी अचानक बोल पड़ी तो पतिदेव चौंक उठे। “क्या हुआ, कुछ भूल आई क्या?”
पति कुछ और बोलते, तब तक रिक्शा रुक गया था। किसी जादू के वशीभूत सी नंदिनी रिक्शे से उतरी, और कुछ ही पलों में वह रेलवे पटरी के उस पार, बरगद से बिल्कुल सटे हुए एक खाली प्लॉट में खड़ी थी।
अवाक पति भी लगभग भागते हुए उसके पीछे-पीछे वहाँ आ पहुँचा। “क्या बचपना है, नंदिनी?” घड़ी की तरफ़ नज़र डालते हुए पति ने झुँझलाते हुए कहा, “ट्रेन छूट जाएगी… समय हो गया है!”
पर, नंदिनी तो जैसे किसी और लोक में थी। वह वहीं नीचे बैठ गई, और दोनों हाथों से ज़मीन सहलाने लगी। उसकी इस हरकत को देखकर अब पति का पारा चढ़ गया।
नंदिनी को झंझोड़ते हुए भड़का “तुम ये कर क्या रही हो?!”
जवाब में नंदिनी की आँखें भर आईं। अब भी वह कुछ न बोली बस ज़मीन सहलाती रही।
“अचानक तुम्हें हो क्या गया है, नंदिनी?" पति की आवाज़ में परेशानी थी।
“ये… ये वही प्लॉट है जो बाबा के बाद हम दोनों बहनों को ब्याहने के लिए... भैया को बेचना पड़ा था,” नंदिनी बमुश्किल बोल पाई।
उसका जवाब सुनकर पति सकपका गया। वह कुछ बोला तो नहीं, पर नंदिनी की बाँह पर से उसकी पकड़ कमज़ोर ज़रूर हो गई।
“माँ यहाँ अपना घर बनाना चाहती थी।” एकाएक नंदिनी ने वहीं पास पड़ी हुई सूखी लकड़ी उठाई, और प्लॉट के दूसरे छोर पर जा खड़ी हुई। पति हतप्रभ उसे उस ओर जाते हुए देखता रह गया।
“ये, यहाँ पर माँ की रसोई… यहाँ पूजाघर... ये माँ-बाबा का कमरा, ये भैया का कमरा!” प्लॉट के छोर से लकड़ी से भुरभुरी मिट्टी पर नक्शा उकेरती हुई वह पीछे खिसकती आ रही थी। "और ये रहा हम दोनों बहनों का कमरा…” इससे आगे वह कुछ कहती, कि पति से टकरा जाने से वह लड़खड़ा गई।
पति ने फौरन उसे अपनी बाँहो में संभाल लिया। “चलो, नंदिनी, यहाँ से चलो। अब न माँ है, न बाबा रहे। और ये प्लॉट भी तो अब अपना नहीं है।” पति ने नंदिनी को अपने सीने में समेट लिया।
“सब समझती हूँ, पर... ज़रा सा रुक जाओ, न! दो पल… बस दो पल इस मायके का सुख और ले लूँ।” बुदबुदाते हुए, दोनों मुट्ठियों में प्लॉट की मिट्टी समेटे नंदिनी की नज़रें ज़मीन में उकेरे नक़्शे में मायका तलाशती जा टिकी।

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(2). नयना(आरती)कानिटकर जी 
"बापू का भात"


जग्गु अचानक ठोकर खा कर गिरा था या खाली पेट चक्कर खा कर पता नहीं पर सब दौडकर उठाते तब तक उसकी साँसे पुरी हो चुकी थी। 
मैयत से आकर दो घड़ी को उसके पास बैठे सभी अपने-अपने काम पर निकल गये थे। जिवल्या तो शायद कुछ ठीक से समझ भी ना पाया था . वो बाहर खेलता रहा। 
"अम्मा! अम्मा! उठ ना कब तक यही बैठी रहेगी। बहुत जोरों की भूख लगी हैं." जिवल्या साड़ी का पल्लू खींचकर उसे उठाने की कोशिश कर रहा था। 
वो तिरपाल और फूस से अस्थायी बनी झोंपड़ी के एक कोने मे चुपचाप अपने बढे हुए पेट पर हाथ धरे आसमान की ओर टकटकी लगाए बैठी थी। 
"अम्मा! देख तो सही, सुगना मौसी, कानी ताई, कम्मो फुआ सब लोग कितना सारा भात और चटनी ..रख के गये है. वो उसे उठने की बार-बार गुहार लगा रहा था। 
पेट को सम्हालते वो हौले से उठी और थाली मे भात परोस कर खिलाने लगी। 
"माई तू भी खाले। पता नहीं कल मिले ना मिले।" 
" क्यों ऐसा क्यो कह रहा" उसे सीने से लगाते उसके आँसू झरझर बहने लगे। 
"कल थोडे ना कोई लाकर देगा। वो फुआ कह रही थी आज तेरा बाप मरा है ना तो तेरे घर चुल्हा नही जलेगा। इस वास्ते भात रख के गई है वो।" 
"तो क्या कल..." 
"अब हमारे पास बापू कहाँ है मरने के लिए।" 
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(3). श्री सुधीर द्विवेदी जी 
सुख

'पल में तोला...'
पत्नी दरवाज़ा खोलकर बिना कुछ कहे-सुने रसोई में चली गयी थी। उसने दीवार घड़ी पर नजर डाली, छह बज चुके थे।
उसने झल्लाहट में सिर झटका और हाथ-मुँह धोने बाथरूम में घुस गया। पत्नी रसोई में घुसे-घुसे ही कनखियों से उसकी गतिविधियों पर बराबर नज़र रखे हुए थी। बाहर आकर उसने जान-बूझ कर गीला तौलिया वहीं सोफे पर पटक दिया और ज़ोर-ज़ोर से चाय सुड़कने लगा।
पत्नी बात-बात पर उसको टोकती थी, पर आज कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दे रही है? सोच-सोच कर अब उसे अजीब सी उलझन होने लगी। उसने टीवी ऑन कर लिया। थोड़ी देर में ही वह ऊब गया।
एकबारगी तो उसके मन में आया कि वह पत्नी से माफ़ी मांग ले। कल के झगड़े में आखिर गलती तो उसकी ही थी। टीवी बंद करके वह रसोई की तरफ बढ़ा। पर फिर वह रुक गया ‘ मैं अपनी तरफ से पहल क्यूँ करूँ ?’ उसका अहम जैसे रास्ता रोककर खड़ा हो गया था। वह वापस मुड़ा और सोफे में धंस गया।
अचानक उसने दराज़ में छुपाई सिगरेट निकालकर सुलगा ली।
" ख़बरदार जो इसे मुँह भी लगाया। मैं कल की अपनी कसम भूल जाऊँगी। फ़िर जितना चाहे उलाहना देना कि मैं बेवज़ह खीझती हूँ।" उसकी उंगलियों में फँसी सिगरेट छीनते हुए वह लगभग चिल्‍लाई। अब तक शांत दिख रही पत्नी ज्‍वालामुखी की तरह भभक उठी थी।
“तुम्हें मेरी परवाह करने की जरूरत नहीं है!” उसने बेतकल्लुफी से जवाब दिया।
"पर मुझे है। मुझे खिझाने में तुम्‍हें बहुत मज़ा आता है न ?’’ वह अपनी कमर में दोनों मुट्ठियाँ टिकाए बिल्कुल उसके सामने खड़े होकर चुनौती देती मुस्कुरा रही थी।
जवाब में उसने पत्नी को खींचकर अपने पास बिठा लिया। पत्नी के कंधे पर झूल आए बालों को उसने प्‍यार से परे सरकाया और शरारती नजरों से उसके चेहरे को निहारने लगा।
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(4). श्री मोहम्मद आरिफ जी 
मसीहा


केसरीमल जैन साहब के पास ईश्वर का दिया सबकुछ है । धन-ऐश्वर्य से संपन्न और पूरे शहर में साख । दो लड़के हैं । दोनों के नाम दो शॉपिंग मॉल और शहर का पहला मल्टीप्लेक्स सिनेमा ।
केसरीमल जी उदार हृदय , करुणा-ममता और सहयोगी व्यक्तित्व के धनी है । ग़रीबों , अनाथों के प्रति उनके मन में दया भाव है । उन्हें जीवन की असली ख़ुशी तो सेवाधाम आश्रम में जाकर मिलती है जहाँ वे अपना जन्म दिन और परिवार के दिवंगत आत्माओं की पुण्य -तिथि हर वर्ष मनाते हैं ।
आज सेवाधाम में केसरीमल जी ने बड़े धूमधाम से अपना साठवाँ जन्म दिवस दीन-दुखियों , अनाथों , अपाहिजों के बीच मनाया और उनके साथ भोजन भी किया । अंत में आश्रम संचालक सुधीर भाई ने कहा-"केसरीमल जी , बरसों से आप हमारे आश्रम में आकर शोभा बढ़ा रहे हैं । हम आपका आभार कैसे व्यक्त करें । हम आपके आगे बहुत छोटे हैं ।"
केसरीमल जी -"मैं तो ईश्वर का निमित्त मात्र हूँ ।"
सुधीर भाई-"यह आपका बड़प्पन है ।"
केसरीमल जी-"नहीं !नहीं !!
"यह सब तो मैं.......।" कहते-कहते केसरीमल जी एकदम रूक गए । सुधीर भाई की जिज्ञासा और बढ़ी । कहने लगे-"जी, केसरीमल जी आप बताइए, क्या कहना चाहते हैं ?"
" आश्रम की विजिटिंग-बुक में ही लिख देता हूँ । विजिटिंग-बुक मँगवाइए ।"
सुधीर भाई ने ज़ल्दी से विजिटिंग-बुक मँगवाई और केसरीमल जी के आगे कर दी । केसरीमल जी ने बहुत ही छोटे से वाक्य में सबकुछ कह दिया -"स्वांत: सुखाय ।"
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(5). श्री सुनील वर्मा जी  
आनंद पथ

"अररे सत्यनारायण.." घर के पुराने कमरे से एक बूढ़ी आवाज़ बाहर आयी|
कोई जवाब न पाकर कमरे से दूसरा नाम उच्चारित हुआ "अररे हरिराम..! कोई सुन रहा है क्या ?"
पाँच दस मिनिट के इंतज़ार के बाद एक लंबी खाँसी की आवाज़ बाहर आयी और साथ में तीसरा नाम भी "विष्णु..."
इस बार भी आवाज़ संबोधित व्यक्ति द्वारा अनसुनी होकर घर में मौजूद दूसरे बूढे़ कानों से टकराई। कमर से झुकी वह औरत कमरे में पहुँची। वहाँ बैठते हुए दीवार के सहारे कमर को सीधा किया और पूछा "क्या चाहिए?"
"कब से आवाज़ लगा रहा हूँ। सत्तू, हरिया, बिस्सु कोई नही सुन रहा। एक गिलास पानी चाहिए था।" बूढ़े ने खिन्न होकर कहा।
"बेटा बंटी..." इस बार बुढ़िया ने आवाज़ लगायी।
"हाँ दादी।" दस बारह साल का एक लड़का दौड़ता हुआ आया।
"बेटा, तेरे दादाजी को एक गिलास पानी ला दे।" बुढिया ने कहा।
लड़के ने सहमति में गरदन हिलायी और भागता हुआ कमरे से बाहर निकल गया। बहुत देर से लंबित कार्य का यूँ दो पल में हो जाने पर बूढ़े को अतीत का एक कथन याद हो आया जब पंडित जी ने उसे समझाते हुए कहा था "अरे केदारनाथ जी, आप अपने बच्चों के नाम भगवान के नाम पर ही रखियेगा, इस बहाने प्रभु स्मरण भी हो जाया करेगा| प्रभु के नाम का जाप होगा तो बुढ़ापा आराम से कटेगा।"
"लो दादाजी।" लड़के ने उसके सामने गिलास बढ़ाते हुए कहा तो वह आवाज़ सुनकर वर्तमान में लौटा।
जीवन भर छद्म भाव की श्रद्धा में डूबा वह भक्त अपने सामने खड़े पोते को देखकर मुस्कुरा दिया। अपने तकिये के नीचे से 'मीठी रंगीन गोलियाँ' निकालकर उसने अपने प्रभु की हथेली में रख दी।
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(6). सुश्री वसुधा गाडगिल जी 
पाँच से नौ 

नौकरी से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर ज्योति एक एन. जी.ओ. से जुड गई थी। वह रोज शाम बच्चों को पढाने स्कूल चली जाती थी। आज स्कूल से आते ही बेटे दिनेश ने उसके सम्मुख अपनी बात रखी।
"माँ,स्कूल यह का समय आपकी सेहत पर बुरा असर डालेगा। इसे बदलिए,यह कोई समय है भला! शाम पाँच से सुबह नौ बजे तक?"
"मेरी  सेहत को कुछ नहीं होगा बेटा, स्कूल का यह समय रखना मेरी मजबूरी है।" ज्योति ने शांत भाव से बेटे के नकारात्मक रुख पर गौर करते हुए कहा।
"कैसी मजबूरी?"
"सुनना चाहते हो?"
"जी ...बताईए"
"रात में इन बच्चों की माँएं ग्राहकों को खुश करने जाती हैं। कभी बार में, कभी पाँचसितारा होटल में, बडे लोगों के बंगलों पर ...जब ये बच्चे छोटे थे,तब इन्हें वे पलंग के नीचे सुलाती थीं। अब बडे हो गये हैं, रेड लाईट एरिया की ये औरतें अपने बच्चों को मेरे पास छोडकर निकल जाती हैं, उस बदनाम सर्विस इंडस्ट्री में।"
"तो क्या आप ऐसे इलाके में पढ़ाने जाती हैं? इनकी ज़िम्मेदारी भी आप पर है ..!"
"नही,मुझ पर कोई ज़िम्मेदारी नही है। बिन बाप के इन बच्चों को पढ़ाने, उन औरतों को  मदद करने में, मुझे असीम सुख मिलता है। ये बच्चे, उस नर्क से निकलकर नयी दुनियाँ बसा ले...बस मेरा यह सपना है। "
"ऐसे सपने कभी साकार नही होते माँ..."
" तुम्हारे पिताजी, मुझे ऐसी ही बस्ती से ब्याह लाये थे। शादी के बाद उन्होंने मुझे पढाया और नौकरी करने की हिम्मत दी। उनका सपना तो पूरा हुआ था फिर मेरा क्यों नही होगा?" यह सुनकर दिनेश पिताजी की तस्वीर के सम्मुख जडवत हो गया।
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(7). डॉ टी आर सुकुल जी 
सुख, अपनों का 

‘‘ आपने मुझे पाला, पढ़ा लिखा कर योग्य बनाया, तो यह तो आपका कर्तव्य था। अब आप हमसे यह अपेक्षा क्यों करते हैं कि हम इस कारण आपके आदेशों के गुलाम बने रहेंगे?‘‘ रवि अपने चाचा से कहते हुए उठ खड़ा हुआ।
‘‘ यह बात नहीं है बेटा! तुम्हारी भलाई के लिए ही हम अपने अनुभव की बात करते हैं, तुम्हारे पिता होते तो क्या उनसे भी यही कहते?‘‘
‘‘ क्यों नहीं ? मेरा अपना सोच है, अपनी मान्यताएं हैं, उनमें कोई बाधा डाले यह मैं नहीं चाहता ।‘‘ कहते हुए रवि बाहर चला गया।
पास में बैठे रवि के चाचा के मित्र बोले,
‘‘ मलय ! तेरा पुत्र और पुत्री भी इसी प्रकार अपने अड़ियलपन से विदेश जाकर वहीं बस गए। अब ये भतीजा भी बगावत पर उतर आया है, इसने तो मेरा भी लिहाज नहीं किया ! धिक्कार है ऐसी संतान पर ! ‘‘
‘‘ शायद अपनों का सुख इसे ही कहते हैं‘‘
‘‘ जिससे अन्य लोग शेर की तरह डरते हों उसे अपने ही घर में क्या हो जाता है ?‘‘
‘ अब क्या बताएं नरेश !‘‘
‘‘क्या मतलबं?‘‘
‘‘ मेरी स्थिति भी ‘भारत‘ की तरह हो गई है, वह ‘चीन‘ और ‘पाकिस्तान‘ कीे बमबारी से एक साथ जूझ सकता है पर अपने ही घर के पत्थरबाजों के सामने पंगु हो जाता है, मूक हो जाता है।‘‘
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(8). श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय जी

सुख

रमन ने चकित होते हुए पूछा,' उस को पास बहुत सारा पैसा था. फिर समझ में नहीं आता है उस ने यह कदम क्यों उठाया ?'
' पैसा किसी सुख की गारण्टी नहीं होता है,' मोहित ने दार्शनिक अंदाज में जवाब दिया.
' क्यों भाई ? क्या तुम नहीं चाहते हो कि तुम्हारे पास गाड़ी हो, बंगला हो, कार हो और नौकरचाकर हो ?' रमन ने अपनी इच्छा व्यक्त की.
' चाहने से क्या होता है ?' मोहित ने  जवाब दिया, ' यह सुख हमारी किस्मत में नहीं है. हम तो दो रोटी रोज कमाते और खाते हैं. किराए की गाड़ी और किराए का अच्छा मकान ही हमारी सब से बड़ी खुशी है.'
' यही तो मैं कह रहा हूं. उसे अपने भरेपूरे घर में क्या कमी लगी थी जो उस ने ऐसा किया है,' रमन बोला,' हम जिस चीज के लिए तरस रहे हैं, वह सब उस के पास थी.'
' सही कहते हो भाई ! वह जब जो चाहती थी, कर सकती थी. एक हुक्म देती और सभी नौकर उस के सामने हाजिर हो जाते थे. ऐसा सुख उसे कहां मिलेगा ?' मोहित ने पूछा.
"अरे ! जिस सुख की चाहत में वह अपने बच्चों और पति को छोड़ कर ड्राइवर के साथ भागी वह तो उसे मिलेगा ना?' रमन मुस्करा कर बोला तो मोहित ने जवाब में अपने दोनों कंधे उचका दिए.

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(9). सुश्री अपराजिता जी

बरसी

" मैं इन कर्मकांडों मे यकीन नही रखता और वैसे भी छुट्टी मिलना मुश्किल हीं है पापाजी । "
मां की पहली बरसी पर घर आने के लिए कह रहे थें पापा । फोन बंद कर निश्वास लेता राहुल गाड़ी स्टार्ट कर कॉलनी से निकल मुख्य सड़क की ओर बढने लगा । बारिश के कारण सामने की कांच पर वाइपर तेजी से चल रहा था और मन उससे भी तेज ....
माँ की तेरहवीं मे हैसियत से अधिक दान की व्यवस्था की थी पापा ने । मगर इन ब्राम्हणों का पेट मानो अंधा कुंआ था । बात - बात पर रिवाज और धर्म का वास्ता दे रहे थें
" यजमान , फलां दान न किया तो परलोक में ठकुराइन को सुख नही मिलेगा ।"
अंत मे गोदान की जिद पर राहुल भड़क उठा था " आप के लालच ने धर्म को कर्मकांड का ऐसा दलदल बना दिया है जिसमे मुक्ति है न सुख शांति । इससे बेहतर था हम किसी गरीब को दान देते । कम से कम दुआ तो मिलती माँ को । "
फिर भयंकर बवाल हुआ था ... पापा हाथ जोड़े बिदके हुए ब्राम्हणों को मनाने मे लगे थें ...और बड़े भैया उसे डांट कर आंगन से बाहर खींच लाए थे। सब याद कर उसकी आँखे नम हो आयीं । तभी सामने कॉलनी के तीन चार स्कूली बच्चे और उनकी मम्मी गाड़ी रोकने का इशारा करते दिखे ।
अचानक तेज हवा के साथ आई बारिश से बचाने मे उनकी छतरी नाकाम हो रही थी और स्कूल बस आने में कुछ समय बाकी था । उसने जल्दी से गेट खोलकर बच्चों को अंदर बिठा लिया ।
पिछले साल ही राहुल ने इस कॉलोनी में घर लिया था । वो अक्सर देखता कि हर मौसम में बच्चे खुले में खड़े स्कूल बस का इंतजार करते हैं । एक शेड तक की व्यवस्था न थी ।
बरबस ही उसके चेहरे पर मुस्कान तैर गयी ...माँ की बरसी पर ब्राम्हणों का बेहतर विकल्प मिल गया था । और पूरी उम्मीद थी कि उसके इस कदम से माँ को परलोक में सुख जरूर मिलेगा जो तमाम उम्र सभी के सुख - दुख मे सांझीदार रहीं थी ....
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(10). सुश्री जानकी वाही जी. 
झलकती हँसी

" आम कैसे दिए ? "
लम्बी गाड़ी से नीचे उतरे साहबनुमा आदमी ने आँखों में पहने काले चश्में को हलका सा उठाकर ठेली पर सजे आमों पर एक नज़र डालते हुए पूछा।
" बाबूजी ! ये वाले सौ रुपये किलो हैं ।"
ठेले वाले ने करीने से सजे चमकते पीले रंग वाले बड़े आमों की ढेरी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा। एक नज़र ठेली पर डाल कर दूसरी तरफ़ लगी ढेरी की ओर देखकर चश्मे वाला बोला-
" ये दूसरी ढेरी वाले आम कैसे दे रहे हो ? सौ रूपये किलो ज्यादा महंगा नहीं कह रहे हो तुम ? "
कार वाले ने रुमाल निकाल कर चश्मा साफ़ करते हुए फल वाले को अच्छे से घूरा मानो ये परख़ रहा हो कि फल वाले के ऊपर उसका कितना रुआब पड़ा है।
" बाबूजी ! इनको छोड़िये ये वाले आपके मिज़ाज़ के नहीं हैं।आप तो ये लीजिये लखनऊ का ठेठ मलिहाबादी आम,इसकी गुठली इतनी पतली की खाने का मज़ा आ जाय।"
फल वाले ने पहली ढेरी की तारीफ़ के कशीदे काढ़ते हुए कहा। तभी खड़-खड़ करती एक पुरानी साईकिल चमकदार लम्बी गाड़ी के बगल में आकर रुकी। उसमें से पसीने से लथपथ उतरा आदमी चश्में वाले के बगल में खड़े होकर ठेली के आमों को नज़रों से परखने लगा।फिर फल वाले से बोला-
" आम कैसे दिए भईया ! "
" ये आम पचास रूपये किलो हैं ।" पहली ढेरी की ओर इशारा करके फल वाला फिर कार वाले की ओर मुख़ातिब हुआ।
" साहब ! कितना तौल दूँ ? सच कह रहा हूँ इनकी मिठास लेने के बाद आप हमेशा मुझसे ही आम लेंगे।"
तराजू पर आम रखते हुए फल वाले ने कहा।
कार वाला नाक में रुमाल रखता हुआ साईकिल वाले से जरा परे खिसका। और बोला-
" पहले थोड़ा दाम ठीक लगाओ।कोई एक किलो नहीं लेने हैं। "
" भईया ! मुझे देर हो रही है पहले मुझे आम तौल दो।ये दूसरी ढेरी वाला कैसे दिया ?" साईकिल वाले ने ज़ल्दी मचाई।
" ये महंगा वाला है। "
उसको नज़रअंदाज़ किया फलवाले ने।
" कित्ते रूपये किलो है ? " साईकिल वाला मन ही मन कुछ हिसाब सा लगाता हुआ बोला।
खीझता हुआ फलवाला बोला-
" सौ रूपये किलो है। हाँ तो साहब ! कितना तौल दूँ।"
आशा भरी नज़रों से वह कार वाले को देखने लगा।
" अस्सी के भाव लगाओ तो पांच किलो तौल दो । लगता है तुमने आम के साथ गुठलियों के भी दाम जोड़ दिए । कुछ ज्यादा ही तारीफ़ कर रहे हो गुठलियों की भी। "
कुछ व्यंग और कुछ ग़ुरूर से साईकिल वाले की तरफ देखकर कार वाला बोला।
" भईया ! आप लोग मोल भाव बाद में करते रहना।पहले मुझे ये बढ़िया वाला तौल दो पांच किलो। "
कहकर साईकिल वाले ने पांच सौ का करारा नोट ज़ेब से निकालकर फलवाले के सामने रख दिया।
इधर फलवाले ने नीची नज़रो के साथ आम तौलने शुरू किये। और तुलते मीठे आमों की खुशबू साईकिल वाले की नज़रों में अपने बच्चों की मीठी हँसी के रूप में झलकने लगी।
इधर कार वाले का हाथ रूमाल सहित अपनी नाक से खुदबख़ुद हट गया।
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(11). सुश्री अर्चना त्रिपाठी जी
विश्वासघात का सत्य 


" अरे ! मम्मी आप अब भी मुझे क्यों कोचिंग छोड़ने की परेशानी उठाती हो ? क्या आपको मुझपर विश्वास नही हैं ? "
" क्यो नही होगा ?" कहने को उर्मिला बिटिया श्रेया को कह तो गई लेकिन अतीत असँख्य सवालों सहित उसके समक्ष आ गया :
उसकी बड़ी बहन के विवाह के लिए रिश्ते देखे जा रहे थे।एक प्रस्ताव में लड़के ने उसे विवाह के लिए पसन्द कर लिया था। जिसे मम्मी ने यह कहते हुए मना कर दिया था की बड़ी के बाद विचार करेंगे।लेकिन उन्हें सब्र नही था। वे दोनों चोरी-छिपे मिलने जुलने ही नही लगे थे बल्कि सारी दुनिया को ताक पर रख कर घर से भाग गए। फिर प्रेम विवाह कर लिया।इस सच को मम्मी-पापा महीनों स्वीकार नही कर पाए थे।
" मम्मी कहाँ खो गयी हो ?"श्रेया ने उसे झिंझोड़ते हुए पूछा
हकीकत की धरातल लौटती उर्मिला बड़बड़ा उठी " कैसे तुझपर विश्वास कर तुझे खुला छोड़ दूं ? वैसे भी अपने सुख के लिए मैं थोड़ा इंतजार ना कर सकी । फिर अपने ही द्वारा किये गए विश्वासघात के सत्य को तो मैं झुठला ही नही सकती ।"
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(12). श्री तेजवीर सिंह जी 
सुख के बदलते रंग

 "बाबूजी, आप अपना सारा सामान समेट लो|  इस बार मैं और सुधा आपको अपने साथ ही,  रहने के लिये,  लखनऊ लेकर जायेंगे"।
"अरे वाह, यह चमत्कार कैसे हो गया बेटा अशोक? पहले तो सुधा, मेरा  लखनऊ आना पसंद ही नहीं करती थी"?
"नहीं बाबूजी, सुधा को आपसे कोई गिला शिकवा नहीं था। उसे डर लगता था कि आपके वहाँ रहने से बबलू को कुछ ज्यादा ही आज़ादी मिल जाती थी। उसे तो बस बबलू के बिगड़ने की चिंता सताती रहती थी"।
"तो क्या अब नहीं बिगड़ेगा बबलू"?
"अब तो बबलू को नैनीताल हॉस्टल में भेज दिया है"।
" मैं तो बबलू के लिये ही लखनऊ  जाता था| अब मुझे वहाँ क्यों ले जाना चाहते हो"?
"बाबूजी, अब आपकी उम्र हो गयी है। आपको पूरे आराम और देख भाल की जरूरत है"।
"वह तो यहाँ भी भरपूर मिल रहा है। तेरा भाई रमेश और उसकी पत्नी मेरा बहुत ख्याल रखते हैं"।
"पर बाबूजी शहर जैसी मैडीकल सुविधायें तो यहाँ गाँव में नहीं मिलती हैं ना"?
"पर मुझे तो ऐसी कोई विशेष बीमारी भी नहीं है"।
"बाबूजी, इसके अलावा शहर में और बहुत सी सुख सुविधायें भी तो होती हैं जैसे टी वी, अखबार, घूमने के लिये पार्क, दर्शन करने के लिये  सुंदर मंदिर और सिनेमाघर आदि"।
" टी वी वाले कमरे में तो अधिकतर तेरी बीवी सुधा ही बैठी रहती है"।
"अब तो सुधा  भी जॉब करने लगी है बाबूजी"।
तभी वहाँ छोटे बेटे रमेश की लड़की एक लाठी लेकर आगयी।
 "दादू, अपने सामान में यह लाठी भी रख लेना"।
"वह किसलिये मेरी गुड़िया"?
"ताई जी मम्मी से कह रही थीं कि बाबूजी हमारे साथ रहेंगे तो चौकीदार भी नहीं रखना पड़ेगा"।
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(13). श्री तसदीक़ अहमद खान जी

अहसास

आज का दिन रहीम बाबू के लिए ईद से कम नहीं , लेटर पढ़ते ही बीवी को आवाज़ देकर कहने लगे

" हज पर जाने वालों में अपना नंबर आ गया "
बीवी फ़ौरन पास आकर बोलने लगीं:

"अल्लाह का लाख लाख शुक्र है ,बेटा और बेटी की शादी हो गई ,हज का बुलावा भी आ गया "
दोनो आपस में खुशी का इज़हार कर ही रहे थे कि अचानक पड़ोस में अनवर के घर से शोर सुनाई दिया | रहीम बाबू फ़ौरन अनवर के घर के बाहर जा कर देखने लगे| अनवर की बीवी गुस्से में अनवर से कह रही थीं:

" तुम घर में बैठे रहते हो , तीनों बेटियाँ सयानी हो गईं ,घर का खर्च उनके कारचोब का काम करने से चलता है ,इनकी शादी की तुम्हें कोई फ़िक्र नहीं ?"
रहीम बाबू फ़ौरन घर वापस आए ,बीवी से कुछ गुफ़्तुगू करने के बाद दोनो अनवर के घर जा कर उसकी बीवी को एक थैली हाथ में देकर बोले:

" इस में दो लाख रुपये हैं जो हम दोनो ने हज के लिए रखे थे ,लेकिन तुम्हारे हालात देख कर लगता है कि हमारे हज से ज़्यादा ज़रूरी है तुम्हारी बेटियों की शादी ?"
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(14). सुश्री बरखा शुक्ल जी 
'माँ का प्यार '


नीना ने किचन में सुना उसके सौतले मामा उसके पिताजी को बता रहे थे , "लड़का नीना के लिए बहुत अच्छा है , बैंक में ऑफ़िसर है , उम्र भी कुछ ज़्यादा नहीं है , बस एक ३ साल की बेटी है,उसी को जन्म देते समय पहली पत्नी चल बसी । यदि आपको और नीना को पसंद हो तो बात चलाऊँ । "
"हाँ पहले नीना से पूछ ले नहीं तो सब कहे सौतेली माँ ने कैसी जगह शादी कर दी । आप नीना से बात कर ले ,जब तक मैं भैया के साथ बाज़ार हो कर आती हूँ । साथ में छोटू को भी ले जा रही हूँ । "नीना की सौतेली माँ बोली ।
उनके जाने के बाद पिताजी ने नीना को बुलाया , नीना बोली "पिताजी मैंने सब सुन लिया है ,और इस शादी से मुझे कोई ऐतराज़ नहीं है ।"
बेटा मुझे बाक़ी सब तो ठीक लग रहा है ,पर उसकी एक बेटी भी है , पिताजी बोले ।
"और मैं उस बच्ची के कारण ही शादी के लिए तैयार हूँ , मैं ये नहीं कहूँगी की माँ ने मुझे दुःख दिए है , पर उन्होंने मुझे माँ के प्यार का वो सुख भी नहीं दिया जो वो छोटू को देती है , बस एक कर्तव्य निभाती रही । मेरी सहेलियों का अपनी माँ से जैसा रिश्ता था ,वैसा मेरा माँ के साथ कभी रहा ही नहीं । मैं शादी कर के उस अनदेखी बच्ची को माँ के प्यार का सुख देना चाहती हूँ । मैं उसके साथ मोह का वो रिश्ता क़ायम करना चाहूँगी जो इक माँ बेटी के बीच होता है ।पिताजी आप इस रिश्ते के लिए हाँ कर दे ।"नीना बोली ।
पिताजी माँ के प्यार को तरसती अपनी बेटी को अवाक् देखते रह गए 
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(15). श्री शेख शहज़ाद उस्मानी जी 
गरम भजिये 

अपने दोनों बच्चों के ट्यूशन सेंटर चले जाने के बाद अकरम साहब घर के बगीचे में आराम कुर्सी पर पसरे हुए कुदरती ठंडी हवा के मज़े ले रहे थे। तभी उनके मूड के मुताबिक कुछ भजिये और कड़क चाय का कप लेकर उनके नज़दीक पहुंच कर उनकी बीवी ने कहा- "लीजिए जनाब, कुछ गरमा-गरम भी लीजिएगा।"
ऊपर से नीचे तक बीवी को निहारने के बाद उनके हाथ में ट्रे को ग़ौर से देख कर वे बोले- "बहुत-बहुत शुक्रिया। लेकिन ये चाय किसी दूसरे कप में लाओ।"
"क्यों?"
"कितनी बार कहा है कि इस तरह के कप में मुझे चाय पीने का मज़ा नहीं आता!"
"क्यों?"
बेरुखी से ट्रे से चाय का कप उठाते हुए अकरम साहब बोले- "इसका आकार, इसके होंठ तो देखो ज़रा; बिल्कुल तुम्हारी तरह?"
"तो इस उम्र में ये भी तुम्हें ज़ीरो फिगर और पतले होंठों वाला चाहिए!" टेढ़ा सा मुंह बनाते हुए चाय का कप वापस ट्रे में रखकर बीवी रसोई की ओर जा ही रही थी कि एक और ताना सुनाई दिया।
"सुनो, फ्रिज़ की बोतलें पुरानी हो गई हैं। नई बोतलें तुम मत ख़रीदना। इस बार मैं ख़ुद लाऊंगा। तुम्हारे दिमाग़ में तो एक ही आकार-प्रकार बसा हुआ है!"
"क्या मतलब?"
"तुम नहीं समझोगी; ये सब साइक्लोजी की बातें हैं!"
"किसकी साइक्लोजी? मेरी या तुम जैसे मर्दों की?"
"यही समझ लिया होता, तो अपने आप को फिट और मेन्टेन करके रखतीं न!" उन्होंने बीवी पर आदतन एक और तंज कसा।
"अपने आप को मेन्टेन करूं या तुम्हारे ऐश-ओ-आराम को; मुझे भी तो कुछ चाहिए!" बड़बड़ाती हुई बीवी रसोई में चली गई। अकरम साहब मोबाइल के चित्रों पर आंखें गड़ाए गरम भजियों के मज़े ले रहे थे।
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(16). सुश्री संध्या तिवारी जी 
बोल मेरी मछली कित्ता पानी

पापा मैं जा रही हूं .... ओमप्रकाश... अच्छा लड़का है , मैने मां को बताया था... लेकिन उसकी पिछड़ी जाति के चलते... मां ने आपको नहीं बताया ।आजकल ये सब कौन मानता है पापा... लेकिन ... हो सके तो मुझे माफ कर देना......
आपकी....
पत्र के शब्दों के उथले जल में तैरते पति -पत्नी जाति की दीवार से बार- बार ऐसे टकरा रहे थें , जैसे आत्ममुग्ध रंग- बिरंगी मछलियों को गहरे पानी की सुरक्षा से घसीट कर मनोरंजन के निमित्त छोटे से काँच के ज़ार में छोड़ दिया जाय, जीवन भर उसकी दीवारों से हाँफ -हाँफ कर अपनी थूथन चोटिल करने को।
" दुबे जी हैं क्या ? "
आगन्तुक की आवाज़ से पति पत्नी नीम बेहोशी से जागे ।
"लगता है ,वर्मा जी है। "पत्नी ने सजग होकर कहा
" हूँ ।" पति ने सिगरेट का आखिरी कश रीढ़ के अन्तिम छोर तक खींच कर बची सिगरेट को बिना प्लास्टर वाली दीवार की संध में ऐसे घुसा दिया जैसे घर की बात घर में दफना कर रहा हो।
"आइये , वर्मा जी बड़े दिन बाद दर्शन हुये।"
वर्मा जी को बैठक में बैठाते हुये दुबे जी कृत्रिम मुस्कान के साथ संयत स्वर में बोले
" अरे ! क्या बतायें दुबे जी ,"
कहकर उन्होने दो विवाह के कार्ड़ और मिठाई का ड़िब्बा उनके आगे सरका दिया
" ये क्या है ? "
कहते हुये दुबे जी कार्ड़ खोलकर पढ़ ही रहे थे , कि वर्मा जी से छलकती खुशी सम्भल न पाई । अतिउत्साह में भर कर बोले
" अब क्या बतायें , पंड़ित जी , मेरी बहू भी पंड़ित घर की आ रही और मेरा दामाद भी आप की बिरादरी का है... मेरे दोनों बच्चों की लवमैरिज है... मैनें कभी अपने बच्चों के ऊपर अपने फैसले नहीं लादे ...जाने वे कैसे मां बाप होते है, जो अपने बच्चे की खुशी में खुश नहीं होते... लीजिये साब आप तो मिठाई खाइये... अच्छा जी अब चलते हैं ...अभी और भी कार्ड बाँटने हैं .. "
दुबे जी मिठाई का एक टुकड़ा उठाते हुये आँखे बन्द कर कड़वी हो चुकी लार को घूँटते हुये बोले ; " अरे ! सुनिये तो वर्मा जी , अन्यथा न लें तो एक बात पूँछूँ , अगर आपके बच्चे जाटव आदि जातियों से अपने जीवन साथी चुनते तो.....
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(17). सुश्री सिखा तिवारी जी 
बरखा की रात
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आधी रात हो चुकी थी। सुबह से लगातार काम करते हुए अब बिस्तर नसीब हुआ था।  मगर बरखा की आँखों से नींद गायब थी।तेज़ बारिश  के बावजूद मन की तृष्णा बेचैन किए थी। चाचा चाची पहली बार गाँव आए थे। बरखा भयभीत थी। उनका फैसला और दादू की मजबूर आँखें बरखा को रह रह कर उद्विग्न कर देतीं। बरखा धीरे से उठी और दादू के कमरे में झाँका। दादू भी करवटें बदल रहे थे। उसकी आहट पाते ही बोल पड़े:
"अंदर आजा   बेटा।" बरखा उनके पास जाकर बैठ गई।
"पानी पियोगे दादू?"
"ला पिला दे आज और... कल से पता नहीं।" उनका स्वर भीग गया था।
बरखा ने उनका माथा सहलाया।
"मैं नहीं जाना चाहती दादू, चाचा चाची मेरी शादी करके पापा का क़र्ज़ उतारेंगे  या नहीं, मगर हम दोनों को बेसहारा कर देंगे।
"बरखा!" दादू काँपते स्वर में बोले। "जब से तेरे  माँ पापा को खोया अपना दुःख ही भूल गया था रे!..."।
बरखा ने दादू को  टोपी पहनाई और हथेलियों को मलने लगी।
"मगर आज... आज लग रहा सब खो दूंगा।"
दादू की हथेलियाँ स्वतः ही बरखा के हाथों को जकड़ रही थीं।
"अरे बरखा तू यहाँ है, कब से बुला रही हूँ मैं।" कहते हुए चाची कमरे में आईं।
"ये देख तेरा एडमिशन फाॅर्म ।"
"मगर कैसा फाॅर्म  बहू?"
दादू ने कुछ संशय से कहा।
"पिताजी आप ही ने तो कहा था कि अभी बरखा पढ़ना चाहती है।" चाची ने स्नेह से मुस्कुराते हुए बरखा के सर पर हाथ फेरा। 
बाहर की बारिश थम चुकी थी। बरखा के अंदर की तृष्णा भी।
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(18).सुश्री शशि बांसल जी  
ठहरा हुआ सुख

चार पहिया वाहन की आवाज सुन बाहर झाँक कर देखा रक्षा ने । उसके अम्मा-बाऊजी थे । नौकर भानू को गाड़ी से सामान उतारने का आदेश देकर रक्षा भीगे नयनों से भीतर आ गई । सुबह माँ का फ़ोन आने के बाद सेे ही वह पिछली बातों को याद कर कई बार रो चुकी थी ।
" ओफ्फो माँ ! एक ही तो बेटा है तुम्हारा , क्यों इतना सामान ठूँस रखा है रसोई में ? "
" क्यों , क्या कभी बहू नहीं आएगी इस घर में ।उसके बाल-बच्चे नहीं होंगे ?"
" बस माँ..." रक्षा हाथ जोड़कर हँस देती । अपनी माँ के गृहस्थ प्रेम को भली-भाँति जानती थी वह । रसोई में अपने हाथों से साफ और तैयार किये अनाज, मसालों, पापड़ , बड़ियों , ढेरों तरह के अचार , जेम-जैली के डिब्बों और एक से बढ़कर एक सुंदर क्राकरी आदि को सुंदर करीने से सजा देख हर आने जाने वाला वाह-वाह करता था । वह दिन भी आया जब बेटा ब्याह योग्य हो गया ।" बहुत खट लिया रसोई में ... बहू आ जाये तो सब उसे सौंप सिर्फ राम राम भजूँगी ।" ऐसा कहते हुए अक़्सर उनके हाथ अपने घुटनों पर पहुँच जाते और वह उन्हें दबाने लगतीं ।
" तुम भी न माँ , ना जाने कौन से युग में जी रही हो ? आज की लड़की और चौका-चूल्हा ? हूँ...।"
" खबरदार ! जो मेरी बहू के लिए कुछ कहा तो " प्यार भरी झिड़की दे वह रक्षा को चुप करा देतीं ।
और आज पूरा एक माह हो गया उसी बेटे को इस दुनिया से गए । एक सड़क दुर्घटना और माँ के सारे स्वप्न खत्म ।सुबह ही माँ ने सूचना दे दी थी अपने आने की ये कहते हुए अब कोई वज़ह शेष नहीं है इस गृहस्थी को सजाने - सहजने की ।तुम्हारी जरूरत का सामान लेकर आ रही हूँ ।
" बेटी , ये। कुछ डिब्बे और क्रॉकरी वगैरह हैं किधर रखवा दूँ ?" माँ की आवाज़ सुन रक्षा की तंद्रा टूटी । देखा नौकर भानू चादरों से बँधी पोटली लेकर पिताजी के साथ भीतर चला आ रहा था । ना चाहते हुए भी वह आँसूओं के सैलाब को रोक नहीं पाई । उसे लगा एक बार फिर भाई का शव घर के भीतर लाया जा रहा है ।
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(19). सुश्री अन्नपूर्णा बाजपेई जी 
जीवनदान
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सरला बिलख –बिलख कर रोये जा रही थी । उसके मुंह से शब्द न निकल रहे थे । बस आंखों से अविरल जल धारा बहती जा रही थी । बार-बार आसमान की तरफ हाथ उठा कर अपना आंचल फैलाती ,
 प्रभु ! मेरा जीवन ले ले , पर उसे मुझे लौटा दे जिसने अभी-अभी दुनिया में आंखे खोली है ।’
गिरती पड़ती किसी तरह अपनी सास के पास पहुंची,
‘ माई ! मुझे मेरी बच्ची लौटा दे, कुछ भी कर !!’  
माई बेबस सी बैठी थी । क्या कर सकती थी? कभी मुंह न खोला था किसी के सामने । बाप और बेटा दोनों जिद्दी ! कि बेटी नहीं जिएगी । उनका कहना था बेटा कुल का दीपक होता है वो कैसा भी हो ? अपनी बच्ची आज भी भूली न थी । अक्सर कलेजा हूक उठता था । कुछ न कर पाने का दर्द था । 
“ नामुराद कहीं का !” माई मन ही मन बुदबुदायी । अचानक कुछ सोच कर उठी ।
“ मरे !! तेरे  जैसा कुलदीपक कहाँ से पैदा होगा अगर बेटी नहीं जिएगी , देखती हूँ मेरी पोती कैसी नहीं जिएगी, लगा हाथ !” दहाड़ उठी माई और लट्ठ उठा लिया।
“ लगा हाथ !! अभी फोड़ती हूँ तेरा सिर !” सब सकते में आ गये, जिसने कभी जुबान न खोली थी वो घायल शेरनी की तरह दहाड़ रही थी ।
बेटे ने बहदुरी दिखाई
“ का माई ! पगला गयी हो , चलो हटो किनारे । ये मर्दों का काम है हम सुलटा लेंगे । तू अंदर जा ।”
ज़ोर का लट्ठ उसके पीछे जड़ दिया माई ने,
“ परे हट ! बड़ा आया सुलटा लेंगे । ये हम औरतों का मामला है हम सुल्टाएंगे तू या तेरा बाप नहीं । चल सरला उठा बच्ची को ! “ गुस्से से चेहरा तमतमा रहा था । किसी की हिम्मत नहीं हुयी कि माई को रोके । क्योंकि जब बाढ़ बांध तोड़ती है तो विनाश लाती है । सरला ने लपक कर बच्ची को उठा लिया और अपने कलेजे से चिपका लिया । उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगी । आँसू अब भी बह रहे थे । पर वो उसके ममत्व के सुख को जीने के ।
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(20). सुश्री नीता कसार जी

मुस्कुरा भी दो

'नही हम किसी को नही बतायेंगे घर में,हम कहाँ जा रहे है,क्यों जा रहे है?
कब आयेंगे'। मित्रमंडली को योजना बताते हुये दीपक ने कहा ।
'नही यार!! बरसात में नदी नाले उफान पर होते है,मुझे तो उनका विकराल रूप देखकर डर लगता है ,ऊपर की साँस ऊपर नीचे की साँस नीचे हो जाती है।'
सुदीप ने अपना मत रखना चाहा।
'तू भी ना डरपोंक है,फिर जा बैठ जा घर में जाकर मां का लाड़ला ,हम तो वहाँ जायेंगे ,मस्ती करेंगे,खुदफोटू खींचेंगे,फिर सबको भेज देंगे।'
'तू घर जा भाई ,हमारे साथ घूमने मज़बूत कलेजा चाहिये ।अनुराग ने चुटकी ली ।'
आखिर कार सुदीप मान गया ।बारिश रूकी और वे पहुँच गये नदी में नौकायन करने ।
मित्रमंडली अथाह जलराशि और विकराल बाढ़ देख कर भी ना सकपकाई ।
नदी उनके इम्तिहान लेने को व्याकुल हो रही थी ।
मौत ने आखिर उन्है मतिभ्रष्ट कर नौका में सवार किया, वह उन्है धक्का देकर नौका पलटाने की फ़िराक़ में रही,जिंदगी और मौत का तांडव देख नदी थरथरा गई ।
जिंदगी ने जंग जीतने की ठान ली, उन्हे लंबी जद्दोजहद के बाद किनारे पर ला छोड़ा।
होश आया तो मातापिता को सामने पाकर मस्तीखोर फूट फूट कर रोने लगे,मस्ती का डरआँखों से छलका जा रहा था ।
मातापिता लापरवाह संतान के सिर पर हाथ फेरे जा रहे थे,आँखे ही नही मन की नदी बहने लगी ।कंपकंपाते हाथो से लाड़ले के आँसू पोंछते पिता बोले ' नादानों जिंदगी बार बार जश्न मनाने का मौका नही देती ।'
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(21). श्री मनन कुमार सिंह जी 
धड़ीचा
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क्यूँ री धुलिया, सब छोड़-छाड़ के आ गयी मुँह उठाये?, कारी काकी बोली।
-क्या करती काकी, यह भी कोई गाँठ-बंधाई होती है?
-क्या मतलब?
-यही कि सोलह-छितालिस का मेल बनता है क्या?
-रे संघारी, मेरा भी तो ऐसा ही हुआ था।
-फिर तो तुझे सब पता ही होगा,ककिया।
-क्या सब रे हरजाई?
-मर्द का सुख,मेहरारू का दर्द,और क्या?
-वो तो है।पर चारा क्या है?
-बे-चारा होकर बार-बार मरना पड़ता है,किसीको जिंदा करने के लिए।है न?
-हाँ,पर धड़ीचा की रकम का क्या होगा?पचास हजार तो गये ठाकुर के कर्ज चुकाने में,वरना तेरी छुटकी को जाना पड़ता।
-अरे काकी, मैं तो उसीके लिए बिकी थी।पर उसकी भी कुछ शर्त्त होनी थी न।
-ठीक कहती है तू।अबकी देखेंगे,बाकिर नवशे की उमर कम होने पर रोकड़ा कम ही मिलेगा न।खैर तेरी ख़ुशी के लिए वैसा ही करेंगे।
-हहहह....ख़ुशी मेरी....मर्दों की कह कक्कू...नवशे बनते हैं बार-बार....क्यूँ सही है न?
-सच है रानी... लछमी....आउच!किसीकी ख़ुशी,किसीका गम!कहते हैं---बुधिया का बस्तर(वस्त्र)फटा, बुढ़ऊ की आँखों में रौशनी आ गयी।
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(22). सुश्री राजेश कुमारी जी 
‘जीवन का सुख’

नये अध्यापक सिद्धार्थ सिंह अपनी विशेष शिक्षण शैली के लिए प्रसिद्द थे वो प्रयोगात्मक उदाहरणों से बच्चों को भारी से भारी विषय को इतनी आसानी से समझा देते थे की बच्चा जिन्दगी भर उसे भूल नहीं सकता था|
आज कक्षा में सब बच्चे अपना-अपना पौधा लेकर आये थे जिसमे अध्यापक के कल के पूछे गए प्रश्न का उत्तर था|
अध्यापक ने पूछा था- “बच्चों जीवन का सुख कहाँ से प्राप्त होता है?” किन्तु बच्चों के उत्तर से संतुष्ट न होकर उन्होंने सब बच्चों को एक-एक पौधा दिया जो छोटे से गमले  में उगा था  और कहा था-“ इस प्रश्न का उत्तर इन पौधों की जड़ों में छुपा है इनको अपने-अपने घर ले जाओ तथा कल तक उत्तर ढूँढ के इनको वापस लाना”|
बच्चे कक्षा में बेसब्री से टीचर की प्रतीक्षा कर रहे थे तभी सुप्रभात करते हुए अध्यापक सिद्धार्थ ने मुस्कुराते हुए कक्षा में प्रवेश किया|
फिर सभी के पौधों को बारी-बारी से देखने लगे  सभी बच्चों का यही उत्तर था कि  पौधे की जड़ में तो कुछ भी नहीं मिला सर, सभी के पौधे मुरझाये से लग रहे थे|
सभी ने बताया की उन्होंने पौधे को मिटटी से निकाल कर दुबारा स्थापित  किया था |
तभी राजीव का नंबर आया उसका पौधा तरोताजा लग रहा था उस पर एक कलि भी चमक रही थी | अध्यापक के चेहरे पर भी मुस्कराहट दौड़ गई प्रश्न का उत्तर पूछा तो राजीव ने कहा-“सर मैंने पौधे को बाहर नहीं निकाला बल्कि घर जाकर इसमें पानी डाला और खुले में रख दिया सुबह ही इसमें कलि आ गई जिसे देख कर मुझे बहुत ख़ुशी हुई ” |
“शाबाश...”कहकर  टीचर ने राजीव की कमर थपथपाई |
फिर सबसे बोले –“जिस तरह तुम सब के पौधे उखाड़ने से तथा देखभाल न करने से सूख गए उसी तरह हमारी जड़ें हमारे बुजुर्ग हैं जो ध्यान न देने से प्रेम से वंचित रहने से मुरझा जाते हैं जिसके कारण हमें भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता|
 बड़ों का आशीर्वाद जीवन का सच्चा सुख है दूसरी  बात  है कर्म करना जिससे सुख प्राप्त होता है राजीव ने पौधे में पानी डाला उसकी देखभाल की तो ये कलि उस कर्म का ही नतीजा  है जो राजीव के सुख का कारण बनी अर्थात बिना मेहनत किये भी जीवन में सुख प्राप्त नहीं हो सकता” |
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(23). डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी 
कर्तव्य 

गुरुवर, ‘सुख’ क्या है ?’ शिष्य ने पूंछा ‘यह एक चिरंतन प्रश्न है ?’ – गुरु ने मुस्कराकर कहा –‘सुख की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, किसी व्यक्ति के लिए जो सुख का उपादान है वही दूसरे के लिए दुःख का कारण हो सकता है. सुख मनुष्य के वैचारिक स्तर पर भी निर्भर करता है.’ गुरु अभी शिष्य को समझा ही रहे थे कि संदेशवाहक ने आकर किसी अतिथि के आगमन की सूचना दी. गुरु ने शिष्य से कहा –‘वत्स! तुम्हारे पिता तुमसे मिलने आये है. थोड़ी ही देर में वह यहाँ उपस्थित होंगे’. शिष्य का मुख प्रसन्नता से खिल उठा . ‘पिता के आने के समाचार से तुम्हे हर्ष हुआ. यह भी एक सुख है किन्तु यह तात्कालिक और क्षणिक है.---‘ गुरु एक पल के लिए रुके फिर विचारपूर्वक उन्होंने शिष्य को आदेश दिया – ‘वत्स, तुम अपने पिता को तब तक प्रणाम मत करना जब तक मैं तुमसे न कहूं.’ इस आदेश पर शिष्य आश्चर्य में पड़ गया –यह तो निहायत बदतमीजी होगी .पर गुरु से कुछ कहने का साहस उसमे नही था .उधर गुरु ने बात जारी रखते हुए कहा –‘सच्चाई तो यह है, वत्स कि मनुष्य जीवन भर सुख रूपी मरीचिका के पीछे भागता फिरता है, जबकि सुख स्वयम उसके अधीन होता है ‘ इसी क्षण शिष्य के पिता का आगमन हुआ. उन्होंने पहले गुरु के चरण स्पर्श किये फिर अपने पुत्र पर स्नेह भरी दृष्टि डाली . पर यह क्या पुत्र की निगाहें झुकी हुयी थी . उसने पिता का चरण स्पर्श करना तो दूर अभिवादन तक नहीं किया , इतना अविनय, इतना अभिमान. गुरु के इस विख्यात आश्रम में यह कैसी शिक्षा ?. पिता का मन क्षोभ से भर गया . शिष्य की मनोदशा भी ऐसी ही थी. उसका मन उसे रह रहकर धिक्कार रहा था. ‘उठो वत्स. पिता को प्रणाम करो ‘ –अचानक गुरु की आवाज से वह सचेत हुआ . पुत्र ने दौड़कर अपने पिता को प्रणाम किया और उनसे लिपट गया . पिता ने भी पुत्र को स्नेह से गले लगाया. दोनों की आँखों से आंसुओं की अविरल धारा निकल पडी . ‘वत्स, यही सच्चा सुख है’ – गुरु की गंभीर ओज भरी वाणी हवा में गूँज उठी –‘कर्तव्य-पालन से बढ़कर न कोई धर्म है और न सुख . जब हम अपने कर्तव्य से मुख मोड़ते है तब हमारा मन हमें सौ-सौ बार धिक्कारता है. यदि हम उस धिक्कार को अस्वीकार करते है तो हम स्वतः अपने लिए दुःख को आमंत्रित करते है ‘- इतना कहकर गुरु ने अपनी आँखे बंद कर लीं .
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(24). श्री मोहन बेगोवाल जी 
सुख बनाम सूनापन

रिटायरमेंट के बाद आज मैं अपने गाँव को जाने के लिए तैयार हो कार में बैठ गया। चाली वर्ष के बाद आज फ्री हो कर पहली बार गाँव जाने का प्रोग्राम बनाया, यहाँ पर भी तो अकेला ही हूँ, जब की श्रीमती इंग्लेंड बेटे के पास गई है ।
 वैसे जब भी परिवार के साथ पहले कभी गाँव जाता तो वापस आने की जल्दी होती और कभी जाते भी तो किसी जरूरी फंक्शन पर ही । मगर आज तो मन में कौन सी ख़ुशी थी कि मुझे पता ही न चला कब पांच घंटे के सफर पास हो गया और मैं गाँव में था ।गाँव में आ कर मैनें कार को घर की तरफ़ मोड़ लिया ।घर के पास आ कर मैने कार का हार्न बजाया, थोड़ी देर कि बाद सतीश घर से बाहर आया, आते ही सतीश ने दुआ सलाम की और मैने भी उसे प्यार दिया ।
थोड़ी देर पास बैठने के बाद सतीश ने कहा, चाचा जी, "आप यहाँ आराम करें, मैं अभी ज़रा काम कर के आया" ।
जब भाई और भाभी के बारे पूछा तो उसने ने कहा, "वो तो हरिद्वार गए हैं" ।
फिर सतीश ने कहा, "किसी चीज़ कीजरूरत हो तो  सीता को बुला लेना, अभी चाय बना रही है" ।
देर रात मैं इंतजार करता रहा मगर रात को मैं अकेला ही कमरें में लेटा करवटें लेता रहा, पहले तो नींद नहीं आई  मगर बाद में पता ही न चला कब नींद आ गई ।
सुबह उठ कर जब मैं चौपाल की तरफ़ जा रहा था तो राह में कई लोग बच्चे बजुर्ग व् औरतें मिली ।
मगर किसी को मेरी और न मुझे उनकी पहचान थी, और जो बड़ी उम्र के लोग पहचानते भी वो भी दुआ सलाम करके आगे बढ़ गए । चौपाल में भी अब कोई बैठा दिखाई नहीं दिया, कुछ औरतें नल से पानी भर रही थी, पता नहीं मेरे के मन में क्या आया वहाँ से जल्दी ही मैं घर की तरफ मुड़ा।
सतीश भी बिना मिले ही सुबह काम पर जा चूका था, तब मुझे लगा कि सूनापन तो वैसा ही जैसा शहर में, फिर यहाँ क्यूँ ।और मैने समान उठाया और बाहर कार के पास आ गया एक पल मुझे लगा कि घर वालों की भीड़ मुझे बस चढाने साथ आ रही है ।
 मगर थोड़ी देर बाद मेरा हाथ कार के दरवाज़े पर था, पिछली सीट पर समान रख मैने कार का अगला दरवाज़ा खोला और बैठ कर कार स्टार्ट की तब लगा कि ये कैसा सुख मिला जिसने अपनापन भी खो लिया, और कार स्टार्ट कर, मैं दुसरे सूनेपन की तरफ चल पड़ा ।
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(25). श्री लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी 
कलाई सजवांने
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बिटिया ममता का खत मिला जिसमे लिखा था -
आज बाजार गई थी जहाँ रँग-बिरंगी राखियों की चारो ओर रौनक छायी हुई थी । मन में उमंग छायी हुई थी कि वीर की कलाई सजाऊँगी । तभी मन में ख्याल आया कि मुझे ब्याह कर माँ-बापू ने तो परदेस भेज पराई कर दिया । 
खत पढ़ते ही भैया योगीराज ने तुरन्त फोन लगाजर कहाँ - "बहन दुखी मत हो । माँ-बापू ने तो तुझे इसी शहर में हृदय के पास ही ब्याहा था पर भाग्य की आस में कर्मवीर ही ले गए । हमने तुझे हृदय में सहेज रखा है । तुझे यह जानकार ख़ुशी होगी कि बापूं ने पहले ही मेरा रिजर्वेशन करा दिया है । रक्षा बन्धन के दिन अच्छी सी राखी से कलाई को सजवाने मैं आ रहा हूँ | और हाँ, तुझे कुछ दिन के लिए मेरे साथ आने की तैयारी करके रखना ।
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(26). श्री विनय कुमार जी 
समझ


जैसे ही वह दरवाजे पर पहुँचा, झबरा आदतन इठलाते हुए उसके ऊपर चढ़ने लगा| उसने एक लात झबरा को लगाई और दरवाजे पर रखी खटिया पर बैठ गया| धूप कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी और ऊपर से उमस, पसीना उसके कानों के पास से बहता हुआ बनियान को भिगो रहा था| मलकिन खेत पर काम करने गयी थी और बिटिया स्कूल, पानी भी देने वाला कोई नहीं था| लेकिन इन सब से बेखबर वह क्रोध और बेबसी के भंवर में डूब उतरा रहा था| 
आज एक बार तो उसकी इच्छा हुई थी कि भगेलू का गला ही दबा दे, कितनी बेहयाई से उसने कहा था "अरे मलकिन को कभी घर पर भी काम करने भेज दिया करो"| 
"हरामी" कहकर एक बार उसने ख़खार कर थूक दिया| अब कहाँ जाये पैसे का इंतजाम करने, बिटिया के स्कूल का फीस भरनी ही थी हर हाल में| मलकिन ने भी कह रखा था और उसकी भी दिल की इच्छा थी कि बिटिया खूब पढे और आगे बढ़े| 
तभी उसे महसूस हुआ कि उसके पैरों पर कुछ है और उसने नीचे देखा| झबरा चुपचाप उसके पंजे पर अपना सर रखकर लेटा हुआ था| उसके हिलते ही झबरा ने अपना सर उठाया और उसकी तरफ देखा, नज़र में आए फर्क को पहचानते ही झबरा ने उसके कंधे तक अपने पैर फैला दिये| 
उसके हाथ अपने आप ही झबरा को सहलाने लगे और उसका गुस्सा और बेबसी बहते पसीने के साथ मिलकर बहने लगे|
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(27). सुश्री कल्पना भट्ट जी 
गुमशुदा ख़ुशी
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चौक मैं अखबार बेचने वाले कई और भी थे, लेकिन बेरोजगार सुधीर बहुत अरसे से 11-12 वर्षीय छोटू से ही रोज़गार समाचार खरीदा करता थाI लेकिन आज वह बच्चा कहीं नज़र नहीं आ रहा थाI सुधीर की आँखें उस बच्चे को ढूँढ ही रही थीं कि एक अधेड़ सी औरत अखबार लेकर उसकी तरफ बढ़ी:
"ये लो बाबू जी आपका अख़बार।"
“लेकिन मैं तो हमेशा छोटू से..” वह इतना ही बोल पाया था कि उसकी बात काटते हुए वह महिला बोली:
“मुझे पता है बाबू जी! छोटू मेरा ही बेटा है” उसने सुधीर को अखबार थमाते हुए कहाI
“लेकिन आज वो खुद कहाँ है?”
"उसे नौकरी मिल गयी है साहिब, लाला की दुकान पर” उस महिला के स्वर में गज़ब का उत्साह था और आँखों में चमकI
"नौकरी? इतनी छोटी उम्र में?” सुधीर ने आश्चर्य से पूछाI
“ये सब ऊपर वाले की दया है बाबू जी कि मेरा बेटा कमाने लग पड़ाI” सुधीर की बात का अर्थ समझे बिना उसने हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा में आसमान की तरफ देखते हुए कहा I
उस महिला के चेहरे पर प्रसन्नता की लाली देखकर मन ही मन बेरोजगार सुधीर बुदबुदाया:
“ऐसा सुख मेरी माँ को कब मिलेगा भगवान?”
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(28). सुश्री अंजना बाजपेई जी 
नई फसल

बड़ी उम्मीदोंं से अपने पनपते व्यापार को देखकर खुश हुआ करता था । अचानक किसी विश्वासघात के कारण भारी नुकसान हो गया वो बौखला गया । परिवार की चिन्ता के कारण वह चारोंं तरफ से निराशा से घिर गया और मन मेंं गलत-सलत विचार पालकर घर
से यूँँ ही चल दिया । काफी देर भटकने के बाद किसी रेलवे क्रासिंंग की तरफ कदम बढ़ा दिये । एक पर भीख मांंगते बच्चोंं पर नजर डालते हुए वो आगे बढ़ा ही था कि पीछे से आवाज सुनाई दी-
" देखो , कैसे माँ -बाप हैं जो बच्चों से भीख मंगवाते हैं ..,शरम भी नहीं आती उनको ,,,,।"
"अरे साहब जी ,माँ-बाप होते तो क्या हम यूँ सड़कों पर भीख माँग रहे होते ,,,,।"जवाब में एक तेज दर्द भरा स्वर सुनाई दिया तो जैसे वह नींद से चौंक गया ।
अचानक उसकी आँखों में अपने मासूम बच्चों के चेहरे तैर गए ।उसे लगा जैसे सूखी बंजर जमीन में कुछ नए अंकुर फूटने को तैयार हैं ।आँखों में पूरी लहलहाती फसल की हरियाली तैर गई और वो उल्टे पैर घर की ओर दौड़ पड़ा । उसके कानों में शायद ये गाना गूंज रहा था -"आना जाना लगा रहेगा , सुख आयेगा, दुख जायेगा ।"
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(29). श्री निलेश शेवगाँवकर जी

कुटिलता

.

वह जल्दी से टी वी बंद कर के घर के बाहर निकला और बरामदे से ड्राइवर को फोन कर के घर आने को कहा। ड्राइवर जो अभी उसे छोड़ कर गया ही था झुंझलाते हुए लौटा और प्रश्नवाचक दृष्टि से उसे देखने लगा। उसने जेब मे हाथ डालकर बटुआ निकाला और 500 के पहले से गिनकर रखे हुए 40 नोट ड्राइवर की ओर बढ़ा दिए।
"ये लो; तुम एडवांस मांग रहे थे न, अभी एक पार्टी से पेमेंट आ गया तो सोचा तुम्हे दे दूं"
ड्राइवर के चेहरे पर पैसे की व्यवस्था से जुड़ी चिंता की लकीरें अचानक मिट गई और सुख का भाव तैर गया।
पुराने 500 के नोट खपा डालने की इस तरक़ीब से वह अभिभूत था। उनकी कुटिलता ने आज दो लोगों के लिये कृत्रिम सुख निर्मित कर लिया था।
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(30). योगराज प्रभाकर 
नारायणी

कामिनी जब से आई थी उसने हमेशा अपनी सहेली सुनंदा को रसोई के साथ रसोई होते ही देखा थाI उसके जीवट से ईर्ष्या भी होती लेकिन अक्सर उसे सुनंदा पर गुस्सा ही आताI क्योंकि उसके चहरे पर न तो कभी थकावट ही दिखती और न ही भाग भाग कर बच्चो, पति और सास-ससुर की सेवा करते हुए किसी प्रकार की झुंझलाहट हीI रोज़ की तरह आज भी उसने पहले दोनों बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजा, नहाने से लेकर दफ्तर जाने तक पतिदेव की सब फरमाइशें पूरी कीं. फिर सास-ससुर को नाश्ता दिया. घर को व्यवस्थित कर लेने के बाद अपने नाश्ते की प्लेट लिए वह हॉल में पहुँची:
“ग्यारह बजने को आए हैं, और तू अब नाश्ता करने लगी है?” कामिनी ने अधिकार भरे स्वर में कहाI
“अरे फ्री होऊँगी तभी तो करूंगी न?” सुनंदा ने उसके पास बैठते हुए मुस्कुराकर उत्तर दियाI  
“इतने दिनों से देख रही हूँ, पल भर के लिए आराम नहीं तुझे” कामिनी ने अपनी कुर्सी उसके नज़दीक सरकाते हुए कहा
“अरे आराम ही आराम है. तू ये सब छोड़ ये बता कि लंच में क्या खाएगी?” उसकी बात को अनसुना करते हुए सुनंदा ने पूछाI
“हे भगवान! अभी नाश्ता ख़त्म हुआ नहीं कि तुझे लंच की चिंता भी होने लगी?” कामिनी ने अविश्वास भरे स्वर मे कहा
“डेढ़ बजे बच्चे स्कूल से आ जाते हैं और दो बजे इनको भी तो खाना भेजना होता है न. और तू लंच की बात कर रही है मैंने तो डिनर के लिए भी चने भिगोकर रख दिए हैंI”           
“धन्य है रे तू! किस मिट्टी की बनी है, तुझे कभी थकावट नहीं होती क्या?” दोनों हाथ जोड़कर माथे से लगाते हुए कामिनी बोलीI     
“अरे अपना घर है अपना परिवार है, थकावट कैसी?” 
“मगर तुझे भी तो आराम मिलना चाहिए न?” आत्मीयता भरे स्वर में कामिनी ने कहाI
“आराम के लिए पूरी रात पड़ी होती है मेरी प्यारी कम्मो रानी” कामिनी की नाक को धीरे से पकड़ कर हिलाते हुए सुनंदा ने कहाI
“इसीलिए तो अपन ने शादी नहीं की, कौन दिन भर मुफ्त की गुलामी करे?” अपने कटे हुए बालों पर हाथ फिराते हुए कामिनी ने बहुत ही बेफ़िक्र अंदाज़ में कहाI
“अपनों के लिए कुछ करने को गुलामी नहीं सुख कहते हैं कामिनी मैडम” कप में चाय उड़ेलते हुए उसने कहाI 
“सच बता क्या तुझे कभी इस हाड़तोड़ रूटीन से कोफ़्त नहीं होती?” कामिनी ने अगला प्रश्न दागाI
“कोफ़्त कैसी? मुझे तो बल्कि सच्ची ख़ुशी मिलती है ये सब करने सेI”
“ख़ुशी? मगर क्यों?” कामिनी उत्तर जानने को बेचैन थीI
“तूने गृहस्थी नहीं बसाई न?” उत्तर देने की बजाय सुनंदा ने प्रश्न उछालाI    
“गृहस्थी? माई फुट! हम तो आज़ाद परिंदे हैं” स्वछन्द लहजे में उसने उत्तर दिया
चाय का कप उसकी तरफ सरकाते हुए सुनंदा ने मुस्कुराते हुए कहा:
“तब तू यह सब नहीं समझ पाएगीI”
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(31) श्री वीरेन्द्र वीर मेहता जी 

आत्मिक संबंध 

"बेटी... भाग्य का लिखा कौन टाल सकता है, बस हौसला रख...।"
"पहले दुःख क्या कम थे जो पति का सहारा भी छीन लिया परमात्मा ने...।"
बारह वर्ष के वैवाहिक जीवन में बमुश्किल पांच वर्ष हँसी-ख़ुशी गुजारने के बाद पति की ला-इलाज बिमारी ने उसके जीवन को एक ही राह पर ला खड़ा किया था। बिस्तर पर पड़े पति की दैनिक जरूरतें, दवाइयां और सेवा के साथ-साथ जीवनयापन के लिये नौकरी व् बच्चे के पालन-पोषण में उसके दिन कब रात में बदल जाते, वह खुद भी नही जान पाती थी। आसपड़ोस और करीबी लोगों में उसकी कर्तव्यपरायणता के साथ बदनसीबी की बातें भी अक्सर सुनाई दे जाती जाती थी। आज वह पति की सेवा से मुक्त होकर सफेद कपड़ो में सिर झुकाये गीली आँखों से लोगों के सांत्वना भरे शब्द सुन रही थी।
........... दूर बैठी बुआ, उसकी रह-रह कर ली जाने वाली सिसकियों से व्याकुल हो उठी थी। उसके गुजरे हुये कल और आने वाले कल, दोनों में ही बुआ को अपना अतीत नज़र आ रहा था। जब सब्र जवाब देने लगा तो कुछ एकान्त मिलते ही अपने मन की कहने उसके पास जा पहुंची।
"जानती हूँ बड़ी हिम्मत से तूने बीता समय गुजारा है। तेरा दुःख समझ तो सकते है लोग पर बांट नही सकते। देख बेटी, दुःख का समय तो निकल गया, अब तो परमात्मा की कृपा से सुख का समय आया है।"
"मैं समझी नही बुआ जी...! गीली आखों में सवाल उठ खड़ा हुआ।
"बेटी, समाज के लिए जीना और अपने लिये जीना। बहुत फर्क होता है दोनों के बीच में। अब पुराना समय तो रहा नही कि जिस घर डोली जाए, उसी घर से......"
अनायस ही उसकी सूनी आँखें बुआ की ओर जा टिकी।
"देख बेटी, सब कुछ भूला कर अब आगे की सोच!" बुआ अपनी बात कहे जा रही थी। "ये दुःख जब हद से बढ़ जाता है न तो इसका बदला हुआ चेहरा ही सुख बन कर आता है।
"नही बुआ, ऐसा नही है।" वह कुछ क्षण के लिये रोना भूल गयी। "ये सुख-दुःख तो हम मनुष्यों के ही बनाये हुए चेहरे है जिन्हें हम अक्सर अपना मुखोटा बना लेते है। बुआ! जाने वाले इंसान के लिये कोई नही रोता। रोया तो उस 'सुख' के लिये जाता है जो हमें जानेवाले से मिला होता है......" उसकी सिसकियाँ फिर से तेज हो गयी थी। "..... और मुझे अपने पति से भौतिक सुख चाहे नही मिले लेकिन जो आत्मिक सुख मिले है उनके लिए तो मैं हर जन्म में उसकी विधवा बनकर रह सकती हूँ.....।" बात खत्म करते करते उसकी सिसकियाँ अब रुदन में बदल चुकी थी।
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(इस  बार कोई भी रचना निरस्त नहीं की गई, अत: यदि कोई रचना संकलन में शामिल होने से रह गई हो तो अविलम्ब सूचित करें) 

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आदरणीय भाई साहब , प्रणाम ! लघुकथा में नाम गड़बड़ हो गए थे. कृपया इसे प्रतिस्थापित करने की कृपा करें. यही निवेदन है.

लघुकथा— सुख

रमन ने चकित होते हुए पूछा,' उस को पास बहुत सारा पैसा था. फिर समझ में नहीं आता है उस ने यह कदम क्यों उठाया ?'

' पैसा किसी सुख की गारण्टी नहीं होता है,' मोहित ने दार्शनिक अंदाज में जवाब ​दिया.

' क्यों भाई ? क्या तुम नहीं चाहते हो कि तुम्हारे पास गाड़ी हो, बंगला हो, कार हो और नौकरचाकर हो ?' रमन ने अपनी इच्छा व्यक्त की.

' चाहने से क्या होता है ?' मोहित ने  जवाब दिया, ' यह सुख हमारी किस्मत में नहीं है. हम तो दो रोटी रोज कमाते और खाते हैं. किराए की गाड़ी और किराए का अच्छा मकान ही हमारी सब से बड़ी खुशी है.'

' यही तो मैं कह रहा हूं. उसे अपने भरेपूरे घर में क्या कमी लगी थी जो उस ने ऐसा किया है,' रमन बोला,' हम जिस चीज के लिए तरस रहे हैं, वह सब उस के पास थी.'

' सही कहते हो भाई ! वह जब जो चाहती थी, कर सकती थी. एक हुक्म देती और सभी नौकर उस के सामने हाजिर हो जाते थे. ऐसा सुख उसे कहां मिलेगा ?' मोहित ने पूछा.

' अरे ! जिस सुख की चाहत में वह अपने बच्चों और पति को छोड़ कर ड्राइवर के साथ भागी वह तो उसे मिलेगा ना ?' रमन मुस्करा कर बोला तो मोहित ने जवाब में अपने दोनों कंधे उचका दिए.

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यथा निवेदित तथा प्रस्थापित

सर्वप्रथम पूर्व के सफलतम आयोजनों की श्रृंखला में एक और आयोजन के जुडने की तहे दिल से बधाई और प्रतियोगिता के अंतिम पहर में प्रस्तुत मेरी रचना को संकलन में शामिल करने के लिये विशेष आभार। आयोजन के लिये सतत् प्रयासरत आदरणीय योगराज प्रभाकर सहित आयोजान से जुड़े सभी साथियों के साथ साथ प्रतिभागियों को भी मेरी ओर से हार्दिक बधाई। नेट की हठधर्मिता और समयाभाव में कुछ साथियों की रचना पर प्रतिक्रिया न कर पाने के लिये खेद के साथ उन सभी साथियों को एक बार फिर से आभार, जिन्होंने अपने अमूल्य शब्दों से प्रोत्साहित किया। सादर।

ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक - २८ के सफ़ल आयोजन, त्वरित संकलन और प्रकाशन हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी।

हार्दिक आभार आ० तेजवीर सिंह जी.

हार्दिक आभार भाई वीर मेहता जी. 

एक और सफल गोष्ठी व त्वरित संकलन के लिये हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर जी। सफर मे होने के कारण इस बार के आयोजन मे अपनी कथा प्रेषित नहीं कर पाई इसका गहरा खेद है। पिछले दो सालों में ये पहला ही मौका है जब रचना प्रस्तुत नहीं कर पाई। आयोजन की सारी रचनाएँ उच्च स्तर की हैं। ओबीओ का ये आयोजन अपने आप मे अनूठा होता है।

हार्दिक आभार आ० प्रतिभा पाण्डेय जी, इस बार आयोजन में आपकी कमी बहुत खली. 

हार्दिक आभार आपका प्रथम प्रयास मेंं ही मेरी रचना को शामिल करने के लिए रचना पर मार्गदर्शन की प्रतीक्षा है ।

आपकी रचना पर आयोजन में काफी हो चुकी है अंजना बाजपेई जी.

बहुत २ धन्यवाद आदरणीय योगराज सर मेरी लघुकथा को संकलन में शामिल करने के लिए ,आभार ,सादर आपको इस सफल आयोजन के लिए बहुत २ बधाई

hआर्दिक आभार एवं शुभकामनाएँ बरखा शुक्ला जी. 

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