आदरणीय साथिओ,
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-34 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है.
ज़िन्दा क़ब्रें
अफ्रीका के घने जंगल में दो नंगे आदमी एक दूसरे के सामने से गुज़र रहे थे। पास आने पर एक ने पूछा, ‘‘इतिहास से छेड़छाड़...’’, दूसरे ने कहा ‘‘...नहीं होनी चाहिए।’’
किसने सोचा था कि इतिहास को लेकर भी विश्वयुद्ध हो सकता है मगर हुआ। पहले तो सभी देश सिर्फ़ अपने ही इतिहास को बदलते थे पर शीघ्र ही उन्होंने दूसरों के इतिहास को भी बदलना शुरु कर दिया। आख़िर इससे फ़ायदा जो हो रहा था!
‘‘उन कमीनों की इतनी हिम्मत कि उन्होंने हमारे महान राष्ट्रपति के चरित्र पर कीचड़ उछाला। कल का सूरज उनके मुल्क़ का आख़िरी सूरज होगा।’’ यही वो चिंगारी थी जिसने आग का रूप धारण कर लिया। इससे दूसरे देशों के नागरिकों ने भी अपनी सरकारों पर दबाव बनाया कि वो भी उन देशों के साथ ऐसा ही सुलूक करें ताकि फिर कोई उनके गौरवशाली इतिहास के साथ छेड़छाड़ न कर सके। शीघ्र ही पूरी दुनिया युद्ध की आग में जलने लगी।
चारों तरफ़ भीषण मारकाट मची हुई थी। यह भयावह स्थिति बद से बदतर तब हो गयी जब सभी देशों में गृहयुद्ध छिड़ गया। ‘‘दुनिया का जितना भी इतिहास है वो दरबारी है। इसमें महिलाओं की तरह दबे-कुचले लोगों का भी कहीं ज़िक्र नहीं है।’’ वंचित वर्गों ने इसे अवसर के रूप में लिया। परिणामस्वरूप एक को दूसरे से श्रेष्ठ बताने वाली सभ्यताएँ अब दो मोर्चों पर लड़ रही थीं।
जल्द ही युद्ध को रोकने के लिए इस पर चिन्तन आवश्यक हो गया कि आख़िर हम किस इतिहास को सही मानें? और इस पर भी कि ‘इतिहास से छेड़छाड़’ का क्या अर्थ है? उत्तर यह प्राप्त हुआ कि ‘इतिहास से छेड़छाड़’ का अर्थ ‘सत्य को छिपाना’ है। इसके लिए इतिहासकारों से कहीं ज़्यादा कवि तथा कलाकार ज़िम्मेदार थे। इसलिए उन्हें चौराहों पर चुन-चुन कर लटकाया गया। सत्य को ज़िन्दा रखने का काम दार्शनिकों का था जिसमें वो पूरी तरह से असफ़ल रहे। इससे पहले कि सरकारें उन्हें ढूँढतीं वे यूनान की एक प्राचीन गुफ़ा में जा कर छुप गये।
‘‘मानव इतिहास की शुरुआत अफ्रीका से हुई है।’’ सभी राष्ट्राध्यक्षों ने इसे एकमत से स्वीकार करते हुए युद्ध समाप्ति की घोषणा की और कहा कि ‘‘इसके इतर जितना भी इतिहास है वो सब दूषित है। इसलिए अपने पूर्वजों की भाँति हम भी अफ्रीका के घने जंगलों में नग्न होकर रहेंगे।’’ जिन चन्द लोगों ने इसे स्वीकार नहीं किया उन्हें देखते ही मार डालने का आदेश लागू है।
‘‘इतिहास से छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए।’’ दोनों ने दोहराया और फिर एक दूसरे से दूर जाने लगे। उनमें से एक अभी थोड़ी ही दूर गया होगा कि उसने एक आदमी को पेड़ पर बन्दर की तरह लटके हुए देखा। इससे पहले कि वह पूछता, ‘‘इतिहास से छेड़छाड़...’’, बन्दर की तरह लटके हुए उस आदमी ने अपनी जीभ निकाली और उसे चिढ़ाने लगा।
(मौलिक व अप्रकाशित)
आदरणीय महेंद्र कुमार जी आदाब,
प्रदत्त विषय को अलग नज़रिये से सार्थक करती सशक्त लघुकथा । इतिहास को देखने का ढंग हटकर है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
सादर आदाब आ. मोहम्मद आरिफ़ जी. लघुकथा को पसन्द करने के लिए आपका हृदय से आभारी हूँ. बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.
आदाब आप सभी को।
आदरणीय महेंद्र कुमार जी, कमाल के कथानक और कथ्य के साथ बढ़िया उम्दा प्रस्तुति के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद। बहुत ही गंभीर और विचारोत्तेजक सृजन हुआ है। किंतु शायद आप भी समझ रहे होंगे कि रचना के मध्य भाग में प्रवाह बाधित सा हो रहा है। अर्थात कुछ और समय मांग रहा है। शायद लघु संवाद शैली में यह सब बेहतर कहा जा सकता है या किसी अन्य शैली में सम्पूर्ण रचना ( विवरणात्मक या पत्रात्मक)! या फिर किसी तरह की कसावट! अभी दूसरी बार फिर से इसका अध्ययन करूंगा।
आ. शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी, सच कहूँ तो इतने विस्तृत कथानक (विश्वयुद्ध, उसका कारण और युद्धोपरांत परिस्थिति) को एक लघुकथा में समेट पाना मेरे सामर्थ्य से बाहर की चीज थी. इसलिए यदि कहीं प्रवाह बाधित हो रहा है तो उसे मैं स्वीकार करता हूँ. जहाँ तक शैली की बात है तो मुझे नहीं लगता कि इस कथानक को किसी दूसरे तरीके से प्रभावी रूप में (मेरे द्वारा) प्रस्तुत किया जा सकता था. इसके पीछे कारण यह है कि विश्वयुद्ध के बाद के मानव की जैसी कल्पना मैंने की है उसकी भाषा में केवल एक ही वाक्य है : ‘‘इतिहास से छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए।’’ अर्थात् इसके इतर वो किन्हीं अन्य शब्दों का प्रयोग करते हुए आपस में बातचीत नहीं कर सकते. इसलिए बीच में विवरणात्मक शैली ही मुझे उचित जान पड़ी. हाँ, विवरणात्मक शैली में प्रस्तुत रचना के मध्य भाग में सुधार की गुंजाइश मौजूद है. संकलन के बाद मैं इसे संशोधित रूप में प्रस्तुत करूँगा. इस ओर ध्यान दिलाने और लघुकथा को पसन्द करने के लिए आपका हृदय से आभारी हूँ. बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.
इस तरह विस्तार से विमर्श और मार्गदर्शन के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब महेंद्र कुमार जी। वास्तव में आपकी यह रचना परिश्रम बतलाती है।
शुक्रगुज़ार हूँ आपका. बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.
आद0 महेंद्र कुमार जी सादर अभिवादन। गम्भीर कथानक को आधार बनाकर लघुकथा कही आपने जो प्रदत्त विषय के साथ पूर्ण न्याय करती हुई है। शब्द शैली भी गम्भीर। कुल मिलाकर एक बेहतरीन लघुकथा। बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर।
बहुत-बहुत शुक्रिया आ. सुरेन्द्र जी. हार्दिक आभार. सादर.
भाई महेंद्र कुमार जी, आपकी कल्पनाशक्ति देखकर दंग हूँ, ऐसे नए नए कथानक कहाँ से निकाल कर लाते हैं? गज़ब! गजब! प्रदत्त विषय को जिस प्रकार अपने शब्दबद्ध किया है वह अतुलनीय है. लेकिन, यहाँ मैं भाई शेख उस्मानी जी की बात से भी सहमत हूँ कि कथा में कहीं-कहीं प्रवाह बाधित हो रहा है. उदाहरण के लिए:
1. //किसने सोचा था कि इतिहास को लेकर भी विश्वयुद्ध हो सकता है मगर हुआ। पहले तो सभी देश सिर्फ़ अपने ही इतिहास को बदलते थे पर शीघ्र ही उन्होंने दूसरों के इतिहास को भी बदलना शुरु कर दिया। आख़िर इससे फ़ायदा जो हो रहा था!//
यह पंक्तियाँ लेखक द्वारा दिए गये "लेक्चर" की श्रेणी में आती हैं. यह पंक्तियां वस्तुत: कथा में लेखक के अनधिकृत प्रवेश हैं, जिससे बचा जाना चाहिए.
//चारों तरफ़ भीषण मारकाट मची हुई थी। यह भयावह स्थिति बद से बदतर तब हो गयी जब सभी देशों में गृहयुद्ध छिड़ गया। ‘‘दुनिया का जितना भी इतिहास है वो दरबारी है। इसमें महिलाओं की तरह दबे-कुचले लोगों का भी कहीं ज़िक्र नहीं है।’’ वंचित वर्गों ने इसे अवसर के रूप में लिया। परिणामस्वरूप एक को दूसरे से श्रेष्ठ बताने वाली सभ्यताएँ अब दो मोर्चों पर लड़ रही थीं।//
इससे पूर्व आप यह बता चुके हैं कि "पूरी दुनिया युद्ध की आग में जलने लगी", तो उसके बाद इन पंक्तियों का कथा में कोई औचित्य ही नहीं रह जाता.
"नग्न" शब्द को यदि "निर्वस्त्र" कर दिया जाए तो कैसा रहेगा? बहरहाल, इस उत्तम लघुकथा पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें.
सहमति और बेहतरीन मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय मंच संचालक महोदय जी।
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