आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय विनय कुमार जी आप के अभिमत से सहमत हूँ. शुक्रिया.
आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय भाई जी, आयोजन का फीता काटने हेतु बधाई स्वीकारें. आपकी लघुकथा दरअसल बहुत हल्की रह गई जिसकी तरफ भाई सुनील वर्मा ने इशारा भी किया है. अक्सर सरकारी टेलीफोन कम्पनी के कर्मचारी हाथ में कुछ औजार या बड़ा सा हैण्ड-हेल्ड फोन लेकर चलते हैं जिनसे उनकी पहचान दूर ही से हो जाती है. अत: लघुकथा ने प्रभावित नहीं किया, क्योंकि आप इससे कहीं बेहतर लिखने की क्षमता रखते हैं.
आदरणीय भाई साहब प्रणाम. आप की बेबाक टिप्पणी पढ़ कर मज़ा आ गया. अकसर लोग कहते हैं कि सोशल मिडियाँ पर वाहीवाही होती हैं. मेरी रचना पर टिप्पणियां देख कर लोगों की धारणा जरूर टूटेगी. आप का शुक्रिया. इस पर समीक्षात्मक प्यार देने के लिए.
आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई साहब,कमजोर कथा कभी प्रभावित नहीं करती है.आप की इस टिप्पणी ने मुझे सब से ज्यादा प्रभावित किया. यही वजह है कि आप और आप का स्वभाव मुझे सदा अच्छा लगता है. इसी तरह मेरी गलतियां बताते रहे. ताकि मैं उसे सुधारता रहू. आभार आप का .
जनाब ओम प्रकाश साहिब ,अच्छी लघुकथा हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं । लगता है इस बार जल्दबाज़ी हो गई है ।
आप का शुक्रिया आदरणीय तस्दीक अहमद खान साहब,
मैं इस बढ़िया रचना को इस नज़रिए से विषयांतर्गत ही समझ रहा हूं कि प्रबंधक महोदय जिन सज्जन से फोन पर आत्मप्रशंसा करते हुए बात कर रहे हैं, वह सज्जन ही दरअसल दिवास्वप्न देख रहे हैं, दिवास्वप्न मोड में हैं! और टेलीफोन मकैनिक यह बाख़ूबी समझ रहा है उस वार्तालाप को सुनकर बिल्कुल पाठकों की ही तरह। या यूं कह लें कि वह मकैनिक उनकी और उनके दफ़्तर की हक़ीक़त जानता है, जिसकी वज़ह से वह उस वार्तालाप को सुन भी रहा था (स्वयं भी किसी दिवास्वप्न में विचरण करता हुआ!)। हार्दिक बधाई आदरणीय ओमप्रकाश क्षत्रीय 'प्रकाश'जी।
इस तरह कहा जा सकता है कि संकलन के समय तनिक बदलाव के साथ, अनकहे में ज़ाहिर विषय को उभार कर पेश किया जा सकता है। 'प्रबंधक' शब्द की पुनरावृत्ति कम की जा सकती है। कुछ वाक्यांश कम कर केवल संवादों में भी रचना कही जा सकती है।
सादर।
आदाब।
दरअसल मैंने न तो पहले से कोई पुराना चुटकुला मान कर इसे पढ़ा और न ही ऐसा कोई चुटकुला मैंने कभी कहीं पढ़ा/सुना। फोन पर दो लोगों के बीच बात होती है। दूसरी ओर के व्यक्ति की इच्छाओं ( =दिवास्वप्न) को पूरा करने के झूठे आश्वासनों से लगा कि आत्म प्रशंसा से वह प्रबंधक उसे पटा रहा है। जबकि दूसरे व्यक्ति की इच्छाओं को वह पूरी नहीं कर सकता (उसके संवादों से पता चलता है और मकैनिक भी यह समझ रहा है क्योंकि उसकी भी इच्छायें यहां पूरी नहीं हो पायीं या दूसरों से उसे ऐसा पता चला है)
यह सब दरअसल अनकहे में है, जिसे थोड़ा शाब्दिक किया जाना चाहिए था।
आशा है आप मेरा पाठकीय दृष्टिकोण समझ पायेंगे। या फिर मुझे लेखक महोदय मार्गदर्शन प्रदान करें!
आदरणीय सुनील वर्मा जी आप के नजरिये का स्वागत है. आप मेरी रचना पर बेबाक रॉय रखिए. मुझे अच्छा लगता है. गलत को गलत कहने का साहस होना चाहिए. शुक्रीया आप का.
आदरणीय शेख शहजाद उसमानी जी आप का शुक्रिया. आप रचना की चीरफाड़ का मज़ा लीजिए. इस के बहाने मैं भी बहुत कुछ सिखा रहा हूँ. आप भी सीखिए.
आयोजन के शुभारंभ के लिये ,व कथा के लिये बधाई,आद० ओम भाई जी,कथा के लिये सभी अपने विचार व्यक्त कररहे हैं।कृपया संज्ञान लें ।
आभार आदरणीय नीता कसार जी. आप के मत के लिए. कृपया अपनी रॉय बेझिझक रख दिया कीजिए.
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